लाला जगत नारायण जी के शाकाहारी बनने की कहानी, उन्हीं की जुबानी -लाल जगत नारायण
मेरा जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ जो आर्य समाजी था। मेरे पिता जी भी आर्य समाजी थे और माता जी तथा उनका परिवार भी आर्य समाजी था। हालांकि मैं यहां स्पष्ट कर दूं कि मेरे पिताजी के जीवन में कुछ विशेष परिवर्तन काफी लम्बे समय बाद घटित हुए। आर्यसमाज की विचारधारा के अनुरूप उनमें कई विशेषताएं थीं, जैसे सत्य बोलना, आर्यसमाजों के कार्यक्रमों में सम्मिलित होना, दूसरों के सेवा-सहायता के लिए हमेशा आगे रहना, किन्तु कई बार गलत संगति के कारण मदिरापान एवं अशुद्ध भोजन भी कर लेते थे। पिता जी कभी-कभी मदिरापान भी किया करते थे और माता जी हमेशा उनको शराब पीने से मना किया करती थीं और कई बार घर में मदिरापान और मांस खाने पर परस्पर झगड़ा भी हो जाया करता था।
जब पिता जी शराब पीकर घर आते थे तो मैं माता जी को बता दिया करता था कि आज पिता जी शराब पी कर आए हैं तो माता जी पिता जी को कहा करती थीं कि आप शराब न पीने का वायदा करके आज फिर क्यों शराब पीकर आए हैं तो पिता जी कहा करते थे कि मैंने शराब नहीं पी।
इस पर माता जी मुझे कहती थीं कि पिता जी का मुंह सूंघकर बताओ कि इन्होंने शराब पी हुई है या नहीं। तो मैं मुंह सूंघकर बता दिया करता था कि आज पिताजी शराब पीकर आए हैं और इस पर काफी झगड़ा हुआ करता था और मुझे भी थप्पड़ रसीद किए जाते थे।
यह बात 1905-1907 की है जब मैं 5-7 वर्ष का बालक था। मैं माता-पिता की इकलौती सन्तान था। अन्य बहन-भाई नहीं थे माता जी यद्यपि मांस खाने के बहुत विरुद्ध थीं, पर मुझे पिता जी के साथ मांस खाने से बहुत कम रोकती थीं क्योंकि वह घर में अधिक क्लेश पैदा करना नहीं चाहती थीं।
1907 में लायलपुर आर्य समाज मन्दिर में एक माता गंगा देवी उपदेशिका के रूप में पधारीं और उन्होंने 3-4 दिन मदिरापान तथा मांसाहार के विरुद्ध बड़े प्रभावशाली व्याख्यान दिए। उस उपदेशिका देवी ने मांसाहारी पुरुषों को संबोधित करते हुए कहा था कि क्या मासूम जानवरों का वध करके और उन्हें खाकर अपने पेट को कब्रिस्तान बना रहे हो!
मेरे पिता जी को उसी एक वाक्य ने इतना झकझोरा कि उन्होंने आर्य समाज के मंच पर यह घोषणा की कि मैं आज से न शराब पिऊंगा और न ही मांस खाऊंगा। श्रीमती गंगा देवी जी ने एक वाक्य यह भी कहा था कि मांस खाने वाले पशु-पक्षियों के जो बच्चे पैदा होते हैं वे पैदा होने के बाद पहले मां का दूध ही पीते हैं। शेरनी का बच्चा भी पैदा होने के बाद पहले मां का दूध ही पीता है और उसे मांस नहीं खिलाया जाता। पिता जी ने उस दिन के पश्चात् जब तक वह जीवित रहे न तो मांस खाया और न ही मदिरापान किया।
और तभी से मैंने भी मांस नहीं खाया और न ही अपने विवाहित जीवन के उपरान्त अपने पुत्रों चिरंजीव रमेश चंद्र तथा चिरंजीव विजय कुमार और न ही उनके परिवार तथा बच्चे मांस एवं शराब का सेवन करते हैं और न ही कभी हमारे परिवार को मांस खाने की प्रेरणा मिली है व न ही कभी मांस खाने की इच्छा किसी ने व्यक्त की है।
जो लोग यह प्रचार करते हैं कि मांसाहारी लोग बड़े योग्य और मजबूत होते हैं उन्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि हाथी और गैंडा दो ऐसे शक्तिशाली पशु हैं जो शेर के बाद पशुओं में बहुत शक्तिशाली माने जाते हैं परन्तु ये दोनों शाकाहारी हैं। आज से सौ वर्ष पहले तक भारत में जितने भी युद्ध हुए उनमें हाथी को एक विशेष स्थान प्राप्त होता था और जिस सेना के पास हाथी नहीं होते थे उसकी पराजय निश्चित समझी जाती थी।
इसके अतिरिक्त पुरातन समय में सहकारी सेना के भी चार भाग थे- पैदल, घुड़सवार, रथवाहिनी और हाथियों वाले सैनिक। रथों में घोड़े भी जोते जाते थे और बैल भी। इस प्रकार युद्ध में जो पशु काम आते थे वे तीनों ही शक्तिशाली व तीव्रगामी पशु बैल, घोड़ा, हाथी थे जो पूर्ण शाकाहारी हैं।
इतना ही नहीं बिजली का वेग बताने के लिए आज भी हार्स पावर अर्थात घोड़े की शक्ति शब्द का प्रयोग किया जाता है। किसी मांसाहारी पशु की शक्ति का शब्द नहीं। बहरहाल मैं अधिक तर्क पेश न करते हुए अपने परिवार तथा स्वयं को सुखी समझता हूं कि हमारा पूर्ण परिवार शाकाहारी है और हमें शाकाहारी होने पर गर्व है और बतौर माता गंगा देवी जी- हम अपने पेट में मासूम पशुओं के कब्रिस्तान नहीं बनने देते।
शाकाहारी जीवन एक पवित्र जीवन है और धार्मिक जीवन व्यतीत करने के लिए मनुष्य का शाकाहारी होना अत्यन्त आवश्यक है। संसार के सभी धर्म मनुष्य को शाकाहारी होने का उपदेश देते हैं इसलिए हमें अपनी धर्मपुस्तकों के अनुसार शाकाहारी बनना अत्यावश्यक है।
मेरा सारा जीवन राजनीति में गुजरा है। राजनीतिक व्यक्ति का जीवन बड़ा ही पापपूर्ण होता है। अगर किसी मनुष्य ने अत्यन्त धार्मिक जीवन व्यतीत कर अपनी आत्मा को शांति के मार्ग पर चलाने की कोशिश करनी हो तो उसको तब तक मन की शांति प्राप्त नहीं हो सकती जब तक वह मांस, मदिरा और तामसी भोजन का परित्याग नहीं करता।
अतः यह जरूरी है कि हम मांस, मदिरा व तामसी भोजन का त्याग करें, सादा जीवन बिताएं व संतों, महात्माओं, ऋषियों के मार्ग पर चलने का प्रयत्न करें। इसी में ही मनुष्य मात्र का कल्याण है।
[स्त्रोत- साप्ताहिक आर्य सन्देश : दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा का मुखपत्र का 7-13 सितम्बर, 2020 अंक]