राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी का स्वरूप –
लेखक – प्रो० मंगलदेव ‘लाम्बा’, एम० ए०
स्त्रोत – समाज संदेश सितंबर 1971
गुरुकुल भैंसवाल कलां का मासिक पत्र
प्रस्तुति – अमित सिवाहा
राष्ट्रभाषा के महत्व पर यहां कुछ कहने की गुंजाइश नहीं है बाईबल में बेवल के मिनार की एक कथा आती है कि आदम के बेटों ने आसमान तक पहुंचने के लिए एक बहुत बड़ा मिनार बनवाना चाहा | ईश्वर ने देखा कि ये लोग स्वर्ग तक पहुँचकर मेरी बराबरी करने लगेंगे । इन लोगों की एक भाषा थी और वे मिलकर काम करते ऊपर चढ़ते जा रहे थे । ईश्वर ने उन्हें भिन्न भिन्न भाषाएं देकर तितर – बितर कर दिया । भाषा की विभिन्नता के कारण अब वे एक दूसरे की बात ही न समझ सकते थे | वे आपस में लड़ने लगे । इसी झगड़े में मिनार भी टूट फूट गया । जिस देश के लोग एक भाषा के सूत्र में बन्धं रहते हैं , उनके भावों और विचारों में एकता रहती है । भाषा की विभिन्नता के कारण राजनीति अथवा सांस्कृतिक एकता जागृत नहीं हो सकती । प्रत्येक समुन्नत , स्वतन्त्र , स्वाभिमानी देश की अपनी राष्ट्रभाषा है । इंग्लैंड , अमेरिका , फ्रांस , रूस , चीन , जापान आदि सभी देशों में वहीं की व्यापक बहु प्रचलित भाषा राष्ट्रभाषा के रूप में व्यवहृत होती है । परिश कवि ‘ टामस डिविस ’ ने ठीक कहा है कि ” कोई राष्ट्र अपनी मातृभाषा को छोड़कर राष्ट्र नहीं कहला सकता ” मातृभाषा की रक्षा सीमाओं को रक्षा से भी जरूरी है । क्योंकि वह विदेशी आक्रमण को रोकने में पर्वतों और नदियों से भी अधिक समर्थ है । जो भाषा थोड़ी बहुत सारे राष्ट्र में बोली और समझी जाती है , वह अपने इसी गुण से राष्ट्रभाषा होती हैं ।
भारत में युग – युग से मध्य देश की भाषा सारे देश का माध्यम बन जाती रही है । संस्कृत , पाली , प्राकृत और हिन्दी क्रमशः प्रत्येक युग में सम्पूर्ण देश में प्रयुक्त होती रही है । दक्षिण के आचार्यों ने हिन्दी को आदिकाल से ही अनुभव किया था कि इस भाषा के माध्यम से वे सारे देश के जन – जन तक अपना सन्देश पहुँचा सकते हैं । बल्लभाचार्य , विठ्ठलदास , रामानुज , रामानन्द आादि इसकी राष्ट्रीय महत्ता को समझकर इसे अपने व्यवहार में लाते रहे । महाराष्ट्र के सन्त देवराज महाराज ( १६५४-१७२१ ई ० ) ने विदर्भ में हिन्दी के माध्यम से भक्तिपूर्ण पद रचे । १८ वीं शताब्दी में पेशवा , सिन्धिया तथा होल्कर आदि मराठी घराने हिन्दी में अपना राज काज करते थे । गुजरात के नरसी मेहता , राजस्थान के और रज्जब , पंजाब के नानक आदि गुरु असम के शंकरदेव , बंगाल के चैतन्य महाप्रभु उत्तरी तथा दक्षिणी भारत के सूफी सन्तों ने हिन्दी ही को अपने धर्म सांस्कृतिक प्रचार और साहित्य का माध्यम बनाया । मुसलमान बादशाहों के शासनकाल में हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में सर्वमान्य थी । सिक्कों पर सारी सूचना हिन्दी में रहती थी शाही फरमानों में भी हिन्दी का प्रयोग होता था । मुगल काल में फारसी राजभाषा हो गई , किन्तु हिन्दी का प्रयोग जनसाधारण साहित्य और शिक्षा में सर्वाधिक होता था ।
दिनेशचन्द्र सैन ( हिस्ट्री आफ बंगाली ) लिखते हैं कि ” अंग्रेजी राज्य से पहले बंगाल के कवि हिन्दुस्तानी लिखते थे , और दिल्ली मुसलमान शहनशाह के एकच्छत्र शासन में हिन्दी सारे भारत की सामान्य भाषा हो गई थी । ” इष्ट इण्डिया कम्पनी के सिक्के और आदेश हिन्दी में छपते थे । मद्रास के लेफ्टीनेन्ट टामस रोवक ( १८०७ ई ० ) ने हिन्दी को हिन्दुस्तान की महाभाषा कहा और अपने शिक्षा गुरु जॉन गिलक्राईस्ट को लिखा- ‘ भारत के जिस भाग में भी मुझे काम करना पड़ा है , कलकत्ते से लेकर लाहौर तक कुमाऊ के पहाड़ों से लेकर नवंदा तक , अफगानों , मराठों , राजपूतों , जाटों , सिक्खों धौर उन प्रदेशों के सभी कबीलों में जहां मैंने यात्रा की है , मैंने उस भाषा का ग्राम व्यवहार देखा है जिसकी शिक्षा आपने मुझे दी है । मैं कन्या कुमारी से लेकर कश्मीर तक इस विश्वास से यात्रा करने की हिम्मत कर सकता है कि मुझे हर जगह ऐसे लोग मिल जायेंगे जो हिन्दुस्तानी हिन्दी बोल लेते होंगे । ” ……. कम्पनी सरकार ने राजकीय कार्य के लिए हिन्दुस्तानी सिखाने का कलकत्ता में जो फोर्ट विलियम कालेज खोला , वह इस आवश्यकता और वस्तु स्थिति का प्रमाण है कि आधुनिक भाषाओं में हिन्दुस्तानी एक ऐसी भाषा है जिसके बिना कोई सार्वदेशिक कार्य नहीं हो सकता । राजा राममोहन राय ने कहा कि इस समय देश की एकता के लिए हिन्दी अनिवार्य है । वे स्वयं हिन्दी में लिखते थे और दूसरों को प्रोत्साहित में करते थे ।
आर्य समाज के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द यद्यपि गुजराती ब्राह्मण थे और गुजराती एवं संस्कृत के अच्छे जानकार थे , तथापि उन्होंदे अपना सारा काम हिन्दी में किया । वे इस आर्य भाषा को सर्वातमन्ना देशोन्नति का मुख्य आधार मानते थे । देश में राष्ट्रीय भावना जागृति के साथ राष्ट्रभाषा की पुकार भी उठी । कांग्रेस इस जागृति को संगठित रूप देने लगी और देश को सब राष्ट्रवादी देशभक्त उसके झण्डों के नीचे आकर देश के हितचिन्ता करने लगे । हिन्दी उनका साधन बनी और साध्य भी बालगंगाधर तिलक ने कि वे हिन्दी सीखें । “ राष्ट्र के संगठन के लिये आज ऐसी भाषा की ज़रूरत है जिसे सर्वत्र समझा जा सके । ” ” किसी जाति को निकट लाने के लिये एक भाषा का होना महत्वपूर्ण तत्व है । एक भाषा के लाने के लिये माध्यम से ही आप अपने विचार दूसरों पर व्यक्त कर सकते हैं । ” तिलक के उत्तराधिकारी एन ० सी ० केलकर ने लिखा- ‘ मेरी समझ में हिन्दी भारतवर्ष की सामान्य भाषा होनी चाहिये , प्रान्तीय कार्यों के लिये तो प्रान्तीय भाषायें ही चलें , लेकिन एक प्रान्त दूसरे प्रान्त से मिले तो परस्पर विचार विनिमय का माध्यम हिन्दी होना चाहिये । इस विषय में कोई प्रान्तीय भाषा हिन्दी का स्थान नहीं ले सकती । महाराष्ट्र के डा ० भण्डारकर का भी यही मत था कि ” भिन्न भिन्न प्रदेशों की एक सामान्य भाषा बनाने का सम्मान हिन्दी को ही मिलना चाहिये । इसके अतिरिक्त वीर विनायक दामोदर सावरकर , गोखले , गाडगिल , काका कालेलकर आदि नेताओं ने महाराष्ट्र में हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का यत्न किया । गुजरात की आवाज को स्वामी दयानन्द सरस्वती ने ऊँचा किया था । उनके स्वर में स्वर मिलाकर राष्ट्रभाषा प्रचार के कार्य को गांधी जी ने अग्रसर किया । उन्होंने कहा कि “ हिन्दी का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है ” हिन्दी को हम राष्ट्रभाषा मानते हैं ।
राष्ट्रभाषा वही हो सकती है जिसे अधिक संख्यक लोग जानते – बोलते हों । जो सीखने में सुगम हो , जिसके द्वारा भारतवर्ष के परस्पर के धार्मिक , आर्थिक तथा राजनैतिक व्यवहार निभ सके , और जो क्षणिक या अल्पस्थायी स्थिति के ऊपर निर्भर न हो । ” अगर ” स्वराज्य अंग्रेजी बोलने वाले व्यक्तियों का और उन्हीं के लिये होने वाला हो तो निस्सन्देह अंग्रेजी ही राष्ट्रभाषा होगी , अगर स्वराज्य करोड़ों भूखे मरने वालों , करोड़ों निरक्षरों और दलितों अन्त्यजों का हो , और उन सब के लिये होने वाला हो तो हिन्दी हो एक राष्ट्रभाषा हो सकती है । ” इन लक्ष्यों से युक्त हिन्दी को समता करने वाली कोई भाषा है ही नहीं । गांधी जी की प्रेरणा से ही वर्धा और मद्रास में राष्ट्रभाषा प्रचार सभायें स्थापित हुईं जिनके हजारों प्रचारकों ने इस समय तक अहिन्दी प्रदेशों में दो तीन करोड़ लोगों को हिन्दी सिखाई है । महायोगी श्री अरविन्द ने कहा – ” अपनी अपनी मातृभाषा को करते हुए हिन्दी को सामान्य भाषा के रूप में जानकर हम प्रान्तीय भेदभाव नष्ट कर सकते हैं । ” नेता जी सुभाषचन्द्र बोस १९१८ ई ० में कलकत्ता काँग्रेस के स्वागताध्यक्ष थे । उन्होंने अपना अभिभाषण हिन्दी में पढ़ा और कहा कि ” हिन्दी प्रचार का उद्देश्य केवल यही है कि आजकल जो काम अंग्रेजी से लिया जाता है वह आगे चलकर हिन्दी से लिया जायेगा । नेहरू रिपोर्ट में भी इसकी सिफारिश की गई है । यदि हम लोगों ने तन – मन – धन से प्रयत्न किया तो वह दिन दूर नहीं है जबकि भारत भाषा विवाद से स्वाधीन होगा और उसकी राष्ट्रभाषा होगी हिन्दी |
यह तथ्य उल्लेखनीय है कि हिन्दी का पहला छापाखाना कलकत्ता में बना था पहला हिन्दी पत्र ‘ उदन्त मारतण्ड ‘ कलकत्ता से प्रकाशित हुआ था सब से पहले कलकत्ता वी ० वी ० ने एम ० ए ० में हिन्दी को स्वीकार किया था । स्वामी दयानन्द को हिन्दी में अपना ‘ सत्यार्थ प्रकाश लिखने की प्रेरणा देने वाले केशवचन्द्र सैन थे । बंगाल के प्रसिद्ध भाषा विज्ञानी डा ० सुनोतिकुमार चटर्जी का मत था कि ” हिन्दी भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा है , यह तो एक स्वतः सिद्ध बात है । हर काम में अपने प्रतिदिन के जीवन में हम ऐसा ही देखते हैं । भारतवर्ष की तमाम देशी भाषाओं पर हिन्दी ही भारतीय जाति की विभिन्न शाखाओं के मनुष्यों में एक दृढ़ और उपयोगी मिलन शृंखला बनी है । ” ” श्रुती माधुर्य और कार्य शक्ति आदि में हिन्दी एक अनोखी भाषा है ऐसो भाषा हमारा गौरव स्थल है । दक्षिण के तीर्थ स्थानों में हिन्दी का व्यवहार बराबर होता आया है । अखिल भारतीय सेवाओं , व्यापार , यातायात , शिक्षा आदि के कारण लाखों दक्षिणत्य परिवार हिन्दी से परिचित हैं । दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा , मद्रास की परीक्षाओं में इस समय लगभग ८० लाख विद्यार्थी बैठ चुके हैं । यहां स्कूलों में हिन्दी शिक्षा अनिवार्य रही है और यह अनिवार्य शिक्षा श्री राजगोपालाचार्य आदि नेताओं के प्रयत्न से वर्षों से दी जाती रही है । १९२९ में राजा जी ने दक्षिण वालों को हिन्दी सीखने की सीख दी थी । उनका कहना था कि ” हिन्दी भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा तो है ही यही जनतन्त्रात्मक में राजभाषा भी होगी । ” सर टी ० विजय राघवाचार्य ने कहा – चाहे व्यवहारिक दृष्टि या राष्ट्रीय दृष्टि से देखा जाये , हिन्दी का दूसरा कोई प्रतिद्वन्दी सम्भव नहीं है । किसी दक्षिण भारतीय ऐसे व्यक्ति को शिक्षित नहीं मानना चाहिये जिसने हिन्दी में कोई लिखित या मौखिक परीक्षा पास न की हो । हिन्दुस्तान की सभी जीवित पौर प्रचलित भाषाओं में मुझे हिन्दी भाषा ही राष्ट्रभाषा बनने के लिए सब से अधिक योग्य दिख पड़ती है । भारत की भाषाओं में हिन्दी एकमात्र भाषा है जो सारे देश में ही नहीं विदेशों में भी बोली और समझो जाती है । यह बात मानी जा चुकी है कि स्वतन्त्र और जनतन्त्रात्मक देश की एक राष्ट्रभाषा होनी चाहिये । वह भाषा हिन्दी है ।
शारीरिक दृष्टि से देश स्वतन्त्र हुआ है परन्तु बौद्धिक दृष्टि से नहीं । अंग्रेजी हमारी पराधीनता का अवशेष है । इसके रहते रूस , जापान , मिश्र देश आदि हमारी बौद्धिक और सांस्कृतिक समृद्धता पर सन्देह करते हैं । अंग्रेजी पढ़ना बुरा नहीं है , किन्तु बुरा यह है कि वह हमारे पत्र व्यवहार वार्तालाप और विचार विनियम का माध्यम हो हिन्दी भारत की सांस्कृतिक भाषा है । हमारी राष्ट्रीय चेतना की भाषा है । यदि सभी भारतीय इसका व्यवहार नहीं करेंगे तो वेवल का मिनार बनाने वालों की सी दुर्दशा हमारी भी होगी । राष्ट्रभाषा से ही राष्ट्रीय भावना दृढ़ रहेगी यह बात उन १ % भारतीयों से कही जा रही है जो अंग्रेजी को अधिक महत्व देते हैं । हिन्दी को विकसित करने के लिये उत्तमोत्तम साहित्य का प्रकाशन , भाषा का स्थिरिकरण दूसरी भारतीय भाषाओं के प्रति सत्कार और सद्भाव , राष्ट्रचेतना का पुन : सजीवन आदि आवश्यक उपायों को काम में लाना चाहिये । हिन्दी के शुद्ध भण्डार को अत्यधिक समृद्ध और सर्वग्राही बनना चाहिये । हिन्दी में ऐसे ललित साहित्य को रचना होनी चाहिये जिसके अन्तर्गत भारत भर की नाना जातियों वर्गों और उपसंस्कृतियों का दिग्दर्शन हो । इसके साथ ही हमें ऐसा वातावरण बनाना चाहिये कि जो व्यक्ति भारतीय होकर हिन्दी का व्यवहार न जानता हो उसे अभारतीय , बल्कि देशद्रोही और असभ्य कहा जा सके । दूसरे देशों में अपनी भाषा न जानने वाले को ऐसा माना ही जाता है । देखना तो यह है कि हम में स्वाभिमान और स्वदेश भक्ति का कितना कुछ है ।