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धर्म-अध्यात्म

बाईबल की अभद्र (immoral) शिक्षाएं… ——————————

कहा जाता है कि बचपन में बच्चों के निर्दोष मस्तिष्क पर जो कुसंस्कार अंकित हो जाते है उन कुसंस्कारों को हटाना अत्यन्त दुष्कर कार्य होता है। प्रसिद्ध पाश्चात्य साहित्यकार स्व. मार्क ट्वेईन (Mark Twain) को बच्चों के कोमल मस्तिष्क को बिगाडने वाली बाईबल की अभद्र शिक्षाओं पर तंज कसने का एक अवसर मिला था, जिसका वर्णन उन्होंने अपने “आत्मचरित” में किया है।
एक बार अमरीका की “ब्रूकलिन पब्लिक लाईब्रेरी” की एक युवा महिला व्यवस्थापक ने शिकायत की कि मार्क ट्वेईन के दो प्रसिद्ध उपन्यास – Tom Sawyer और Huckleberry Finn – बच्चों के मस्तिष्क पर कुसंस्कार अंकित कर बच्चों को भ्रष्ट करते है, इसलिए इन दो उपन्यासों को लाईब्रेरी के “बाल विभाग” से हटा देने चाहिए। इस शिकायत का उत्तर मार्क ट्वेईन ने अपने “आत्मचरित” में इस तरह दिया था:-
“आप जो कहती है उससे मैं अत्यन्त विचलित हो गया हूँ। मैंने ये उपन्यास – Tom Sawyer और Huckleberry Finn – विशेषकर वयस्क व्यक्तियों के लिए ही लिखे थे, और जब जब मुझे ज्ञात होता है कि मेरे ये उपन्यास बच्चों को पढने दिये जाते है तब मैं बहुत व्यथित हो जाता हूँ। बचपन में जो मस्तिष्क मैला (भ्रष्ट) हो जाता है उसे फिर कभी साफ नहीं किया जा सकता; इस तथ्य को मैं मेरे निजी अनुभव से जानता हूँ, और आज तक मेरे हृदय में मेरे बाल्य जीवन के उन अभिभावकों के प्रति कडुआहट है जो, अभी मैं पंद्रह साल का ही नहीं हुआ था उससे पहले, न केवल मुझे बाईबल पढने देते थे, बल्कि मुझ पर बाईबल पढने का दबाव भी डालते थे… मैं प्रामाणिकता से कहता हूँ कि Huck के चरित के बचाव में तो मैं एक-दो शब्द कह भी सकता हूँ, पर बाईबल में वर्णित सोलोमोन, डेविड और अन्य व्यक्तियों [पयगंबरों] के चरित तो इससे भी ज्यादा बुरे है”।
“यदि [उस पुस्तकालय] के ‘बाल विभाग’ में बाईबल की भी एक प्रत रक्खी हुई है तो क्या आप बाईबल की सोबत से Tom और Huck को बचाने में उस युवा महिला की मदद नहीं करोगे?”
इसी तरह, प्रसिद्ध अमरिकी चिंतक-लेखक जोसेफ लुईस अपनी पुस्तक ‘The Bible Unmasked’ में कुंआरी मरीयम से यीशु के अप्राकृतिक जन्म का प्रसंग प्रस्तुत करने के पश्चात अपने पाठक को पूछते है, “Would you think of reading this story to your children for the purpose of drawing a moral lesson? What moral principle can be inculcated from this narrative?” अर्थात् “नैतिक शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से क्या आप [कुंआरी मरीयम से यीशु के अप्राकृतिक जन्म की] इस वार्ता को आपके बच्चों के सामने पढेंगे? इस कहानी से आप कौनसी नैतिक शिक्षा ग्रहण कर सकते है?”
पिछले दो-ढाई शताब्दियों में योरोप और अमरिका के वोल्तेयर, थोमस पैन, रोबर्ट ग्रीन इन्गरसोल, चार्ल्स ब्रेडला, चार्ल्स वॉट्स, जोह्न रेम्सबर्ग, जोसेफ लुईस, जोसेफ वेलस, जोसेफ मेककेब, जोसेफ बार्कर, रोबर्ट कूपर, एनी बेसन्ट, एलिजाबेथ कैडी स्टेन्टन, मैंगसरीयन, मार्शल गउवीन, कोनराड एल्स्ट आदि और भारत के स्वामी दयानन्द सरस्वती, सीताराम गोयल, राम स्वरूप, अरुण शौरी आदि मुक्त-विचारकों, चिंतकों, लेखकों ने बाईबल की असलियत को लोगों के सामने रख दी है तब आज के सामान्य ईसाई से लेकर इस पृथ्वी पर “यीशु के प्रतिनिधि” रोम के पोप के पास बाईबल के बचाव में एक ही युक्ति बची है और वह है- “बाईबल की नैतिक (moral) शिक्षाएं”। अब सवाल यह उठता है की ईसाई जगत के इस दावे में कितना दम है? क्या बाईबल में वर्णित अब्राहम, डेविड, सोलोमोन, मूसा, जेहु, जोशुआ, लूत, यीशु, पाउल आदि प्रसिद्ध व्यक्तियों के जीवन, कार्यों और शिक्षाओं का अनुसरण कर हम अपने जीवन को नैतिक / धार्मिक बना सकते है?

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