डॉ. वंदना सेन
स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव में भारत के स्वत्व को पुनर्स्थापित करने का जिस प्रकार से प्रयास किया जा रहा है, उसके कारण निश्चित ही आम जनमानस में यह धारणा बनी है कि भारत की विरासत गौरवमयी है। भारत में विश्व गुरू बनने की क्षमता आज भी विद्यमान है। लेकिन हमें यह भी बोध होना चाहिए कि भारत को विश्व गुरु का दर्जा देने के लिए क्या प्रयास करना चाहिए। इन प्रयासों में किसको शामिल करना चाहिए? स्वाभाविक रूप से इसका उत्तर यही है कि भारत की उन पहचान के प्रतीकों को समृद्ध किया जाना चाहिए, जिससे भारत का स्वत्व जुड़ा हुआ है। इसका अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि हिन्दी भाषा भी भारत के स्वत्व से गहरे तक संबंध रखती है। हिन्दी हिन्दुस्तान की पहचान है।
यह सर्वकालिक सत्य है कि कोई भी देश अपनी भाषा में ही अपने मूल स्वत्व को प्रकट कर सकता है। निज भाषा देश की उन्नति का मूल होता है। निज भाषा को नकारना अपनी संस्कृति को विस्मरण करना है। जिसे अपनी भाषा पर गौरव का बोध नहीं होता, वह निश्चित ही अपनी जड़ों से कट जाता है और जो जड़ों से कट गया, उसका अंत निश्चित हो जाता है। भारत का परिवेश नि:संदेह हिंदी से भी जुड़ा है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि हिंदी भारत का प्राण है, हिंदी भारत का स्वाभिमान है, हिंदी भारत का गौरव गान है। भारत के अस्तित्व का भान कराने वाले प्रमुख बिंदुओं में हिंदी का भी स्थान है। आज हम जाने अनजाने में जिस प्रकार से भाषा के साथ मजाक कर रहे हैं, वह अभी हमें समझ में नहीं आ रहा होगा, लेकिन भविष्य के लिए यह अत्यंत दु:खदायी होने वाला है।
वर्तमान में प्राय: देखा जा रहा है कि हिंदी बोलचाल में अंग्रेजी और उर्दू शब्दों का समावेश बेखटके हो रहा है। इसे हम अपने स्वभाव का हिस्सा मान चुके हैं, लेकिन हम विचार करें कि क्या यह हिंदी के शब्दों की हत्या नहीं है। हम विचार करें कि जब भारत में अंग्रेजी नहीं थी, तब हमारा देश किस स्थिति में था। हम अत्यंत समृद्ध थे, इतने समृद्ध कि विश्व के कई देश भारत की इस समृद्धि से जलन रखते थे। इसी कारण विश्व के कई देशों ने भारत की समृद्धि को नष्ट करने का तब तक षड्यंत्र किया, जब तक वे सफल नहीं हो गए। हम अंग्रेजी को केवल एक भाषा के तौर पर स्वीकार करें। भारत के लिए अंग्रेजी केवल एक भाषा ही है। जब हम हिंदी को मातृभाषा का दर्जा देते हैं तो यह भाव हमारे स्वभाव में प्रकट होना चाहिये। भाषा के मामले में हम अत्यंत समृद्ध हैं, लेकिन कभी-कभी यह भी देखा जाता है कि राजनीतिक कारणों के प्रभाव में आकर कुछ लोग हिंदी का विरोध करते हैं। इस विरोध से जन सामान्य का कुछ भी लेना देना नहीं होता, लेकिन ऐसा प्रचारित करने का प्रयास किया जाता है, जैसे पूरा समाज ही विरोध कर रहा हो। जहां तक राष्ट्रीयता का सवाल आता है तो हर देश की पहचान उसकी भाषा भी होती है। हिन्दी हमारी राष्ट्रीय पहचान है। हमारी मातृभाषा कोई भी हो सकती है, लेकिन राष्ट्रीय पहचान हमारी राष्ट्रभाषा है। आज पूरा भारत राष्ट्रीय भाव की तरफ कदम बढ़ा रहा है। हिन्दी के प्रति प्रेम प्रदर्शित हो रहा है।
आज हमें इस बात पर भी मंथन करना चाहिए कि भारत में हिंदी दिवस मनाने की आवश्यकता क्यों पड़ रही है। भारत में अंग्रेजी दिवस और उर्दू दिवस क्यों नहीं मनाया जाता। कारण, आज हम स्वयं ही हिंदी के शब्दों की हत्या करने पर उतारू हो गए है। ध्यान रखना होगा कि आज जिस प्रकार से हिंदी के शब्दों की हत्या हो रही है, कल पूरी हिंदी भाषा की भी हत्या हो सकती है। हम विचार करें कि हिंदी भारत के स्वर्णिम अतीत का हिस्सा है। हमारी संस्कृति का हिस्सा है। ऐसा हम अंग्रेजी के बारे में कदापि नहीं बोल सकते। इसलिए ही भारत में हिन्दी दिवस मनाने की मनन करने आवश्यकता है। आज हिंदी को पहले की भांति वैश्विक धरातल प्राप्त हो रहा है। विश्व के कई देशों में हिंदी के प्रति आकर्षण का आत्मीय भाव संचरित हुआ है। वे भारत के बारे में गहराई से अध्ययन करना चाह रहे हैं। विश्व के कई प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों में हिन्दी के पाठ्यक्रम संचालित किए जाने लगे हैं। इतना ही नहीं आज विश्व के कई देशों में हिंदी के संस्करण प्रकाशित हो रहे हैं। अमेरिका में हिन्दी के समाचार पत्र प्रकाशित हो रहे हैं। हिंदी संचेतना नामक पत्रिका भी विदेश से प्रकाशित होने वाली प्रमुख पत्रिका के तौर पर स्थापित हो चुकी है। ऐसे और भी प्रकाशन हैं, जो वैश्विक स्तर पर हिंदी की समृद्धि का प्रकाश फैला रहे है। भारत के साथ ही सूरीनाम फिजी, त्रिनिदाद, गुयाना, मॉरीशस, थाईलैंड व सिंगापुर देशों में भी हिंदी वहां की राजभाषा या सह राजभाषा के रूप में मान्यता प्राप्त कर चुकी है। इतना ही नहीं अबू धाबी में भी हिंदी को तीसरी आधिकारिक भाषा की मान्यता मिल चुकी है। आज विश्व के लगभग 44 ऐसे देश हैं, जहां हिंदी बोलने का प्रचलन बढ़ रहा है। सवाल यह है कि जब हिंदी की वैश्विक स्वीकार्यता बढ़ रही है, तब हम अंग्रेजी के पीछे क्यों भाग रहे हैं। हम अपने आपको भुलाने की दिशा में कदम क्यों बढ़ा रहे हैं। ऐसा करके हम अपनी पहचान को समाप्त करने का ही काम कर रहे हैं। इसलिए अब हमें सब काम छोड़कर हिन्दी को स्थापित करने की दिशा में गंभीरता के साथ कदम बढ़ाने चाहिए। इसी में हमारी और हमारे देश की भलाई है। क्योंकि हिन्दी मात्र भाषा ही नहीं, बल्कि मातृभाषा है, इससे बढ़कर राष्ट्र की पहचान स्थापित करने वाली भाषा है।
(लेखिका साहित्यकार व सहायक प्राध्यापक हैं)
डॉ. वंदना सेन, सहायक प्राध्यापक
पीजीवी कॉलेज, जीवाजीगंज