यह था आर्यावर्त का वास्तविक विस्तार और उसकी सीमाएं
डॉ॰ राकेश कुमार आर्य
आर्यावर्त शब्द हमारे भारत के प्राचीन गौरव को दर्शाने वाला बहुत ही पवित्र शब्द है । आर्यावर्त का शाब्दिक अर्थ है- ‘आर्यो आवर्तन्तेऽत्र’ अर्थात् ‘आर्य जहाँ सम्यक प्रकार से बसते हैं।’ आर्यावर्त का दूसरा अर्थ है- ‘पुण्यभूमि’। मनुस्मृति 2.22 में आर्यावर्त की परिभाषा इस प्रकार दी हुई है-
( मनुस्मृति – 1-2- 22, 29 )
अर्थात पश्चिमी भूमध्य सागर तथा पूर्वी प्रशांत महासागर के मध्य स्थित पर्वतों से घिरे हुए सरस्वती तथा दृषद्वती देव नदियां जिसके अंदर बहती हैं , उस सृष्टि के प्रारंभ में उत्पन्न मानवों ( जिनको इतिहास में देव कहा गया है ) द्वारा निर्मित देश को आर्यावर्त कहते हैं।
आजकल यह समझा जाता है कि इसके उत्तर में हिमालय शृंखला, दक्षिण में विन्ध्यमेखला, पूर्व में पूर्वसागर (वंग आखात) और पश्चिम में पश्चिम पयोधि (अरब सागर) है। उत्तर भारत के प्राय: सभी जनपद इसमें सम्मिलित हैं। परन्तु सच कुछ और है । कुछ विद्वानों ने इसकी सही व्याख्या इस प्रकार की है कि हिमालय का अर्थ है पूरी हिमालय श्रृखंला, जो प्रशान्त महासागर से भूमध्य महासागर तक फैली हुई है और जिसके दक्षिण में सम्पूर्ण पश्चिमी एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया के प्रदेश सम्मिलित थे। इन प्रदेशों में सामी और किरात प्रजाति बाद में आकर बस गयी।
दलीपसिंह अहलावत लिखते हैं… पूर्व में ब्रह्मपुत्र से लेकर पश्चिम में यूफ्रेट्स (फ्रात) और टाईग्रिस (दजला) नदियों तक, उत्तर में हिमालय पर्वत की माला, समरकन्द, कोकन्द, निशांपुर, कैस्पियन और कॉकेशस, दक्षिण में समुद्र पर्यन्त आर्यजन निवास करते थे। इन सीमाओं के अन्तर्गत जितने देश हैं वे आर्यावर्त कहलाते थे। इसलिए ईरान, अफगानिस्तान, बिलोचिस्तान, एशिया माइनर, पाकिस्तान, बांग्लादेश और वर्तमान भारतवर्ष के जितने प्रदेश हैं वे सब आर्यावर्त के प्रांत मात्र हैं।
जी हां , आजकल जिस भारत में हम रह रहे हैं यह भी कभी के हमारे आर्यावर्त का केवल एक प्रांत ही है।
कुछ लोगों ने गंगा और यमुना के बीच के क्षेत्र को आर्यावर्त के नाम से पुकारने का प्रयास किया है।
उनका ऐसा करना भी नितांत भ्रामक है। मनुस्मृति के दूसरे अध्याय में आए उपरोक्त श्लोक का यदि गहराई से अवलोकन करें तो उसमें स्पष्ट होता है कि आर्यावर्त के पूरब और पश्चिम दोनों में समुद्र है । पश्चिम का समुद्र टर्की की ओर जाकर पड़ने वाला भूमध्य सागर है , और चीन से आगे जाकर पूर्व में प्रशांत महासागर पड़ता है । इसलिए आर्यावर्त भूमध्य सागर से प्रशांत महासागर के बीच फैला हुआ था । अतः उपरोक्त व्याख्या ही वैज्ञानिक व्याख्या है।
हमें अपने गौरवशाली अतीत और गौरवशाली इतिहास पर गर्व है। जंबूद्वीप के इस आर्यावर्त देश के अंतर्गत रहने वाले हम सभी आर्य / हिंदू अपने आप को इस बात के लिए गौरवशाली समझें कि हमारे पूर्वजों ने कभी संपूर्ण वसुधा पर शांतिपूर्वक शासन किया था और भारत को विश्व का सिरमौर बना कर रखा था। यह वही काल था , जब हम आर्यावर्त देश के निवासी थे।
जब 712 में मोहम्मद बिन कासिम भारत पर आक्रमण के लिए आगे बढ़ा तो उस समय तक भी आर्यावर्त की सीमाएं अधिक टूटी-फूटी नहीं थीं । आर्यावर्त के भीतर उस समय 60 करोड़ आर्य / हिंदू निवास करते थे । कटते – कटते और घटते – घटते 1947 में जब भारत मिला तो हम 60 करोड के दुगुने 1अरब 20 करोड़ ना होकर हम आधे अर्थात 30 करोड़ रह गए । यदि 712 से 1947ई0 के बीच हमारी जनसंख्या दोगुनी भी होती तो भी हम उस समय दुनिया में 1अरब 20 करोड़ होते और आज हम लगभग 4 अरब होते । परंतु हम 30 करोड़ रह गए। इस प्रकार 90 करोड़ लोगों से हमें इतने काल में हाथ धोना पड़ गया। कभी के वही हमारे निज बंधु ही हमारे आज शत्रु बने हुए हैं ? धर्मांतरण कितना घातक रहा है – उसे इस उदाहरण से समझा जा सकता है।
तनिक सोचिए , अंजामे गुलिस्तां क्या होगा ?
हे भारतवर्ष के रहने वाले आर्यजनो ! समझो अपने अतीत को । ऐसा कौन मुगल बादशाह हुआ है ,जिसने इस संपूर्ण आर्यावर्त पर शासन किया हो या ऐसा कौन विदेशी शासक हुआ है जिसके शासन के अधीन संपूर्ण जंबूद्वीप या संपूर्ण भूमंडल कभी रहा हो ? निश्चित रूप से एक भी नहीं । जबकि आपके यहां तो ऐसे सम्राटों की लंबी श्रंखला है । खोजो अपने सम्राटों की उस श्रृंखला को और लिखो अपना गौरवपूर्ण इतिहास। समझो कि आपने संपूर्ण भूमंडल को एक बनाकर रखा और उन्होंने इसके अनेकों टुकड़े कर डाले । संपूर्ण धरती अपने अतीत को याद कर रो रही है और तुमको पुकार रही है।
सुन लो समय की पुकार।
भारतीय इतिहास को अत्यंत दुर्बल और कायर हिंदू जाति का इतिहास सिद्घ करने के लिए तथा यहां 1235 वर्ष तक चले स्वतंत्रता संघर्ष को उपेक्षित करने के लिए हमें भारतीय शासकों के विश्व विजयी अभियानों से अथवा उत्सवों से परिचित नही कराया जाता है।
देश की महानता के मापदण्ड
जब आप किसी जाति के इतिहास को और गौरवपूर्ण अतीत को समझने का प्रयास करते हैं तो सर्वप्रथम उस जाति के अथवा देश के गौरवपूर्ण अतीत के मंचन के लिए आपको कुछ मापदण्ड निश्चित करने ही पड़ते हैं जैसे-
• -उस देश की प्राचीन भाषा ने समकालीन इतिहास को कितना प्रभावित किया?
• -उस देश की संस्कृति ने, धर्म और जीवन प्रणाली ने विश्व को कितना प्रभावित किया?
• -उस देश की शिक्षा प्रणाली ने विश्व की उन्नति में कितना योगदान दिया?
• -उस देश की राजनीतिक विचारधारा ने विश्व को कौन सा दर्शन दिया?
• -उस देश की चिकित्सा प्रणाली ने विश्व की चिकित्सा प्रणाली को किस प्रकार प्रभावित किया?
• -उस देश के आध्यात्मिक दर्शन ने मानवता का कितना हित किया?
• -उस देश की शिल्प-विद्या, वास्तु कला और स्थापत्य कला ने विश्व का किस प्रकार मार्गदर्शन किया?
आप इन बिंदुओं पर भारत के विषय में यदि विचार करें तो ज्ञात होता है कि भारत ने इन सभी मापदंडों पर खरा उतरकर अतीत में अपनी सार्वत्रिक धाक जमाई है। इस विषय पर लिखना यहां उचित नही होगा। यहां संक्षेप में ही प्रसंग वश विचार किया जाना उचित है। परंतु विचार करते करते हम ये भी देखने का प्रयास करें कि जो देश इतनी महान विरासत को लेकर चल रहा हो उसे आप गुलाम कैसे बना सकते हैं? अंतत: इतिहास की उच्च परंपराएं और उनका गौरव बोध ही था जिन्होंने भारतीयों को पतन के उस काल में भी स्वाधीनता के लिए सतत संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया?
भाषा आदि के मापदण्ड
भारत की भाषा आदि के उपरोक्त सभी बिंदुओं ने विश्व को बड़ी गहराई से प्रभावित किया है इसीलिए रोम्यां रोलां ने कहा था-‘यदि संसार में कोई ऐसा देश है जहां जीवित मनुष्य के सभी सपनों को, उस प्राचीनकाल से जगह मिली है, जब से मनुष्य ने अस्तित्व का सपना प्रारभ किया तो वह भारत है।’
भारत की प्राचीन आर्यभाषा संस्कृत ने विश्व संस्कृति का निर्माण किया। सारी विभिन्नताओं को एकता में समेटने का कार्य संस्कृत भाषा करने में इसलिए सफल रही, क्योंकि इस भाषा में सोचने वाले प्राचीन आर्य लोग अपने वैदिक चिंतन से एक शांतिमयी वैश्विक-बंधुत्व आधारित विश्व-व्यवस्था के उपासक थे। इसलिए अपनी इस वैश्विक व्यवस्था की स्थापनार्थ उन्होंने ‘एक भाषा’ को विश्व के लिए अनिवार्य किया। आज कल विश्व में जितनी भी भाषाएं हैं उन सबमें प्राचीन संस्कृत के प्रचुर शब्द मिलते हैं। हर भाषा में संस्कृत शब्दों की उपलब्धता यही संकेत करती है कि संपूर्ण विश्व कभी एक भाषा से और एक संस्कृति से शासित और अनुशासित रहा है। विभिन्न भाषाओं के ऐसे शब्दों को भारत के भाषाविदों ने ही नही अपितु विश्व के भाषाविदों ने भी खोजने का श्लाघनीय प्रयास किया है।
भारत के आर्यजन प्राचीन काल से ही भाषा और संस्कृत के क्षेत्र में विश्व का नेतृत्व करते आ रहे थे। इसलिए जब उनकी भाषा व संस्कृति पर विदेशियों का आक्रमण हुआ, तो इस देश की आत्मा आंदोलित हो उठी। राजनीतिक पराभव को धर्म ही उठाता है, और धर्म ही गतिशील करता है-उस मरणासन्न व्यवस्था को जो विश्व के लिए अनिवार्य है। इसलिए जब भारत पतन की ओर जा रहा था तभी उसे उस पतितावास्था से उबारकर पुराने वैभव पूर्ण दिनों में लौटाकर ले चलने का प्रयास होना भी आवश्यक था। इसलिए राष्ट्रचिंतक लोगों ने अपनी साधना जारी रखी।
विक्टर कोसिन का कथन है-‘जब हम पूर्व की ओर उसमें भी शिरोमणि स्वरूप भारत की साहित्यिक एवं दार्शनिक वृत्तियों का अवलोकन करते हैं, तब हमें ऐसे अनेक गंभीर सत्यों का पता चलता है, जिनकी उन निष्कर्षों से तुलना करने पर जहां पहुंच कर यूरोपीय प्रतिभा कभी कभी रूक गयी है, हमें पूर्व के तत्वज्ञान के आगे घुटना टेक देना पड़ता है।’
भारत की भाषा का आदर्श था-विश्व भ्रातृत्व की स्थापना करना, और भारत की संस्कृति का आदर्श था सुर संस्कृति को स्थापित करना। वास्तव में विश्व भ्रातृत्व और सुर संस्कृति की स्थापना करना मानव का सपना नही है, अपितु ऐसा करने और ऐसा बनने का उसके द्वारा ईश्वर को दिया गया वचन है। इसलिए भारत का धर्म अपने इसी वचन के निर्वाह के लिए कृतसंकल्प रहता है। इसीलिए भारत का धर्म अहिंसा है। वह आपदकाल में अहिंसा की रक्षार्थ ही हिंसा करता है। इसीलिए भारतीय क्षत्रियों के विजय अभियानों में कभी निर्दोषों और निरपराधों का रक्त नही बहाया गया।
जब मानव का परिचय मजहब (सम्प्रदाय) से हुआ तो मनुष्य अपनी मानवता से गिरा और उसने ईश्वर को दिया गया अपना वचन भुला दिया। 1000 ई. के लगभग या उससे पूर्व सन 712 से जो लोग आक्रांता के रूप में यहां आ रहे थे उनका मजहब उन्हें एक विशेष वर्ग के लोगों को मिटाकर विश्व भ्रातृत्व और सुर संस्कृति स्थापित करने के लिए भटका रहा है। इसलिए अब ये दोनों चीजें एक सपना बनकर रह गयी हैं। जब भारतीयों ने ऐसे आक्रांताओं को अपनी पवित्र भूमि पर आते देखा तो उन्होंने तलवार से उनका प्रतिकार किया।
हममें और इन आक्रांताओं में अंतर इतना ही था कि हम मात्स्य न्याय से बहुत आगे निकल चुके थे और ये मात्स्य न्याय की ओर विश्व को ले जाना चाहते थे। इसलिए संघर्ष अनिवार्य था। हम एक व्यवस्था के अनुयायी और संस्थापक थे, जबकि ये लोग व्यवस्था को तार तार करके रख देना चाहते थे। इसलिए न्यायपूर्ण व्यवस्था को बनाये रखने हेतु लंबे संघर्ष के लिए भारत ने कमर कस ली।
आज विश्व पर भारत का भारी ऋण है, क्योंकि विश्व में यदि कहीं नैतिकता है, या न्याय है तो वह भारत के उस अथक संघर्ष का परिणाम है, जिसे उसने 1235 वर्ष तक संघर्ष करते करते किसी प्रकार बचाने में सफलता प्राप्त की है। इस संघर्ष को ‘पराधीन भारत का पूर्ण पराभव काल’ कहना अन्याय और अनैतिकता का समर्थन करना होगा।
कथित पराभव के इस काल में हमने इतिहास बनाया-अपने बलिदानों का और इतिहास ने हमें बनाया अपने वरदानों से। पर, दुख की बात ये रही कि कमाया तो हमने पर खाया किसी और ने। इतिहास हम बनाते रहे और इतिहास कोई और लिखता रहा। इसलिए संपूर्ण भारत में जब मंदिरों की स्थापना हो रही थी तो स्थापत्य कला भारत में सिर चढ़कर बोल रही थी। वास्तुकला विदेशियों को अचंभित करती थी, परंतु इतिहास लेखन में इस ‘मंदिर क्रांति’ को तथा इसके पवित्र उद्देश्य (राष्ट्र और धर्म जागरण) को उचित स्थान नही दिया गया। यदि इतिहास में इस क्रांति के पवित्र उद्देश्य को स्थान दिया जाता तो ‘मंदिर क्रांति’ कभी भ्रांति का शिकार नही बनती। वह जैसी दिव्य थी कैसे ही भव्य भारत का निर्माण कराने में सहायक हो जाती। यहां ‘मंदिर क्रांति’ को अलग तथा राजनीतिक उत्थान पतन को अलग कहानी के रूप में निरूपति किया गया। अंत में निष्कर्ष केवल पतन तक सीमित होकर रह गया। इसलिए ‘मंदिर क्रांति’ अपनी भव्यता से भटक गयी और उस पर कई स्थानों पर अपात्र लोगों का कब्जा हो गया।
भारत ने अपने विश्व साम्राज्य के काल में विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में संस्कृत सूचक प्रांतों, क्षेत्रों अथवा देशों के नाम रखें। जैसे बलूचिस्थान, अफगानिस्थान तुर्कीस्थान, कुर्दिस्थान, अर्बस्थान, कजाकिस्थान, उजबेकिस्थान आदि शब्दों में संस्कृत का स्थान प्रत्यय लगा है, जो भारत के चक्रवर्ती सम्राटों के विजय अभियानों का उत्सव मना रहा है। ब्रह्मदेश (म्यांमार) जावा, सुमात्रा, मलय, सिंहपुर, इराक, ईरान आदि भी संस्कृत सूचक शब्द है। इसके अतिरिक्त विश्व के अन्य सभी प्रांतों में भी वैदिक संस्कृति के अवशेष मिलते हैं।
किसी व्यक्ति ने अथक प्रयासों से विश्व का मानचित्र तैयार किया। वर्षों के परिश्रम से उसने यह मानचित्र तैयार किया था। मानचित्र तैयार होने पर संयोग से वह इसे अपने पुस्तकालय में रखकर कहीं बाहर चला गया। तभी उनका एक चार पांच वर्ष का बच्चा उस कक्ष में घुसता है और अपने पिता द्वारा बनाये गये विश्व मानचित्र को टुकड़े टुकड़े कर फाड़ डालता है। घंटे दो घंटे बाद बच्चे का पिता आता है तो अपने वर्षों के परिश्रम पर बच्चे की नादानी से फिरे पानी को देखकर वह बहुत दुखी होता हैै। दुखी मन से वह उस मानचित्र को जोड़ने लगता है, पर टुकड़े थे कि एक साथ जुड़ने में ही नही आ रहे थे। तब तक उनकी पत्नी भी कक्ष में आ चुकी थी। उसने पति की दुखितावस्था में हाथ बंटाने के लिए अंतत: एक युक्ति खोजी।
पत्नी ने पतिदेव से कहा कि इस मानचित्र के दूसरी ओर एक मनुष्य का चित्र इस कागज पर बना हुआ है। आइए, पहले उसी को जोड़ते हैं। अब मनुष्य को दोनों ने जोड़ना आरंभ किया, और जब वह जुड़ गया तो दोनों ने कागज को जैसे ही पलटा तो देखकर अत्यंत प्रसन्न हो उठे। क्योंकि व्यक्ति के जुड़ने से संसार भी जुड़ गया था।
हमें भी विश्व के संदर्भ में यही करना था। बड़े यत्न से हमने सुसंस्कृत संसार बनाया था जिसे कुछ बच्चों ने फाड़ डाला। अब यदि हम इसे जोड़ना चाहते हैं, तो यत्र तत्र भारत के इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों के टूटे फूटे टुकड़ों को एक साथ करके जोड़ना होगा।
हिंदुओं की दिग्विजय
हिंदुओं ने जब अपनी दिग्विजय की तो उनका उल्लेख करते हुए वीर सावरकर लिखते हैं-साधारणत: सन 550 के बाद हिंदू राजाओं ने सिंधु नदी को विभिन्न मार्गों से लांघकर आज जिन्हें बलोचिस्तान , अफगानिस्तान, हिरात, हिंदूकुश गिलगित, कश्मीर इत्यादि कहा जाता है, और जो प्रदेश सम्राट अशोक के पश्चात वैदिक हिंदुओं के हाथ से यवन, शक, हूण आदि म्लेच्छों ने छीनकर लगभग पांच सौ वर्ष तक अपने अधिकार में ले रखे थे, वे सिंधु नदी के पार के समस्त भारतीय साम्राज्य के प्रदेश उन सभी म्लेच्छ शत्रुओं को ध्वस्त करते हुए वैदिक हिंदुओं ने फिर से जीत लिए।…एक समय ऐसा भी था कि जब कश्मीर के उस पार मध्य एशिया के खेतान में भी हिंदू राज्य प्रस्थापित थे। इतिहासकारों के अनुसार गजनवी में भी राजा शिलादित्य शासन करते थे।’ इतिहासकार स्मिथ ने भी यही कहा है। उनका कथन है-‘हिंदुओं के हाथों मिहिरगुल की पराजय तथा हूण शक्ति के संपूर्ण विनाश होने के उपरांत लगभग पांच शताब्दी तक भारत ने विदेशी आक्रमणों से मुक्ति का अनुभव किया। भारत के इन राजाओं के विश्व विजयी अभियानों को बड़ी सावधानी से इतिहास से हटा दिया गया है।’
जो हिंदू स्वधर्म को किसी भी कारण से त्यागकर मुस्लिम बन गये थे या बना दिये गये थे, उनकी बड़ी संख्या ने आदि शंकराचार्य से प्रार्थना की कि वे उन्हें पुन: हिंदू बना लें। परंतु शंकराचार्य से भूल हुई और उन्होंने कह दिया कि दूध से मठ्ठा तो बन सकता है परंतु मठ्ठे से दूध नही बना करता है। इसलिए वापस जाओ और वहीं रहो।
शंकराचार्य की इस निराशाजनक टिप्पणी से बलात् धर्मान्तरित वैदिक धर्मियों को बड़ी ही ठेस पहुंची। परंतु आदि शंकराचार्य के स्वर्गारोहण के पश्चात उन्हीं के उत्तराधिकारी ने युक्ति से काम लिया। वह उदार थे और उदारतावश बिछ़ुड़े भाईयों को गले लगाकर संगठन शक्ति को बढ़ाने के पक्षधर थे। अत: बिछुड़े हुए भाई पुन: अपने शंकराचार्य के पास आए। तब अपने गुरू की बात को भी सम्मान देते हुए उन्होंने इन मुस्लिम बने हिंदुओं से कह दिया कि मैंने एक ताबीज बनाकर अमुक पीपल के वृक्ष पर रख दिया है। आप उसके नीचे से निकल जाइए। बस आप पुन: शुद्घ हो जाएंगे।
वैज्ञानिक आधार पर ताबीजों में कोई शक्ति नही होती, परंतु तत्कालीन रूढ़िवादी लोगों और अपने गुरू के प्रति विद्रोही होने के आघात से बचने के लिए शंकराचार्य ने यह युक्ति सोची थी। अर्थों को और संदर्भों को सही अर्थों में लेकर देखा जाए तो थोड़े पाखण्ड के साथ शंकराचार्य ने जो कार्य किया वह उनकी देशभक्ति का ही परिचायक था।
जिससे उन्होंने भारत के संत समाज की दुर्बल पाचन शक्ति को अपनी युक्ति से ठीक किया और बिछ़ड़े हुए भाईयों को मिलाने का प्रशंसनीय कार्य किया। जिस समय शंकराचार्य ये कार्य कर रहे थे, उसी समय हमारे क्षत्रिय वृहत्तर भारत में वृद्घि कर रहे थे। अत: स्पष्ट है कि सीमाओं पर ‘शस्त्र’ और घर में ‘शास्त्र’ अपने अपने कार्य का सफल संपादन कर रहे थे। भारत में राष्ट्रवाद की आंधी चली और जहां मुस्लिम आक्रांताओं ने अपना राज्य स्थापित कर लिया था, वहां से उन्हें भगाने के लिए हिंदुत्व की शक्ति उठ खड़ी हुई।
वीर सावरकर ने मुसलमान लेखकों को उदृत करते हुए इस संबंध में लिखा है-
प्रबल हिंदू काफिरों के भय से हम अरबों के बाल बच्चे, स्त्री, पुरूष, जंगल जंगल मारे फिरते हैं। हमारे द्वारा जीते गये सिंध प्रांत के अधिकांश भागों को पुन: जीतकर वहां हिंदुओं ने अपना राज्य स्थापित कर लिया है। हम निराश्रित अरबों के लिए ‘अल्लाह फजाई’ नामक किला ही एक मात्र शरण का स्थल बचा है। अरबी झण्डे के नीचे हमारे हाथ में केवल यही एक स्थान है। केवल राजकीय मोर्चे पर ही हम अरबों को धूल नही चाटनी पड़ी है, अपितु राजा दाहिर का कत्ल करने के पश्चात जिन हजारों हिंदुओं को सौ वर्ष के परिश्रम से हमने भ्रष्ट करके मुसलमान बनाया था और हिंदू स्त्रियों को दासी बनाकर मुसलमानों के घर घर घुसेड़ रखा था, उस धार्मिक मोर्चे पर भी हमारी वैसी ही दुर्गति हुई है। हिंदुओं में उत्पन्न क्रांतिकारी एवं प्रभावी आंदोलन के कारण इस्लाम द्वारा भ्रष्ट किये गये समस्त स्त्री पुरूषों ने फिर से अपना काफिर धर्म अपना लिया है।’
इस्लामिक जगत में छायी ऐसी निराशा सचमुच हमारे पराक्रम के सामने उसके द्वारा घुटने टेकने का प्रमाण है। मेधातिथि जैसे परम् विद्वानों ने इस समय (सन 800 से 900 के मध्य) शास्त्रों की युग सम्मत व्याख्याएं कीं और देशवासियों को पूर्ण पराक्रम के साथ इस्लाम की आंधी से टकराने का आवाहन किया।
मेधातिथि ने कहा था-‘आर्यावर्त्त पर म्लेच्छों के चढ़ाई करने के पूर्व ही उन पर आक्रमण कर देना चाहिए। एक बार शत्रु से शत्रु के रूप में टकराव होते ही फिर राजा को दया मया का विचार न करते हुए शत्रु को कुचल कर उसकी चटनी ही बना डालनी चाहिए। परकीय कपटी शत्रु को आवश्यक निमित्त बनाकर उसे कपट से ही मार गिराना चाहिए। युद्घ में ढीलापन, भोलापन, सीधापन और बोलचाल की सुसंगति व सभ्यपना आदि तथाकथित सदगुण राष्ट्रनाशक दुर्गुण सिद्घ होते हैं।
इसलिए राजा के हित में यही है कि वह उनका शिकार न बने।’
मेधातिथि ने आर्यों को विश्व साम्राज्य अथवा चक्रवर्ती साम्राज्य स्थापित करने के लिए प्रेरित किया। उसने आवाहन किया-‘आर्य धर्म ने यह आज्ञा कभी नही दी कि आर्य अपने को आर्यावर्त्त में ही बंद करके रखें।इसके विपरीत शास्त्रीय आज्ञाओं का मर्म यह है कि यदि बलशाली आर्य राजा आर्यावर्त्त के बाहर के म्लेच्छ राजाओं पर चढ़ाई करके उन्हें जीत ले और सर्वत्र आर्य धर्म का प्रचार करे तो वे समस्त म्लेच्छ देश भी आर्य देश माने जाएं और उन्हें भी आर्यावर्त्तीय साम्राज्य में समविष्ट कर लेना चाहिए।’
विदेशी मुस्लिम आक्रांताओं का पूर्ण पराक्रम से सामना करना हमारी राजकीय शक्ति ने इसलिए भी उचित माना था कि ऐसा करना हमारे यहां शास्त्र संगत था। महाभारत के शांति पर्व में भीष्म पितामह ने युधिष्ठर को राजधर्म का उपदेश करते हुए कहा है-‘बलवान पुरूष को चाहिए कि वह दुर्बल शत्रु की भी अवहेलना न करे, उसे छोटा न समझे, क्योंकि आग थोड़ी सी भी हो तो भी जला डालती है और विष अल्प मात्रा में होने पर भी मार डालता है।’ आगे भीष्म कहते हैं-‘कुरूनंदन! राजा को उचित है कि सात वस्तुओं की अवश्य रक्षा करे। वे सात वस्तुएं कौन सी हैं। यह मुझसे सुनो, राजा का अपना शरीर, मंत्री, कोष, सेना, मित्र, राष्ट्र तथा नगर-ये राज्य के सात अंग हैं। राजा को इन सबका प्रयत्नपूर्वक पालन करना चाहिए।’ अत: जिस देश की परंपरा शत्रु के प्रति सदा सावधान रहने की तथा राष्ट्र की रक्षा में सदा तत्पर रहने की रही हो, उस देश से यह उपेक्षा नही की जा सकती कि वह बालू की दीवार की भांति पहले झटके में ही गिर गया होगा।
आश्रम वासिक पर्व के श्लोक 28 में धृतराष्ट्र युधिष्ठर से कहते हैं-‘कुंतीनंदन जब अपना पक्ष बलवान और शत्रु का पक्ष बलहीन हो उस समय शत्रु के साथ युद्घ छेड़कर विपक्षी राजा पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए।’
भारत की इसी प्राचीन परंपरा का निर्वहन करते हुए विदेशी आक्रांताओं को पद दलित करने हेतु भारत की सेनाएं देश से बाहर निकलीं। इसी बात को मेधातिथि राजकीय शक्ति को यों बता रहे थे -‘दूसरे के और विशेषकर संभाव्य शत्रु के राज्य पर चढ़ाई करना राज्य शास्त्रानुसार कोई अन्याय नही होता। यही नही राजा का तो यह कर्त्तव्य भी है कि जब शत्रु दुर्बल हो जब हम पर आक्रमण करने की उसमें सामर्थ्य न हो तभी उस म्लेच्छ शत्रु पर आक्रमण करके उसे पीस डालना चाहिए।’
इस प्रकार के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का फलितार्थ हमें बताते हुए वीर सावरकर लिखते हैं-‘जिस समय उत्तर में मुहम्मद गोरी और महमूद गजनवी हिंदुओं की एक के बाद दूसरी राजधानी, क्षेत्र के बाद क्षेत्र और मंदिर के बाद मंदिर उजाड़ते हुए हिंदू राज्य सत्ता को परास्त कर रहे थे और राजेन्द्र चोल के समान हिंदू सम्राट ब्रह्मदेश, पंगू, अंडमान, नीकोबार आदि पूर्वी समुद्र के द्वीप समूहों को अपनी विशाल जलवाहिनियों की वीरता से जीतते चले जा रहे थे, तथा उसके बहुत पूर्व से स्थापित जावा से लगाकर हिंदूचीन (इण्डोनेशिया) तक हिंदू राज्यों से संबंध स्थापित कर रहे थे। इधर पश्चिमी समुद्र में स्थित लक्ष्यद्वीप, मालद्वीप और अन्यान्य द्वीपसमूहों को जीतकर उसने सिंहलद्वीप पर भी अपना राज्य स्थापित किया था और उसी समय दक्षिण महासागर में हिंदुओं का अजेय ध्वज लहराया गया।’
पता नही, आज के इतिहासकारों को भारत का वह अजेय ध्वज आज तक क्यों नही दिखाई दिया? जबकि विदेशी आक्रांताओं का पराजित ध्वज उन्हें आज भी दिखाई दे रहा है। सचमुच यह एक छल है।
मुख्य संपादक, उगता भारत