डॉ. वंदना सेन
वर्तमान में जिस प्रकार से देश प्रगति कर रहा है, उसी प्रकार से कुछ लोग भारतीयता से दूर भी होते जा रहे हैं। हालांकि इस निमित्त कई संस्थाएं भारतीय संस्कारों को जन जन में प्रवाहित करने के लिए प्रयास कर रही हैं। यही कार्य भारत के संत मनीषियों ने किया था, जिसके चलते संपूर्ण विश्व ने भारतीय दर्शन का साक्षात्कार किया। अमेरिका के शिकागो में स्वामी विवेकानंद जी ने जिन प्रेरक शब्दों का प्रवाह प्रसारित किया, उससे उस समय विश्व के अनेक आध्यात्मिक मनीषी आप्लावित होते दिखाई दिए। एकाग्रचित्त होकर श्रवण किया गया स्वामी विवेकानंद जी का यह संबोधन एक ऐसे मार्ग का दर्शन कराता है, जो व्यक्ति और राष्ट्र को सकारात्मक बोध कराने वाला था। स्वामी विवेकानंद जी के वे विचार न केवल भारतीय ज्ञान की पताका फहराने वाले थे, बल्कि उस भाव का भी प्रकटीकरण करने में समर्थ थे, जहां भारत के विश्व गुरु होने के प्रमाण प्रस्फुटित होते हैं।
स्वामी विवेकानंद का शिकागो व्याख्यान एक ऐसा दर्शन था, जिसमें भारत के वसुधैव कुटुंबकम का भाव समाहित है। विश्व के किसी भी दर्शन में संपूर्ण विश्व को एक परिवार मानने की परंपरा और विचार परिलक्षित नहीं होता, लेकिन भारत की संस्कृति में यह दर्शन पुरातन काल से समाहित है। विश्व के सबसे पुराने प्रामाणिक ग्रंथों में भारत का मूल समाया हुआ है। इसी मूल को स्वामी विवेकानंद जी ने अमेरिका की धरती पर फैलाने का सफल प्रयास किया। हम जानते हैं कि अच्छे विचार को जन-जन में प्रवाहित करने के लिए कई प्रकार की कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ता है। शिकागो में जाने के लिए स्वामी विवेकानंद जी ने भी अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ा। हालांकि भगवान की कृपा से यह समस्याएं दूर होती चली गई और स्वामी विवेकानंद जी अपने संकल्प को प्रवाहित करने के लिए धर्म सम्मेलन में सम्मिलित अनेक विद्वानों के समक्ष अपने विचार प्रस्तुत किए थे। विद्वानों के समक्ष जब विवेकानंद जी ने अपने हृदय को खोलते हुए पूरे मन से कहा मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनों। इस शब्द ने जिस आत्मीयता का बोध कराया, जिस अपनेपन का एहसास कराया, वह वहां उपस्थित मनीषियों के लिए एक नई बात थी। उन्होंने इस प्रकार की कल्पना भी नहीं की और ना उनके दर्शन में ऐसा था। विवेकानंद की वाणी सबके हृदय को छूने वाली थी, सब सबके हृदय में हॄदयंगम होने वाली थी। इसीलिए प्रारंभिक शब्दों को सुनने के बाद पूरा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गुंजायमान हो गया। इन तालियों में ही स्वामी विवेकानंद जी को जितना समय दिया गया था, वह समय निकल गया, लेकिन स्वामी विवेकानंद जी के विचारों को सुनकर वहां उपस्थित प्रबुद्ध वर्ग ने स्वामी विवेकानंद जी को और ज्यादा समय देने को कहा। उसके बाद स्वामी विवेकानंद जी ने भारतीय दर्शन पर आधारित भारतीय संस्कारों से समाहित ऐसा प्रबोधन दिया, जो सबके लिए नया था। यही भारतीय संस्कृति का स्वरूप है। उस समय संपूर्ण विश्व के मनीषियों ने यह स्वीकार किया कि वास्तव में भारत ज्ञान के मामले में विश्व गुरु है।
शिकागो व्याख्यान के प्रारंभ में स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था आपने जिस स्नेह के साथ मेरा स्वागत किया है उससे मेरा दिल भर आया है। मैं दुनिया की सबसे पुरानी संत परंपरा और सभी धर्मों की जननी की तरफ से आप सभी को धन्यवाद देता हूं। सभी जातियों, संप्रदायों के लाखों करोड़ों हिंदुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूं। अपने व्याख्यान में स्वामी विवेकानंद जी कहते हैं जिस तरह अलग-अलग जगहों से निकली नदियां अलग-अलग रास्तों से होकर आखिरकार समुद्र में मिल जाती हैं। ठीक उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा से अलग-अलग रास्ते चुनता है। यह रास्ते देखने में भले ही अलग-अलग लगते हों, लेकिन यह सब ईश्वर तक ही जाते हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि विश्व के सभी धर्मों की एक ही उपयुक्त राह है कि हम ईश्वर की प्राप्ति में लग जाएं।
स्वामी विवेकानंद जी की वाणी भारतीयता से ओतप्रोत थी। विवेकानंद जी जब भी बोलते थे, उनके एक एक शब्द में भारत का प्रस्फुटन होता था। वे निश्चित रूप से उस भारतीय संस्कृति के संवाहक थे, जो समस्त विश्व के दिशादर्शक हैं। तभी तो वे कहते थे कि भारतीय संस्कृति केवल भारत के लिए ही नहीं, बल्कि वैश्विक प्रगति का आधार है। वर्तमान समय में भी स्वामी विवेकानंद जी विचार उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने पुरातन काल में होते थे। स्वामी जी युवाओं को शक्तिशाली बने रहने का भी उपदेश देते थे। उनका मानना था कि जिस देश का युवा निर्बल और शक्तिहीन होगा, वह राष्ट्र कभी शक्ति संपन्न नहीं हो सकता।
हिंदुत्व के बारे में स्वामी विवेकानंद जी की स्पष्ट धारणा थी। वे अपनी वाणी के माध्यम से यह भी कहते थे कि तुम तब और केवल तब ही हिन्दू कहलाने के अधिकारी हो, जब इस नाम को सुनने मात्र से तुम्हारे शरीर में विद्युत प्रवाह की तरह तरंग दौड़ जाए और हर व्यक्ति सगे से भी ज्यादा पसंद आने लगे। स्वामी विवेकानंद जी सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार की तरह ही देखते थे। शिकागो में स्वामी विवेकानंद जी का प्रबोधन इसी भाव धारा का प्रवाहन था। जिसकी गूंज आज भी ध्वनित होती रहती है।
स्वामी विवेकानंद जी ने भारत के बारे में तीन अति महत्व की भविष्यवाणी की थीं। 1890 के दशक में उन्होंने कहा था कि भारत अकल्पनीय परिस्थितियों के बीच अगले 50 वर्षों में ही स्वाधीन हो जाएगा। जब उन्होंने यह बात कही तब कुछ लोगों ने इस पर ध्यान दिया। उस समय ऐसा होने की कोई संभावना भी नहीं दिख रही थी। ऐसी पृष्ठभूमि में स्वामी विवेकानंद जी की यह सत्य सिद्ध दी हुई। विवेकानंद ने ही एक और भविष्यवाणी की थी जिसका सत्य सिद्ध होना शेष है। उन्होंने कहा था भारत एक बार फिर समृद्धि तथा शक्ति की महान ऊँचाइयों पर उठेगा और अपने समस्त प्राचीन गौरव को पीछे छोड़ जाएगा।
स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि अतीत से ही भविष्य बनता है। अत: यथासंभव अतीत की ओर देखो और उसके बाद सामने देखो और भारत को उज्ज्वल तक पहले से अधिक पहुंचाओ। हमारे पूर्वज महान थे। हम भारत के गौरवशाली अतीत का जितना ही अध्ययन करेंगे हमारा भविष्य उतना ही उज्ज्वल होगा। भारत में श्रीराम, कृष्ण, महावीर, हनुमान तथा श्री रामकृष्ण जैसे अनेक ईष्ट और महापुरुषों के आदर्श उपस्थित हैं। महापुरुषों में संपूर्ण समाज का भला करने की नीति का ही पालन किया। स्वामी जी एक कथन बहुत ही प्रचलित है उतिष्ठत जागृत, प्राप्य वरान्निबोधत। अर्थात उठो जागो और लक्ष्य प्राप्ति तक रुको मत। यह कथन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में बहुआयामी प्रगति का मार्ग तैयार करेगा।
स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि धर्म को हानि पहुंचाए बिना ही जनता की उन्नति की जा सकती है। किसी को आदर्श बना लो, यदि तुम धर्म को फेंक कर राजनीति, समाजनीति अथवा अन्य किसी दूसरी नीति को जीवन शक्ति का केंद्र बनाने में सफल हो जाओ तो उसका फल यह होगा कि तुम्हारा अस्तित्व नहीं रह जाएगा। भारत में हजारों वर्षों से धार्मिक आदर्श की धारा प्रवाहित हो रही है। भारत का वायुमंडल इस धार्मिक आदर्श से शताब्दी तक पूर्ण रह कर जगमगाता रहा है। हम इसी धार्मिक आदर्श के भीतर पैदा हुए और पले हैं। यहां तक कि धर्म हमारे जन्म से ही हमारे रक्त में मिल गया है, जीवन शक्ति बन गया है। यह धर्म ही है जो हमें सिखाता है कि संसार के सारे प्राणी हमारी आत्मा के विविध रूप ही हैं। सच्चाई यह भी है कि हमारे लोगों ने धर्म को समाज में सही रूप में उपयोग भी नहीं किया है। अत: भारत में किसी प्रकार का सुधार या उन्नति की चेष्टा करने के पहले धर्म को अपनाने की आवश्यकता है। भारत को राजनीतिक विचारों से प्रेरित करने के पहले जरूरी है कि उसमें आध्यात्मिक विचारों की बाढ़ ला दी जाए।
शिक्षा हमारी मूलभूत आवश्यकता है। भारत के लोगों को यदि आत्मनिर्भर बनने की शिक्षा नहीं दी जाएगी, तो सारे संसार की दौलत से भारत के एक छोटे से गांव को भी सहायता नहीं की जा सकती। नैतिक तथा बौद्धिक दोनों ही प्रकार की शिक्षा प्रदान करना हमारा पहला कार्य होना चाहिए। शिक्षा के माध्यम से भारत का स्वत्व प्रकट होना चाहिए, भारत के संस्कार प्रवाहित होने चाहिए। कहा जाता है कि जिस देश की शिक्षा में वहां के तत्व नहीं हैं तो वह शिक्षा उस देश के स्वत्व को समाप्त करने का मार्ग ही तैयार करेगी। इसलिए भारत को सर्वांगीण विकास करने वाली शिक्षा देने का प्रयास करना चाहिए।
राष्ट्रभक्तों की टोलियों पर स्वामी विवेकानंद ने कहा है देशभक्त बनो। इन बातों से युक्त विश्वासी युवा देशभक्तों की आज भारत को आवश्यकता है। स्वामीजी का स्वप्न था कि उन्हें 1000 तेजस्वी युवा मिल जाएं तो वह भारत को विश्व शिखर पर पहुंचा सकते हैं। मेरा विश्वास युवा पीढ़ी, नई पीढ़ी में है। मेरे कार्यकर्ता इनमें से आएंगे और वह सिंहों की भांति समस्याओं का हल निकालेंगे। ऐसे युवाओं में और किसी बात की जरूरत नहीं है। बस केवल प्रेम, सेवा, आत्मविश्वास, धैर्य और राष्ट्र के प्रति असीम श्रद्धा होनी चाहिए।
नारी जागरण पर स्वामी विवेकानंद कहते हैं स्त्रियों की पूजा करके ही सभी राष्ट्र बड़े बने हैं। जिस देश में स्त्रियों की पूजा नहीं होती, वह देश या राष्ट्र कभी बड़ा नहीं बन सका है और भविष्य में कभी बड़ा भी नहीं बन सकेगा। हम देख रहे हैं कि नौ देवियों लक्ष्मी और सरस्वती को मां मानकर पूजने वाले सीता जैसे आदर्श की गाथा घर-घर में गाने वाले यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता को हृदय में बसाने वाले भारत में नारी को यथोचित सम्मान प्राप्त नहीं है। हमारी मानसिकता बदल रही है किंतु उसकी गति बहुत धीमी है, यदि हम देश की तरक्की चाहते हैं तो सबसे पहले अपनी सोच को बदल कर नारी जागरण और उत्कर्ष पर चिंतन और त्वरित क्रियाशीलता दिखानी भी होगी। ग्रामीण आदिवासी स्त्रियों की वर्तमान दशा में उद्धार करना होगा, आम जनता को जगाना होगा, तभी तो भारत वर्ष का कल्याण होगा।
स्वामी विवेकानंद का शिकागो व्याख्यान भारत के लिए ही नही, बल्कि विश्व के युवाओं के लिए एक ऐसा पाथेय है, जिस पर चलकर जहां व्यक्ति स्वयं को शक्तिशाली बना सकता है, वहीं अपने राष्ट्र को भी मजबूती दे सकता है। स्वामी विवेकानंद जी के आदर्श वाक्यों को आत्मसात करके हम उस दिशा में तीव्र गति से जा सकते हैं, जहां से स्वर्णिम भारत की किरणों का उदय होता है।
(लेखिका शिक्षाविद एवं साहित्यकार हैं)
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आलेख मौलिक, स्वरचित एवं अप्रकाशित है
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डॉ. वंदना सेन, सहायक प्राध्यापक
पार्वती बाई गोखले विज्ञान महाविद्यालय
जीवाजी गंज, लश्कर ग्वालियर (मध्यप्रदेश)
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