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कविता

गीता मेरे गीतों में , गीत 47 ( गीता के मूल ७० श्लोकों का काव्यानुवाद)

वह विभूति में प्रकट होता है

अमृतमय जीवन जीने की गीता शिक्षा हमको देती।
त्रिगुणातीत रहो जीवन में – अनुपम संदेश हमको देती।।

पृथक स्वयं को प्रकृति से मानो , जीवन का श्रंगार करो।
विशुद्ध रूप में आकर अपने,आत्मा का परिष्कार करो।।

श्री राम को गीता ने माना परम प्रतापी क्षत्रिय वीर पुरुष।
गीता ने ऐसा नहीं कहा, श्रीराम हैं – परमेश्वर परमपुरुष।।

गंगा को सम्मान दिया गीता ने, कारण विशेष है इसका भी।
प्राणी मात्र का कल्याण करे क्यों न आदर हो इसका भी ?

प्रतापियों में प्रतापी श्रीराम हुए , जो हैं विभूति ईश्वर की।
विभूति हमको दिखलाती हैं , दिव्य – छटा उस ईश्वर की।।

जहां ऊंचाई दीखे तुमको, वहां समझो कोई विभूति है।
गीता से हमें पता चलता हिमालय भी एक विभूति है।।

सागर में हमें गहराई मिलती ,अतः वह भी एक विभूति है।
जहां विस्तार अंत पा जाए समझो वह भी एक विभूति है।।

प्रत्येक पराकाष्ठा में समझो , परमेश्वर का साक्षात हुआ ।
विभूति के खेल को जानो, मानो सब कुछ साफ हुआ।।

परमेश्वर का कोई रूप नहीं , वह विभूति में प्रकट होता है।
वह अजर अमर अंतर्यामी , पराकाष्ठा में प्रकट होता है ।।

मानव चोले को पाकर अर्जुन ! परमेश्वर का अनुसंधान करो।
मानवता के शत्रु का निश्चय – निर्भय हो शर-संधान करो ।।

वह अंतर्यामी कण कण में है , पर नहीं दिखाई पड़ता है।
संसार के ज्ञानी मानव को वह सर्वत्र दिखाई पड़ता है ।।

ज्योति प्रकाश वालों में विभूति – सूरज में दिखाई पड़ती है।
सूरज की इस विभूति में ईश्वर की झलक दिखाई पड़ती है।।

यह गीत मेरी पुस्तक “गीता मेरे गीतों में” से लिया गया है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित की गई है । पुस्तक का मूल्य ₹250 है। पुस्तक प्राप्ति के लिए मुक्त प्रकाशन से संपर्क किया जा सकता है। संपर्क सूत्र है – 98 1000 8004

डॉ राकेश कुमार आर्य

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