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1950 ई. में बने भारतीय संविधान की “प्रस्तावना” ने भारत को ‘लोकतांत्रिक गणराज्य’ कहा था। उस में छब्बीस वर्ष बाद दो भारी राजनीतिक शब्द जोड़ दिये गये – ‘सेक्यूलर’ और ‘सोशलिस्ट’ । तब से भारत को ‘लोकतांत्रिक समाजवादी सेक्यूलर गणराज्य’ कर डाला गया। अब सुप्रीम कोर्ट डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी की याचिका पर सुनवाई करने वाली है, कि इसे पूर्ववत् किया जाए क्योंकि इस ने पूरे संविधान को ही बिगाड़ा है। स्मरणीय है कि यह परिवर्तन 1975-76 ई. की कुख्यात ‘इमरजेंसी’ के दौरान किया गया था, जब केंद्रीय मंत्रिमंडल के निर्णय केंद्रीय मंत्रियों को भी रेडियो से मालूम होते थे! जब विपक्ष जेल-बंद था, और प्रेस पर सेंसरशिप थी। अर्थात वह संशोधन बिना विचार-विमर्श, जबरन हुआ था।
वह संविधान की आमूल विकृति थी। यहाँ चार तथ्यों पर विचार करें। पहला, देश-विदेश के संविधानविदों ने मूल प्रस्तावना को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना था। महान ब्रिटिश राजनीति-शास्त्री सर अर्नेस्ट बार्कर (1874-1960) ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ प्रिंसिपल्स ऑफ सोशल एंड पोलिटिकल थ्योरी में आमुख के स्थान पर भारतीय संविधान की वह पूरी प्रस्तावना ही उद्धृत की थी – यह कह कि उस में सब कुछ समाहित है। यह अपने तरह की अनूठी प्रशस्ति थी। दूसरे, भारत में भी राजनीति शास्त्र और कानून की कक्षाओं में प्रस्तावना को संविधान की ‘आत्मा’, ‘मूलाधार’, आदि कहा जाता रहा था। तीसरे, 1960 ई. में यहाँ सुप्रीम कोर्ट ने भी प्रस्तावना को ऐसा निर्देशक बताया जिस के सहारे संविधान की अन्य धाराओं को दुविधा होने पर ठीक-ठीक समझ सकें। चौथे, सुप्रीम कोर्ट ने पुनः 1973 ई. में केशवानंद भारती मामले में उस प्रस्तावना को संविधान का ‘बुनियादी ढाँचा’ घोषित किया।
अतः पहली ही दृष्टि में साफ है कि प्रस्तावना में उस भारी परिवर्तन से संविधान को मूलतः बिगाड़ा। उसे तानाशाही तरीके से भी किया गया था। संविधान का ‘बुनियादी ढाँचा’ 1950 वाली प्रस्तावना था, और 1976 ई. में किया गया बदलाव उस पर चोट थी। क्योंकि वह कोई भाषाई नहीं, धारणागत संशोधन था। जबकि ‘सोशलिस्ट’ और ‘सेक्यूलर’ कोई नयी धारणाएं नहीं जिन का संविधान निर्माताओं को पता न था। बल्कि ‘सेक्यूलर’ पर तो चर्चा करके छोड़ा गया था। सोशलिज्म भी तब यूरोप में सब से प्रसिद्ध मतवाद था, जहाँ से हमारे अधिकांश संविधान-निर्माता पढ़े थे। सो, उन्होंने भारतीय गणराज्य को ‘सेक्यूलर’, ‘सोशलिस्ट’ नहीं कहा तो यह सुविचारित था।
इस प्रकार, 1975 ई. में संविधान प्रस्तावना में ‘सोशलिस्ट’, ‘सेक्यूलर’ जोड़कर उस का चरित्र ही बदलने का षड्यंत्र हुआ था। उस के परिणाम भी गर्हित हुए। तभी से भारतीय राजनीति में एक हिन्दू-विरोधी मानसिकता पनपी, जो धीरे-धीरे संपूर्ण राजनीतिक-शैक्षिक-सांस्कृतिक जीवन को बुरी तरह ग्रसती गई है। उस समय के कांग्रेसी-वामपंथी तानाशाह सत्ताधारियों की नीयत रहने भी दें, तो सोशलिज्म एक राजनीतिक मतवाद है। चाहे शब्द-कोष देखें, चाहे सभी समाजवादी शासनों के व्यवहार। दोनों के अनुसार सोशलिज्म विशिष्ट मतवाद है, जो प्रायः लोकतंत्र के विरुद्ध भी है। रूस, चीन से लेकर पूर्वी यूरोप व लैटिन अमेरिका तक, सभी समाजवादी देशों में दूसरी पार्टियों को बलपूर्वक खत्म किया गया। लोकतांत्रिक देशों में भी समाजवादी पार्टियाँ अलग से बनती रहीं। अर्थात्, समाजवाद और लोकतंत्र के बीच विरोध माना हुआ है। अतः यहाँ संविधान-प्रस्तावना में ‘समाजवाद’ जोड़ना उस के लोकतांत्रिक चरित्र पर आघात था। बल्कि यह बदलाव किया ही गया था सारे विपक्ष को जेल में ठूँस कर, और मीडिया का मुँह बंद कर!
ततपश्चात् ‘समाजवाद’ को बुनियादी दिशा-निर्देशक बना देने से यहाँ कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट पार्टियों को अनुचित महत्ता और नैतिक शक्ति मिली। इस से समाजवाद से असहमत नागरिक या पार्टी को हीन कहा जा सकता है। यह तो तानाशाही हुई कि सब को समाजवादी बनना होगा! यह अन्य मत मानने वाले नागरिकों, पार्टियों के विरुद्ध जबर्दस्ती के समान है।
इस का छल इस से भी समझें कि संविधान मूलभूत कानून होता है, जिस आधार पर दूसरे कानून बना करते हैं। किंतु प्रस्तावना में जोड़ा गया ‘सोशलिस्ट’ और ‘सेक्यूलर’ अपरिभाषित रखा गया है। यह स्वतः अनेक रोगों का कारण बना। हर तरह की हिन्दू-विरोधी और इस्लाम-परस्त नीतियाँ ‘सेक्यूलरिज्म’ कही जाती हैं। जबकि दलीय स्वार्थ साधने को सत्ताधारियों द्वारा तरह-तरह के अनुदान, अरबों रूपए की सालाना बर्बादी, राजकीय क्षेत्र के संस्थानों में भारी हानि, लूट, आदि ‘सोशलिज्म’ भावना से चलती है! यह पक्षपात और लूट सभी समझते हैं। पर हमारा हर नेता अपने जिस किसी कदम को सेक्यूलरिज्म या सोशलिज्म कह कर निकल लेता है। संसद या न्यायालय ने कहीं कोई पक्का अर्थ या कसौटी नहीं बनाई जिस से सेक्यूलरिज्म के नाम पर होती धाँधली पकड़ी जा सके।
इस अर्थ में भारतीय संविधान हास्यास्पद भी हो गया कि इस का बुनियादी दिशा-निर्देश ‘सेक्यूलर’ और ‘सोशलिस्ट’ अस्ष्ट है। इसे पारिभाषित करने के प्रयास भी विफल किये गए। प्रभावी नेता, न्यायालय और बुद्धिजीवी, सभी इसे धुँधला बनाए रखने के हामी हैं। क्योंकि इसी से तमाम हिन्दू-विरोधी हथकंडे चलते हैं। इसी को कवच बना कर हिन्दू समाज के प्रति ‘स्थायी वैर-भाव’ से प्रेरित साम्राज्यवादी मतवाद और उन के देशी-विदेशी सहयोगी व कारकून अपना कारोबार चलाते हैं। यह सब देश के लिए घातक सिद्ध हुआ, क्योंकि हिन्दू-विरोध परिणामतः भारत-विरोधी है। चाहे करने वाले की नीयत कुछ भी हो।
यहाँ विभिन्न वर्गों, समुदायों में फूट डालो, राज करो की नीति अपरिभाषित सेक्यूलरिज्म से ही चल रही है। इसी से मुस्लिम मजहबी संस्थाओं को भी राजकीय अनुदान, जबकि हिन्दुओं को उन जैसी समानता से अपने शिक्षा संस्थान चलाने की भी अनुमति न हो। उसी से हिन्दू मंदिरों पर राजकीय कब्जा है, जब कि मस्जिदों, चर्चों पर संबंधित समुदायों का पूर्ण अधिकार है। उन्हें सरकार नहीं छूती। दूसरी ओर, राजकीय कब्जे का फायदा उठाकर मंदिरों की आमदनी हिन्दू-विरोधी कामों तक में लगाई जाती है।
यदि संविधान की मूल समानतापरक, लोकतांत्रिक भावना विकृत न की गई होती, तो उपर्युक्त मनमानियाँ असंभव होतीं। अभी भारत में शिक्षा, संस्कृति और राजनीति, हर क्षेत्र में गैर-हिन्दू समुदायों को हिन्दुओं से अधिक अधिकार मिले हुए हैं। यह संविधान निर्माताओं की कल्पना से भी परे था – कि भारत में हिन्दुओं को वह अधिकार न रहे जो मुस्लिमों, क्रिश्चियनों को दिए जाएं! संविधान सभा की संपूर्ण बहस शब्द-शब्द प्रकाशित है, जिस में ऐसे आशय की एक पंक्ति भी नहीं मिलती। अतः यह सीधे-सीधे हिन्दुओं पर अत्याचार है। जो मजे से चल रहा है क्योंकि इसे कोई औरंगजब, या कर्जन, बिल्वरफोर्स नहीं, बल्कि तरह-तरह के हिन्दू शासक और जज चला रहे हैं। जिसे हिन्दू बुद्धिजीवी, पत्रकार उचित मान रहे हैं। यह सब हिन्दू जनता के विरुद्ध ऐसा विश्वासघात है जिस का विश्व में कोई सानी नहीं!
ऐसा हिन्दू-विरोधी भेद-भाव किसी अंग्रेज शासक ने भी नहीं किया था, जो आज स्वतंत्र भारत में ठसक से जारी है। यह नंगा अन्याय छिपाने को संविधान में जबरन जोड़ा गया ‘सेक्यूलर’ शब्द काम आता है। वह पिछले 47 साल से सभी पार्टियों की सहमति एवं मूढ़ता से चल रहा है। परन्तु सब की सहमति से भी किसी अन्याय का चरित्र न्यायपूर्ण नहीं हो जाता। विगत दशकों में इन दोनों शब्दों, ‘सेक्यूलर’ और ‘सोशलिस्ट’ ने भारत की राजनीति, शिक्षा, और संस्कृति में जो घातक भूमिका निभाई, उन से मुक्ति पाना ही श्रेयस्कर है।
जैसे भी देखें, ‘सोशलिस्ट’ और ‘सेक्यूलर’ को प्रस्तावना में जोड़ना संविधान की बुनियाद पर ही चोट थी। मूल संविधान को ही मूल ढाँचा कह सकते हैं। अतः उन शब्दों को हटाने से संविधान का मूल ढाँचा पूर्ववत ‘लोकतांत्रिक’ हो जाएगा, जो संविधान निर्माताओं ने रखा था। उसे न हटाना ही एक मतवादी और हिन्दू-विरोधी जबरदस्ती बनाए रखना है। आशा करें कि भाजपा के सर्वोच्च नेता और सर्वोच्च न्यायाधीश यह जबरदस्ती खत्म करेंगे।
– शंकर शरण (९ सितंबर २०२२)