*आर्य विदुषी का अतुलनीय योगदान।*
सिकंदराबाद के निकट पिलखन गाँव की कहानी यह है।
1904 का सन् था, बरसात का मौसम और मदरसे की छुट्टी हो चुकी थी…
लड़कियाँ मदरसे से निकvल चुकी थी…
अचानक ही आँधी आई और एक लड़की की आँखों में धूल भर गई, आँखें बंद और उसका पैर एक कुत्ते पर जा टिका…
वह कुत्ता उसके पीछे भागने लगा…
लड़की डर गई और दौड़ते हुए एक ब्राह्मण मुरारीलाल शर्मा के घर में घुस गई…
जहाँ 52 गज का घाघरा पहने पंडिताइन बैठी थी…
उसके घाघरे में जाकर लिपट गई, ‘‘दादी मुझे बचा लो..।’’
दादी की लाठी देख कुत्ता तो वहीं से भाग गया, लेकिन बाद में जहाँ भी दादी मिलती, तो यह बालिका उसको राम-राम बोलकर अभिवादन करने लगी,
दादी से उसकी मित्रता हो गई और दादी उसे समय मिलते ही अपने पास बुलाने लगी, क्योंकि दादी को पंडित कृपाराम ने उर्दू में नूरे हकीकत लाकर दी थी, दादी उर्दू जानती थी, परंतु अब आँखें कमजोर हो गई थी, इसलिए उस लड़की से रोज-रोज वह उस ग्रंथ को पढ़वाने लगी और यह सिलसिला कई सालों तक चलता रहा।
लड़की देखते ही देखते पंडितों के घर में रखे सारे आर्ष साहित्य को पढ़-पढ़कर सुनाते हुए कब विद्वान बन गई पता ही नहीं, पता तो तब चला, जब एक दिन उसका निकाह तय हो गया और दादी कन्यादान करने गई।
निकाह के समय जैसे ही उसने अपने दूल्हे को देखा तो वह न केवल पहले से शादीशुदा था वरन एक आँख का काना भी था, इसलिए लड़की को ऐसा वर पसंद नहीं आया, परंतु घरवालों और रिश्तेदारों ने दबाव डाला लड़की पर… हाथ तक उठाया, तो विवशता के आँसुओं की गंगा जमुना की धारा उसकी आँखों से बह चली…
परंतु अबला ने जैसे ही देखा कि 52 गज के घाघरे वाली पंडिताइन कन्यादान करने आई है, अपने पोते के साथ तो एक बार फिर इतने वर्षो बाद दादी से चिपट गई थी, ‘दादी मुझे बचा लो, मैं काने से निकाह नहीं करूँगी।’
‘काने से नहीं करेगी तो तेरे लिए क्या कोई शहजादा आएगा?’
वह वधू दादी को छोड़ने का नाम न ले रही थी, दादी भी रोने लगी, उसे समझाने का प्रयास किया, कि ‘जैसा भी है, उसी से नियति समझकर शादी कर ले।
“अगर आपकी बेटी होती तो क्या आप उसकी शादी काने से कर देतीं?” लड़की ने दादी से पूछा था।
‘तू भी तो मेरी ही बेटी है।’
‘सिर पर हाथ रखकर कहो कि मैं तुम्हारी बेटी हूँ।’
‘हाँ तुम मेरी बेटी हो।’ कहते हुए पंडिताइन ने उस मुस्लिम कन्या के सिर पर हाथ रख दिया था।
“तो फिर हमेशा के लिए अपने 52 गज के घाघरे में मुझे छिपा लो दादी।’’
“मतलब।”
‘अपने इस पौते से मेरा विवाह करके मुझे अपने घर ले चलो।’
‘क्या?’ कोहराम मच गया, एक मुस्लिम लड़की की इतनी हिम्मत की निकाह के दिन जात-बिरादरी की बदनामी करे और पंडित के लड़के से शादी करने की बात कह दे, आखिर इतनी हिम्मत आई उसके अंदर कहाँ से…
जब किसी ने पूछा तो, उसने बताया, ‘दादी को नूरे हकीकत यानी कि दयानंद सरस्वती का सत्यार्थ प्रकाश पढ़कर सुनाते हुए।
कर्म से मुझे पंडिताइन बनने का हक वेदों ने दिया है और मैं इसे लेकर रहूँगी।’
पंचायत बैठी, लड़की अब अपनी बात पर अड़ गई कि शादी करेगी तो पंडित के लड़के से वरना नहीं, पढ़ेगी तो वेद पढ़ेगी वरना कुरान नहीं।
चतुरसेन और पंडित के लड़के की यारी थी, चतुरसेन आर्य समाजी किशोर था और उसने पंडित के लड़के को मना लिया था कि मुस्लिम लड़की से शादी करेगा तो सात पीढ़ियों के पूर्वजों के पाप धुल जाएँगे। उधर पंडित कृपाराम ने दादी को समझाया और दादी भी मान गई। मुरारीलाल शर्मा ने भी हाँ भर दी।
लेकिन मुस्लिम जमात में कोहराम मच गया और उस मुस्लिम परिवार का हुक्का-पानी गिरा दिया… उसे मुस्लिम धर्म से बाहर निकाल दिया, कुएँ से पानी भरना बंद हो गया।
परंतु वह परिवार भी अब इसलाम की दकियानूसी बातों से तंग आ चुका था और उसने अपनी पत्नी और तीन बेटों के साथ चार दिन में ही घर में कुआँ खोदकर पानी की समस्या से छुटकारा पाया और अपनी बेटी की शादी हिन्दू युवक से करने के साथ-साथ सपरिवार वैदिक धर्म अंगीकार करने की घोषणा कर दी।
यज्ञ हवन के साथ उस युवती का पिता आर्य बन गया और नाम रखा चौधरी हीरा सिंह।
आज हीरा सिंह की बेटी की शादी थी, किसी ने कहा, ‘हिन्दू इसकी बेटी ले जाएँगे, लेकिन इसके घर का हुक्का-पानी तक न पिएँगे।’ ठाकुर बडगुजर ने जब यह सुना तो हीरासिंह का हुक्का भर लाया और पहली घूँट भरी और फिर हीरा के मुँह में नेह ठोक दी और हीरा जाटों, पंडितों, और ठाकुरों के साथ बैठकर हुक्का पीने लगा।
पंडित कृपाराम ने उसके नए कुएँ से पानी भरा और सबको पिलाया और खुद भी पिया।
मुरारीलाल शर्मा ने एक लंबा भाषण दिया और आर्य समाज के प्रख्यात भजनीक तेजसिंह ने कई भजन सुनाए और बिन दान-दहेज के उस मुस्लिम बालिका मदीहा खान का विवाह संस्कार ब्राह्मण के लड़के से हो गया।
उस जमाने में अपनी तरह का यह पहला अंतरधर्मीय विवाह था।
पंडित कृपाराम आगे चलकर स्वामी दर्शनानंद सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हुए और उन्होंने हरिद्वार के निकट एक गुरुकुल महाविद्यालय स्थापित किया।
बालक चतुरसेन प्रख्यात उपन्यासकार हुए और आर्य समाज अनाज मंडी की स्थापना की और हीरा सिंह विधायक तक बना।
स्वामी दर्शनानंद, चतुरसेन शास्त्री, ठाकुर हीरासिंह आदि को आज सब जानते हैं, लेकिन इतिहास के पन्नों में सरस्वती (मदीहा खान) का कहीं नाम नहीं है, जिनकी प्रेरणामात्र से आधा दर्जन लोग विद्वान और समाजसेवी बने और सिकंदराबाद आर्य समाज वैदिक धर्म प्रचार का सबसे बड़ा गढ बन गया था।
यदि अपने देश भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनने से बचाना है तो इस ऐतिहासिक घटना को अवश्य पढ़ें और इसको पूरे राष्ट्र में क्रियान्वयन करने में सक्रियता पूर्वक सहयोग प्रदान करें । आज इसकी महती आवश्यकता है।
संदर्भ
1. यादें,
आचार्य चतुरसेन, संज्ञान प्रकाशन, संस्करण 1968, पृष्ठ 45
2. मेरी आत्मकथा, चतुरसेन शास्त्री,
हिन्द पाकेट बुक्स, 1970
3. सिकंदराबाद आर्य समाज का गौरवशाली इतिहास,
ठाकुर हीरा सिंह, पृष्ठ 76
4. मेरा संक्षिप्त जीवन परिचय,
स्वामी दर्शनानंद सरस्वती, पृष्ठ 34
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पुस्तक मुस्लिम विदुषियों की घर वापसी का एक अंश
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