#ऋषि_पंचमी
लोक हमेशा शास्त्र की व्यावहारिक पृष्ठभूमि को धारण करता है। शास्त्र के सत्य लोक से अधिग्रहित होते हैं और कहीं न कहीं उनका व्यावहारिक पक्ष प्रकट रूप होता ही है।
पूर्वजों की स्मृति का पर्व ऋषि पंचमी है। अनेक स्थानों पर इस दिन सरोवर या नदी के तट की पवित्र मिट्टी से सप्त ऋषि (जिनके शास्त्रीय नाम हैं – वसिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जगदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज) बनाए जाते हैं। उनका विधिपूर्वक पूजन किया जाता है। कुश व मंशा (श्यामक, सांवा धान्य) जो ऋषि धान्य है, से सप्त ऋषि व देवी अरुंधति को तर्पण दिया जाता है। उसके बाद अपने कुल, गोत्र के पूर्वज व मातृपक्ष के पूर्वज के नाम पर तर्पण दिया जाता है।
ऋषि पंचमी की परम्परा में प्राय: लोक वार्ताएं सुनी जाती है। सब की सब कंठस्थ होती हैं और कंथस्थ करवाई जाती हैं। उपवास रखा जाता है। फलाहार के रूप में सांवा के आटे का हलवा, मंशा की ही खीर व तुरी की सब्जी को भोग के बाद काम में लिया जाता है। फलाहार के बाद ये ऋषि विग्रह पुनः विसर्जन किए जाते हैं : आए जहां से, वहां पधारो। आशीष बांटो, जन्म सुधारो।
ग्रामीण महिलाएं इन ऋषि को रकेशर कहती हैं। तर्पण के समय सात रकेशर और एक रकेशर रानी को तर्पण देती है। यह शब्द राकेश्वर का देशज भी है जो चंद्रेश्वर होते हैं। इसलिए ऋषियों को चंद्रमा सी धवल कला, यानी वृद्ध जैसी दाढ़ी आदि धारण करवाई जाती है। ये सब चन्द्रमा के गुण नियामक भी हैं और चंद्रलोक से ऊपर भी।
ये हमारी पुरातन परम्परा है जिसमें प्रकृति प्रदत्त अनमोल महीन धान्य चाहे वो आज खरपतवार कहा जाता हो, उनका विशेष महत्व स्वयं सिद्ध है। यह जीवन में कृषि के महत्व और विकास की स्मृतियां संजोए हुए हैं जबकि आहार के लिए बीज और परिधान के लिए कपास का प्रयोग शुरू हुआ। यही नहीं, गृहस्थ में स्त्री को सम्मान मिला, उपयोगी वस्तुओं के संग्रह का भाव जागा, कला की प्रवृत्ति और कल्पना को साकार करने का मन बना।
मिट्टी से निर्मित ये ऋषि विग्रह मृण कला का बोध देते हैं। मिट्टी हमारी सृजन धरमिता की आधार है। वह नश्वरता का संदेश देती है लेकिन पककर चिरायु होने का ज्ञान भी देती है। पकी मिट्टी ने ही पुरातत्व का आधार स्थिर किया है। पूर्वजों की स्मृति बनाए रखने वाला यह पर्व कितने अर्थों को संजोकर हमें प्रेरित करता है!
( आवश्यक संशोधन सहित)
✍🏻श्री प्रशांत श्रीमाली