लेखक – अखिलेश झा
बात साल 1960 की है। दूसरी लोकसभा का शीतकालीन सत्र चल रहा था। 2 दिसंबर 1960 को निचले सदन में एक प्रस्ताव रखा गया कि जापान के रेंकोजी मंदिर से नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की अस्थियों को भारत लाया जाए। नेताजी की अस्थियों के लिए दिल्ली के लालकिले का सामने एक भव्य स्मारक बनाने की भी बात थी उसमें। भारतीय संसद में और संसद के बाहर, पूरे देश में यह मुद्दा गरम था। मांग हो रही थी कि अगर सरकार मानती है कि रेंकोजी मंदिर में जो अस्थि-अवशेष नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के हैं, तो उन्हें भारत मंगवा लेना चाहिए।
संसद के इस प्रस्ताव के संबंध में उसी दिन 2 दिसंबर 1960 को नेहरूजी ने डॉ. बिधान चन्द्र रॉय को एक पत्र लिखा। बिधान चन्द्र रॉय तब पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री थे। नेहरूजी का वह पत्र गोपनीय था। उसमें नेहरूजी ने लिखा कि नेताजी की अस्थियों को भारत लाने की कोशिश भारत सरकार तभी करेगी, जब नेताजी का परिवार उसके लिए पहल करे। यह बात तो समझ में आती है। लेकिन, इसी पत्र में वह नेताजी के लिए लालकिले के सामने स्मारक का प्रस्ताव ठुकरा देते हैं। नेहरू लिखते हैं, ‘मैं नहीं सोचता हूं कि उस तरह की चीज यानी नेताजी का स्मारक लालकिले के सामने बन सकता है’। नेहरूजी को ऐसा क्यों लगता था, यह तो उन्हें ही पता होगा, लेकिन उनका यह कहना कि वैसी चीज (नेताजी का स्मारक) लालक़िले के सामने नहीं बन सकती, यह तो समझ से परे है।
नेहरूजी बिधान चन्द्र रॉय को लिखी अपनी उसी चिट्ठी में लालकिले के सामने स्मारक न बनाने के अपने निर्णय के साथ-साथ एक अजीब सलाह भी देते हैं। सलाह यह कि यदि नेताजी के अस्थि-अवशेष भारत लाए जाते हैं, तो उन्हें कलकत्ते में ही रखना चाहिए। नेहरूजी को शायद यह याद नहीं रहा कि नेताजी का नारा था, ‘दिल्ली चलो, न कि कलकत्ते चलो।’ उनका यह नारा बांग्ला में नहीं, हिन्दुस्तानी में था। लालक़िले पर तिरंगा फहराने का सपना भी नेताजी और आज़ाद हिन्द फौज का ही था, न कि किसी और नेता का।
नेहरूजी ने नेताजी के लिए लालक़िले के सामने स्मारक न बनाने के पीछे तर्क दिया कि वह जगह देश के स्वाधीनता-संग्राम के सभी शहीदों के लिए एक स्मारक बनाने के लिए सुरक्षित रखा गया है। वह किसी रायचौधरी का हवाला देते हैं कि उन्होंने उस स्मारक पर काम करना शुरू भी कर दिया है। लालकिले के सामने नेहरूजी की शहीद स्मारक योजना का क्या हुआ, आजतक किसी को उसका कुछ पता नहीं। रायचौधरी कौन-सा शहीद स्मारक लालकिले के सामने बना रहे थे, उसका कोई सुबूत हमें नहीं मिलता। हां, इस बात का सुबूत जरूर मिलता है कि नेताजी का स्मारक न बनाने के लिए वह तर्क दिया गया था।
देश के लिए शहादत क्या होती है, देश के लिए त्याग क्या होता है, उसका सबसे बड़ा आदर्श नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने पेश किया था। नेताजी ने अपनी शहादत से पहले भारत की आज़ादी के लिए शहीद हुए आज़ाद हिन्द फौज के वीर सपूतों की स्मृति में सिंगापुर में 8 जुलाई 1945 को आईएनए स्मारक की आधारशिला रखी। एक पराए देश में एक पराधीन देश के स्वाधीनता-सेनानियों के लिए एक भव्य स्मारक की योजना नेताजी की अटूट देशभक्ति और अपने साथी सैनिकों की देशभक्ति के प्रति श्रद्धा का ही सुबूत है।
उस स्मारक पर जो प्रेरणा-मंत्र था, उसके तीन शब्द थे- इत्तिहाद, ऐतमाद और क़ुरबानी यानी एकता, विश्वास और बलिदान। कोई भी देश, कोई भी क़ौम इन्हीं बीज मंत्रों से तरक्की करता है। उस स्मारक को माउंटबेटन ने, जापान पर इंग्लैंड के कब्जे के बाद तुड़वा दिया था। बाद में उसी माउंटबेटन को स्वाधीन भारत को अपना पहला गवर्नर जनरल स्वीकार करना पड़ा। सिंगापुर का आईएनए स्मारक फिर से स्थापित हो गया।
लेकिन क्या तब की सरकार को अपने जांबाज सपूत के लिए दिल्ली में मुनासिब जगह पर एक स्मारक तो बनवाना ही चाहिए था। इंडिया गेट पर शहीद स्मारक की नई रूपरेखा और उसके केन्द्र में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की प्रतिमा निश्चित रूप से उस गलती को देर से ही सही, ठीक करने की कोशिश है।
देश की विरासत पर कोई अंतिम फैसला किसी सरकार का नहीं होता, उसकी अवाम का होता है। नेताजी इस देश की अवाम की सांसों में जिंदा हैं, जिंदा रहेंगे। लालकिले के सामने चाहे नेताजी का स्मारक न बना हो, लेकिन हर साल जब पंद्रह अगस्त के दिन वहां तिरंगा फहराया जाता है, तो देश का सबसे अमर अभिवादन सबकी ज़ुबान पर होता है, जो नेताजी ने आज़ाद हिन्द फौज के अपने साथियों की सहमति से चुना था- जय हिंद!
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