शोकों से तरणा तुझे,
प्रभु -मिलन की चाह ।
माया के फंसा भवॅर में,
भूला अपनी रहा॥1899॥
शेर
ख़ुदा जब किसी को बढ़ाना चाहता है ,
तो उसकी शख्सियत में
नायब हुनर देता है ।
अपने तो क्या गैर भी
तारीफ करते है,
ज़माना नाज़ करता है॥1900॥
पद की शोभा शख्सियत,
हाथ की शोभा दान ।
रात की शोभा चन्द्रमा,
दिन की शोभा भानु॥1901॥
ध्यान लगा हरि ओ३म् में,
हो करके तल्लीन ।
अवगाहन तू रोज कर,
जैसे जलवे मीन॥1902॥
आकर्षण है ओ३म् में,
जीव – प्रकृति बीच ।
जिस पर हरि कृपा करें,
लें आगोश के बीच॥1903 ॥
सृजन करे सद्भाव का,
ज्यों जल माहिं भाप ।
हरि कृपा से मेध बन,
काटे पर संताप॥1904॥
पतझड़ में जीवै मति,
कर दुर्भाव का अन्त।
कली खिलै सद्भाव की,
चित्त का मान बसन्त॥1905॥
जीवन में मत खोइये,
संयम और विवेक ।
जीवन रूपी गाड़ी के,
एक आंखें एक ब्रेक॥1906॥
ऐन्द्रिक संयम सद्वृति,
प्रभु कृपा से आय ।
जितने दुगुर्ण दुव्र्यसन,
देखत ही उड़ जाय॥1907॥
जब तक मन में बैर है,
शान्ति निकट न आये।
ईर्ष्या घृणा क्रोध तो,
भक्ति को खा जाय॥1908॥
हृदय में अनुभूत हो,
ज्यों दीखै नही प्यार ।
ऐसे ही को व्याप्त है,
सबका सृजनहार॥1909॥
राग छोड़ अनुराग हो,
तो भक्ति कहलाय।
यह आरे की धार है,
चूक होय गिर जाय॥1910॥
साहस से हो वीरता,
क्रोध से होता द्वेष ।
लोभ से होता पाप है,
तृष्णा से हो क्लेश॥1981॥
भासित होवें दिव्य गुण,
समझ प्रभु का स्वरूप ।
ज्यों-ज्यों ये प्रगाढ़ हो,
त्यों-त्यों हो तदरूप॥1912 ॥
रवि – रशिम ब्रह्माण्ड में,
ज्यों करती प्रकाश ।
आत्म-ज्योति पिंड में,
कर उसका अहसास॥1913॥
क्षण-भंगुर संसार में,
नाम रूप आकार ।
प्रभु – प्राप्ति ध्येय था,
निज प्रतिबिम्ब निहार॥1914॥
जिज्ञासा और जिजीविषा,
जग में दुर्लभ दोय।
पुण्यशील वह 3 आत्मा,
जिस घट प्रकट होय॥1915॥
क्रमशः