वैदिक सम्पत्ति
गतांक से आगे…
हम बचपन से यह सुनते आते हैं कि मुसलमानी यहूदी और पारसी आदि धर्म अथर्ववेद से ही निकले हैं । परन्तु अथर्ववेद के पन्ने उलटने पलटने पर कहीं भी हमको अल्ला बिस्मिल्ला का पता न मिला । हमने समझा कि सम्भव है यह बात सत्य न हो , किन्तु पारसी धर्म की पुस्तकों और उन पुस्तकों के पढ़ने से जिनको योरोपीय विद्वानों ने ढूँढ तलाश के साथ लिखा है , यह बात खुल गई कि इसलाम आदि धर्मों का स्रोत अथर्ववेद ही से बहा है । अरबी भाषा के प्रसिद्ध पण्डित और कुरानशरीफ के ज्ञाता सेल साहब अपनी कुरान की भूमिका में लिखते हैं कि ‘ हजरत मुहम्मद ने अपने विश्वास यहूदियों से लिए हैं और यहूदियों ने पारसियों से । पारसियों के विश्वासों के सम्बन्ध में मार्टिन हॉग कहते हैं कि ‘ पारसियों के पुराने साहित्य गाथा में महात्मा जरदुस्त एक पुराने ईश्वरीय ज्ञान को स्वीकार करते हैं , अथर्वा की प्रशंसा करते हैं और उसी अङ्गिरा की प्रशंसा करते हैं , जिसका वेदों में वर्णन है ‘| गाथा के जिस श्लोक में अङ्गिरा का वर्णन आता है , वह यह है –
स्पेन्तेम अतथ्वा मज्दा में गही अहुरा
ह्यत मा वोहू पइरि-जसत् मनंगहा
दक्षत् उष्या तुष्ना मइतिश वहिश्ता
नोइत् ना पोउरुश द्रेग्वतो ख्यात चिक्षुषो
अत् तो वीस्पेंग अंग्रेग अषाउना आदरे । ( गाथा , य ० 18/12 )
अर्थात हे अहुरमज्द ! मैंने तुझे आबादी करनेवाला जाना । जब तेरा संदेश लानेवाला अङ्गिरा मेरे पास आया , तो उसने जाहिर किया कि सन्तोष सबसे अच्छी चीज है । एक पूर्ण मनुष्य कभी भी पापी को राजी नहीं रख सकता । क्योंकि वह सत्य ही का पक्ष करता है । इस श्लोक में अंग शब्द अङ्गिरा के लिए आया है । अङ्गिरा अथर्व का ही वाचक है । क्योंकि अथर्ववेद में लिखा है कि-
‘ अथर्वाङ्गिरसो मुखम् ‘
अर्थात् अथर्व – अङ्गिरा विराट् का मुख है । इस वाक्य में अथर्व और अङ्गिरा एक ही वस्तु बतलाये गये हैं इसलिए जरदुस्त देव जिस अङ्गिरा के द्वारा परमात्मा का संदेश अपने पास आना बतलाते हैं , वह अथर्ववेद ही है । अथर्ववेद छन्दवेद कहलाता है , इसीलिए पारसी – धर्म का उपदेश जिस साहित्य के द्वारा हुआ है , वह भी जन्द अथवा जन्दावस्था कहलाता है । जन्द और जन्दावस्था छन्द और छन्दावस्था का ही रूपान्तर है । प्रो ० मैक्समूलर कहते हैं कि ‘ मैं विश्वासपूर्वक कहता हूँ कि जन्द शब्द संस्कृत के छन्द शब्द का ही अपभ्रंश है , जिसे पारिणनि और अन्य विद्वानों ने वैदिक भाषा के लिए कहा है । छन्द शब्द वैदिक भाषा में वेदों के लिए इसी कारण प्रयुक्त हुआ है कि , वेदों का चतुर्थ भाग अथर्व छन्दवेद ही कहलाता है । पारसियों का अथर्ववेद ही से अधिक सम्बन्ध है , इसलिए उनके साहित्य का छन्द नाम अथर्ववेद ही के कारण पड़ा है । अतएव अथर्ववेद के छन्दवेद होने में अब कुछ भी सन्देह नहीं है । इस प्रकार से हमने यहाँ तक देखा कि अथर्ववेद त्रयीविद्या के अन्तर्गत है और अथर्ववेद का नाम समस्त प्राचीन साहित्य तथा ॠग्यजुः और सामवेद में उसी तरह आता है , जिस तरह दूसरों का , इसलिए अथर्ववेद भी उसी तरह अपौरुषेय है , जिस तरह ऋग्यजु और साम , तथा अथर्ववेद को भी उसी तरह वेदत्व प्राप्त है , जिस प्रकार ऋग्यजुः और साम को ।
वेदों की शाखाएँ
यह स्पष्ट हो जाने पर कि ब्राह्मणग्रन्थों को अपौरुषेयत्व प्राप्त नहीं है — वे सहिताथों के व्याख्यान ही हैं और यह भी स्पष्ट हो जाने पर कि अथर्ववेद भी अपौरुषेय है , वेदों की इयत्ता निर्धारित हो जाती है और ज्ञात हो जाता है कि अपौरुषेय वेद चार हैं और उनके नाम ऋग , यजुः , साम और अथर्व हैं । परन्तु जब देखते हैं कि प्राचीन काल में ऋग्वेद , यजुर्वेद , सामवेद और अथर्ववेद की सैकड़ों शाखाएँ थीं और अब भी श्राठ दश शाखाएँ उपलब्ध हैं , तब वेदों की इयत्ता का प्रश्न पहिले से भी अधिक जटिल हो जाता है । क्या वेदों की शाखाएँ वृक्ष की शाखाओं की भाँति किसी अन्य स्तम्भ ( मूल ) से सम्बन्ध रखती हैं , क्या वेदों की अनेकों शाखाओं के लुप्त हो जाने से वेदों का बहुत सा भाग नष्ट हो गया और क्या प्राप्त शाखाओं में परस्पर कोई अन्तर नहीं है – सब एक ही प्रकार की हैं ? इत्यादि अनेकों प्रश्न उपस्थित हो जाते हैं , जिनका समाधान किये बिना वेदों की इयत्ता निर्धारित करना कठिन प्रतीत होता है । इसलिए हम यहाँ शाखाओं का तत्व , उनका इतिहास , प्राप्त शाखाओं का रहस्य और इयत्ता धादि विषयों को संक्षेप से लिखते हैं और दिखलाते हैं कि , वेदों का शाखाप्रकरण कितना विचारणीय है ।
शाखातत्व पर विचार करनेवाले देशी विद्वानों में तीन ही विद्वान उल्लेखनीय हैं । सबसे पहिले स्वनामधन्य पंडित सत्यव्रत सामश्रमी हैं । आपने ‘ ऐतरेयालोचन ‘ नामी ग्रन्थ में शाखाओं पर अच्छा प्रकाश डाला है । आपके बाद स्वामी हरिप्रसाद ने ‘ वेदसर्वस्व ‘ नामी ग्रन्थ में शाखाओं का विस्तृत वर्णन किया है और इनके बाद रिसर्च स्कालर पण्डित भगवद्दत्त बी ० ए ० ने भी शाखाओं पर लिखा है । इन विद्वानों ने शाखाएँ क्या हैं , आादि में कितनी शाखाएँ थीं और अब कितनी प्राप्त हैं , प्राप्त शाखाओं का विवरण क्या है और उनमें कितना अन्तर है आदि विषयों पर प्रकाश डाला है । इसके वर्णनों को पढ़कर शाखाविषय में प्रवेश हो जाता है और अनायास ही यह प्रश्न सामने आा जाता है कि इन सब प्राप्त शाखयों में ज्येष्ठत्व किनको है और कौन कौनसी शाखाएँ आदि हैं और अपौरुषेय हैं । इसलिए हम चाहते हैं कि यहाँ शाखाओं से सम्बन्ध रखनेवाली सभी बातों को संक्षेपरूप से लिखकर यह बतलाने का यल करें कि किन शाखाओं को ज्येष्ठत्व है और कौनसी शाखाएँ अपौरुषेय हैं ।
वैदिक काल में जिस समय केवल वेदों का ही पठनपाठन होता था , वैदिक विद्वान् एक , दो , तीन अथवा चारों वेदों को पढ़ते थे और पठनपाठन की योग्यता के अनुसार ऋग्वेदी , यजुर्वेदी और सामवेदी अथवा त्रिवेदी , चतुर्वेदी आदि कहलाते थे , उस समय केवल चार वेदों का ही पठनपाठन होता था और इन चारों वेदों का स्वरूप ऋक् , यजुः , साम और अथवं ही था । अर्थात् अर्थवश पादव्यवस्थावाले मंत्र ऋग्वेद , गाये जानेवाले साम , सरलार्थ छन्दोंवाले अथर्व और बाकी बचे हुए गद्याकृति छन्दोंवाले यजुः कहलाते थे । इन्हीं चारों भेदों के ज्ञाता ऋग्वेदी , यजुर्वेदी अथवा द्विवेदी त्रिवेदी थे , परन्तु जब इस प्रकार की योग्यतावाले और इन इन उपाधियोंवाले ब्राह्मरण बहुत हो गये और प्राचीन मौलिक वेदों के पठनपाठन का प्रचार पुराना हो गया तथा वेदों में सन्देह होने लगा तब नवीन नवीन प्रकार की संहिताओं की सृष्टि होने लगी । आदिम मूल संहिताओं का स्वरूप संहिता ही था ।
क्रमशः