लेखक – विवेक शुक्ला
जिस राजपथ से गणतंत्र दिवस परेड का आग़ाज़ होता हो, उससे ख़ास सड़क कौन सी हो सकती है। इस नाम को सुन-सुनकर आज़ाद भारत की कई पीढ़ियां बड़ी हुईं।
यहाँ से बैठकर गणतंत्र दिवस परेड का देखने का सुख कोई और नहीं हो सकता. अब उसी राजपथ का नाम कर्तव्यपथ किए जाने की चर्चा है.
सेंट्रल विस्टा को री-डिवेलप करने के क्रम में लगभग साढ़े तीन किलोमीटर लंबे राजपथ की शक्ल भी बदल दी गई है।
नई दिल्ली जब बनकर तैयार हुई तो जिस सड़क को अभी तक राजपथ कहा जाता रहा है, उसे किंग्सवे नाम मिला था। पर यह नाम देश के आज़ाद होने के बाद 1961 में बदल दिया गया। यह जानकारी नई दिल्ली नगर परिषद (एनडीएमसी) के पूर्व सूचना निदेशक मदन थपलियाल देते हैं।
किंग्सवे नाम सेंट स्टीफ़ेंस कॉलेज के इतिहास के प्रोफ़ेसर पर्सिवल स्पियर ने दिया था. दरअसल, नई दिल्ली की तमाम सड़कों के नाम उन्हीं की सलाह पर अंग्रेज़ों की सरकार ने रखे थे।
इतिहासकार पर्सिवल स्पियर सेंट स्टीफ़ेंस कॉलेज में 1924-1940 तक पढ़ाते रहे. जब नई दिल्ली बन गई तो अंग्रेज़ों की सरकार ने उनकी सलाह पर यहाँ की सड़कों के नाम रखे थे, यानी अकबर रोड, पृथ्वीराज रोड, शाहजहां रोड आदि नाम उन्हीं की सलाह पर रखे गए थे। स्पियर साहब ने भारत के इतिहास पर अनेक महत्वपूर्ण किताबें लिखीं। वे विशुद्ध अध्यापक और रिसर्चर थे।वे भारत के स्वाधीनता आंदोलन को क़रीब से देख रहे थे।
पर वे उसके साथ या विरोध में खड़े नहीं थे। सेंट स्टीफ़ेंस कॉलेज छोड़ने के बाद वे ब्रिटिश सरकार के भारत मामलों के उप-सचिव बन गए थे. उन्होंने भारत को छोड़ने के बाद इंडिया, पाकिस्तान एंड दि वेस्ट (1949) ,ट्वाइलाइट ऑफ़ दि मुगल्स (1951), दि हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया (1966) समेत कई महत्वपूर्ण किताबें लिखीं। इन सबका अब भी महत्व बना हुआ है I
राजपथ शुरू होता है रायसीना हिल पर स्थित राष्ट्रपति भवन से राजपथ से इंडिया गेट के बीच में विजय चौक आता है। ये गणतंत्र दिवस परेड का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है । इसके बीच में परेड राष्ट्रपति को सलामी देते हुए नई दिल्ली की सड़कों से होते हुए लाल क़िले पर समाप्त होती है।
आमतौर पर नई दिल्ली की ख़ासमखास इमारतों के डिज़ाइनरों की बात हो जाती है, पर किसी को याद नहीं रहता उस अनाम शख़्स का नाम जिसकी निगरानी में राजपथ समेत नई दिल्ली की चौड़ी-चौड़ी सुंदर सड़कों को तैयार किया गया था। उसका नाम था सरदार नारायण सिंह I जब नई दिल्ली की प्रमुख इमारतों के डिज़ाइन बनने लगे तो सवाल आया कि यहां बनने वाली इमारतों और सड़कों के निर्माण के लिए ठेकेदार कहां से आएंगे?
ये बातें 1920 के दशक की हैं। तब सारे देश में सरकार ने ठेकेदारी का काम करने वाले प्रमुख ठेकेदारों से संपर्क किया। सरदार नारायण सिंह ने नई दिल्ली की सड़कों को बनाने का दावा पेश किया।
उनके दावे को सही माना गया। नई दिल्ली के चीफ़ डिज़ाइनर एडविन लुटियंस और उनके साथी हरबर्ट बेकर ने ही सरदार नारायण सिंह को राजपथ के निर्माण का महत्वपूर्ण दायित्व सौंपा था।
उस समय के लिहाज से उन्होंने नई दिल्ली को बेजोड़ सड़कें दीं। तब सड़कों के नीचे भारी पत्थर डाल दिए जाते थे। फिर रोड़ी और तारकोल से सड़कें बनती थीं। नारायण सिंह के हिसाब से सड़कें गुज़रे बीसेक साल तक बनती रहीं।
अब न केवल राजपथ की बल्कि सारे देश के शहरी इलाकों में बिटुमिनस (तारकोल) तकनीक से सड़कें बन रही हैं I इस तकनीक के इस्तेमाल से सड़कें सस्ती और टिकाऊ बन जाती हैं और ध्वनि प्रदूषण भी नहीं फैलातीं I
गणतंत्र दिवस परेड में घोड़े, हाथी, मोटर साइकिल, सेना के ट्रक से लेकर भारी-भरकम टैंक तक निकलते हैं। पर मज़ाल है कि राजपथ को कोई बड़ा नुक़सान होता हो। जहां से राजपथ शुरू होता है उसके दोनों तरफ़ हरबर्ट बेकर के डिज़ाइन किए हुए भव्य और राजसी साउथ ब्लॉक और नार्थ ब्लॉक हैं।
जंतर- मंतर का ज़िक़्र आते ही ज़ेहन में दो छवियां उभरती हैं । पहली, जंतर-मंतर पर धरने पर बैठे प्रदर्शनकारियों की । दूसरी, उस जंतर मंतर नाम की खगोलीय वेधशाला की जिसका निर्माण महाराजा जयसिंह द्वितीय ने 1724 में करवाया था.
पर जंतर- मंतर का यही परिचय नहीं है। इस छोटी-सी सड़क के आमने-सामने भव्य और विशाल बंगले बनवाए थे उन मुख्य रूप से पांच ठेकेदारों ने जो नई दिल्ली की अहम इमारतों के निर्माण के लिए पिछली सदी के आरंभ में राजधानी में आए थे ।
उनमें धरम सिंह सेठी, सोभा सिंह, बैसाखा सिंह, नारायण सिंह भी थे Iनारायण सिंह का परिवार अब भी वहां रहता है । धरम सिंह ने अपने लिए जिस घर को बनवाया था वह आगे चलकर कांग्रेस का मुख्यालय बना ।
हालांकि वहां से भी कांग्रेस का मुख्यालय 1970 के दशक में अकबर रोड पर चला गया था। धर्म सिंह को ठेका मिला था कि वे राष्ट्रपति भवन, साउथ और नार्थ ब्लॉक के लिए राजस्थान के धौलपुर तथा यूपी के आगरा से पत्थरों की नियमित सप्लाई रखें। सोभा सिंह ने धरम सिंह के साथ वाले प्लॉट पर अपना बंगला बनवाया था I वहां पर बाद में केरल हाउस बन गया।
राजपथ के अगल-बगल की हरी-हरी मखमली घास पर बैठकर दिल्ली की कितनी ही पीढ़ियों ने जाड़ों की धूप का आनंद लिया है। यहीं शास्त्री भवन, निर्माण भवन, रेल भवन वगैरह में काम करने वाले सरकारी बाबू लंच के समय ताश खेलकर या लेटकर सूरज की गुनगुनी धूप का सुख प्राप्त करते हैं । इधर के किसी बुज़ुर्ग पेड़ के पीछे अनगित प्रेमी-प्रमिकाएं एक-दूसरे से कसमें-वादे करते रहे हैं ।
राजपथ जिसे कर्तव्य पथ बनाने की चर्चा है, उस पर लगे दर्जनों जामुन और दूसरी प्रजातियों के पेड़ काट दिए गए हैं । ये लगभग 90 साल पुराने पेड़ थे। इधर के जामुन खाने का सुख दिव्य होता था।जब राजपथ बन रहा था तब इसके आसपास एडिवन लुटियन और उनके बागवानी मामलों के मुख्य सलाहकार डब्ल्यू आर. मुस्टो पेड़ लगवा रहे थे।
डब्ल्यू आर. मुस्टो ने ही तय किया था कि इधर पतझड़ी पेड़ों को लगाने से बचा जाए। ये सिलसिला अब भी कायम है. इधर के पेड़ और सुंगध से महकते फूलों की क्यारियों को मुख्य रूप से राजस्थान के मालियों ने तैयार किया था I उन मालियों की अगली पीढ़ियां अब भी सक्रिय हैं। बीते कुछ दशकों से उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ और फ़ैज़ाबाद के भी माली यहां आने लगे हैं I ये सब केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग (सीपीडब्ल्यूडी) के मुलाज़िम हैं। ये अधिकतर राष्ट्रपति भवन परिसर में या फिर नई दिल्ली के किसी इलाके में ही रहते हैं. कुछ के पिता और दादा भी यही काम करते रहे हैं।
अब राजपथ से ‘कर्तव्यपथ’ पर नए सिरे से कब पेड़ लगेंगे और उनमें कब रसीले जामुन आएंगे, इस सवाल का उत्तर कौन दे सकता है ।इधर के जामुन के पेड़ों से दिल्ली के मनुष्यों और बंदरों का मुंह मीठा होता था. बंदर भी इन पर हाथ साफ़ करते रहे हैं। सबको पता है कि राजपथ के आसपास की सरकारी इमारतें सैकड़ों बंदरों का आशियाना हैं ।
राजपथ को नई शक्ल मिल रही है. राजपथ से सटे शास्त्री भवन, उद्योग भवन, रेल भवन, विज्ञान भवन भी अब यादों और तस्वीरों में ही रह जाएंगे. इन भवनों में काम करने वाले बहुत से बाबू हर रोज़ लंच के समय राजपथ के एक कोने पर राम कथा का आयोजन करते हैं।
क्या नए बने ‘कर्तव्यपथ’ पर फिर से राम कथा के लिए स्पेस बचेगा? क्या आगे चलकर इधर के घने पेड़ों के पीछे छिपकर अपने उज्ज्वल भविष्य की योजनाएं बनाने वाले युवा जोड़ों को भी कोई जगह मिलेगी? ये देखना अभी बाकी है I
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