लेखक- राज खन्ना
21 सालों के अंतराल पर कांग्रेस के अध्यक्ष पद के चुनाव का कार्यक्रम घोषित हो चुका है।फिलहाल कोई दावेदार सामने नहीं है l पार्टी के बड़े हिस्से की मांग एक ही है कि राहुल गांधी फिर से अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी संभाल लें। ऐसे लोगों को नेहरू-गांधी परिवार से इतर कोई नाम स्वीकार नहीं है । इस मौके पर कांग्रेस अध्यक्ष पद के 1946 के चुनाव को याद करना रोचक होगा। 76 वर्षों बाद भी! क्यों ? तब भी नेहरू परिवार इसके केंद्र में था। इसलिए भी कि इस चुनाव ने बहुमत को दरकिनार किया । बाद में आजाद भारत में अलग अलग मौकों पर इस परंपरा को दोहराया जाता रहा है।
बापू की इच्छा और आदेश के चलते तब सरदार पटेल ने अपना नाम वापस लिया था। इसके बाद पंडित नेहरू अध्यक्ष चुने जा सके थे. इस अध्यक्ष पद ने उन्हें अंतरिम सरकार की अगुवाई का अवसर और आजाद भारत में प्रधानमंत्री का पद प्रदान किया. तभी से नेहरू-गांधी परिवार कांग्रेस का पर्याय बना हुआ है।
तब गांधी जी नहीं थे कांग्रेस के सदस्य; फिर भी निर्णायक भूमिका में
1946 में कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के समय गांधीजी कांग्रेस के सदस्य नही थे. लेकिन बैठक में मौजूद थे. भूमिका भी निर्णायक थी. क्या हुआ था तब ? गांधी जी के पौत्र राज मोहन गांधी ने अपनी पुस्तक ” पटेल ए लाइफ़ ” में लिखा, “अध्यक्ष के तौर पर मौलाना आजाद का कार्यकाल छह साल तक खिंच गया. दूसरा विश्वयुद्ध और भारत छोड़ो आंदोलन में पूरी वर्किंग कमेटी के जेल में रहने के कारण ऐसा हुआ I आजाद की जो जगह लेता वही वाइसरॉय की एग्जयूटिव काउंसिल का वाइस प्रेसिडेंट ( बाद में प्रधानमंत्री ) होता । मौलाना फिर से चुना जाना चाहते थे।यह जानना उनके नजदीकी दोस्त पंडित नेहरु के लिए कष्टकर था।उधर सरदार पटेल का नाम अनेक प्रदेश कांग्रेस कमेटियों ने प्रस्तावित किया था। कृपलानी के नाम का भी प्रस्ताव हुआ था। नामांकन की आखिरी तारीख 29 अप्रेल थी । गांधीजी ने जवाहर लाल नेहरु के पक्ष में 20 अप्रेल तक संकेत दे दिए थे.”
…तो उस दौर में भी खबरें प्लांट की जाती थीं!
क्या उस वक्त भी खबरें प्लांंट की जाने लगी थीं ? मौलाना आजाद के पुनर्निर्वाचन के लिए एक भी प्रदेश कमेटी ने प्रस्ताव नही किया था । फिर भी उनके अध्यक्ष चुने जाने की संभावना जाहिर करते हुए एक अख़बार ने ख़बर छापी. खिन्न गांधीजी ने इसकी कटिंग संलग्न करके मौलाना आजाद को 20 अप्रेल 1946 एक बेबाक पत्र लिखा,” मैंने अपनी राय के बारे में किसी को नही बताया। जब वर्किंग कमेटी के एक-दो सद्स्यों ने मुझसे पूछा तो मैंने कहा कि पुराने अध्यक्ष का आगे भी बना रहना उचित नहीं होगा । यदि आप भी इसी राय से सहमत हैं, तो उचित होगा कि छपी ख़बर के बारे में स्टेटमेंट जारी करके आप बताएं कि आपका पुनः अध्यक्ष बनने का इरादा नहीं है. आज की परिस्थिति में यदि मुझसे पूछा जाए, तो मैं जवाहर लाल नेहरु को प्राथमिकता दूंगा. इसकी कई वजहें हैं, जिसके विस्तार में नही जाना चाहता.”
गांधीजी ने पटेल की तुलना में गिनाईं नेहरू की खूबियां
गांधीजी ने पंडित नेहरु का पक्ष लिए जाने के कारण साल भर बाद सार्वजनिक किए थे। उनका कहना था, “जवाहर लाल की आज कोई अन्य जगह नहीं ले सकता। अंग्रेजों से कार्यभार ग्रहण करना है । उनसे बातचीत में जीतना है Iउनकी शुरुआती पढ़ाई हैरो में हुई है। वह कैम्ब्रिज से ग्रेजुएट और बैरिस्टर हैं Iकम से कम मुस्लिमों के कुछ हिस्से से उनका संवाद है. ।इसके विपरीतसरदार पटेल की इसमें कोई दिलचस्पी ही नहीं है। विदेशों में पटेल की तुलना में जवाहर लाल कहीं ज्यादा जाने जाते हैं। इसमें कोई संदेह नही किअंतरराष्ट्रीय मामलों में उनके नेतृत्व में भारत अपनी एक भूमिका निभाएगा।”
गांधीजी को भरोसा था कि नेहरु के चयन से देश पटेल की सेवाओं से वंचित नही होगा। उन्होंने कहा,” दोनों साझेदारी में काम करेंगे। सरकार की गाड़ी में दो बैलों की तरह एक को दूसरे की जरूरत रहेगी और दोनों मिलकर गाड़ी को आगे बढ़ाएंगे।”
गांधी की पसंद नेहरू तो पार्टी को पटेल की चाहत
गांधीजी की पसन्द अगर नेहरु थे, तो पार्टी को पटेल की चाहत थी । क्यों ? इसे आचार्य कृपलानी ने बताया,” पटेल महान प्रशासक, संगठनकर्ता थे. वह जमीनी नेता थे l पार्टी को इसका अहसास था।1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में जवाहर लाल नेहरु की तुलना में उनकी भूमिका कहीं शानदार थी। आम जनता के दिमाग में अभी इसकी यादें ताजा थीं। पटेल की इन खूबियों के चलते 15 में से 12 प्रदेश कमेटियों ने अध्यक्ष पद के लिए उनके नाम का प्रस्ताव किया।” दूसरी तरफ गांधीजी की इच्छा के बाद भी नामांकन की आखिरी तारीख़ तक नेहरु के पक्ष में एक भी कमेटी का प्रस्ताव नहीं आया।
दो प्रांतीय कमेटियां कृपलानी के पक्ष में थीं, जबकि एक ने कोई मत नहीं व्यक्त किया।आचार्य कृपलानी ने गांधीजी की मर्जी के जिक्र साथ वर्किंग कमेटी के सदस्यों के बीच नेहरु के नाम का प्रस्ताव आगे बढ़ाया. कमेटी के साथ ही ए.आई.सी.सी के कुछ सदस्यों ने भी उस पर हस्ताक्षर कर दिए । इसके बाद कृपलानी ने खुद का नामांकन वापस ले लिया । फिर कृपलानी ने एक दूसरा ड्राफ्ट पटेल की ओर बढ़ाया. इसमें लिखा था कि अब जवाहर लाल नेहरु निर्विरोध चुने जा सकते हैं। सिर्फ पटेल के दस्तख़त बाकी थे। पटेल ने यह ड्राफ्ट गांधीजी को दिखाया। के पक्ष में होने के बाद भी गांधीजी ने नेहरु की ओर मुख़ातिब होते हुए कहा,” किसी प्रदेश कमेटी ने आपके नाम का प्रस्ताव नहीं किया है. केवल वर्किंग कमेटी ने समर्थन दिया है.” नेहरु का जबाब ” उनकी पूरी तौर पर खामोशी थी”. यह साफ़ हो गया कि जवाहर लाल नेहरु को शीर्ष क्रम में दूसरा स्थान स्वीकार नही हैं। गांधीजी ने दस्तख़त के लिए ड्राफ्ट पटेल की ओर बढ़ा दिया।पटेल ने कोई देरी नही की. उनके लिए ये काम नया नहीं था. 1929 और 1939 में भी उन्होंने गांधीजी के आदेश के पालन में अध्यक्ष पद से अपना नाम वापस लिया था।
अध्यक्ष बनने के साथ नेहरू के लिए प्रधानमंत्री पद की ताजपोशी का रास्ता हुआ साफ
नेहरु का निर्वाचन तय हो चुका था ।मौलाना आजाद ने उनके पक्ष में 26 अप्रैल को अपील भी जारी की थी। फिर भी 29 अप्रैल को आजाद ने अखबारों को बयान दिया कि मैं नवम्बर तक अध्यक्ष रहूंगा. ऐसा हो पाता तो 22 जुलाई का वाइसरॉय का अंतरिम सरकार की अगुवाई का न्योता कांग्रेस अध्यक्ष के नाते आजाद को मिलता I गांधीजी ने उन्हें फिर आड़े हाथों लिया। पत्र लिखा और 29 अप्रैल के बयान को अनुचित बताया. यह भी लिखा, ” मुझे आपसे यह उम्मीद नही थी.” आहत आजाद ने जबाब दिया, ” आप समझते हैं कि कांग्रेस मेरे हाथों में सुरक्षित नही है।” नेहरु मई 1946 में अध्यक्ष चुने गए. जुलाई की शुरुआत में ही बम्बई में ए.आई.सी.सी की बैठक हुई। नेहरु ने तभी अध्यक्ष का पदभार आजाद से ले लिया। सिर्फ अंतरिम सरकार की बागडोर ही नहीं , आजादी बाद प्रधानमंत्री के रूप में देश की अगुवाई का रास्ता उनके लिए साफ हो चुका था।
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