खबर है कि योगी सरकार अब प्रदेश में चल रहे अवैध मदरसों की खबर लेगी। जबसे प्रदेश में योगी सरकार आई है तब से मदरसों में दाखिला लेने की प्रक्रिया बहुत अधिक सीमा तक प्रभावित हुई है। 2017 में सत्ता संभालते समय प्रदेश में जितने मुस्लिम बच्चे मदरसों में दाखिला लेते थे, 2022 तक आते आते उनकी संख्या आधी रह गई है। बात स्पष्ट है कि योगी सरकार से पहले मदरसों के माध्यम से देश विरोधी फौज तैयार करने पर बड़ी तेजी से काम हो रहा था।
कुछ समय पहले शिया सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर यह अनुरोध किया था कि देश में जितने भी मदरसे हैं वे आतंकवाद को बढ़ावा देने का काम कर रहे हैं इसलिए मदरसों को बंद किया जाना चाहिए। शिया सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने अपने उस पत्र में स्पष्ट रूप से यह स्वीकार किया था कि जितने भर भी मदरसे इस समय चल रहे हैं वह सब आतंकवाद से जुड़ने के लिए छात्रों को प्रेरित करते हैं। प्रधानमंत्री को लिखे उस पत्र में शिया बोर्ड ने मांग की थी कि मदरसों के स्थान पर ऐसे स्कूल हों जो सीबीएसई या आईसीएसई से संबद्ध हों और ऐसे स्कूल छात्रों के लिए इस्लामिक शिक्षा के वैकल्पिक विषय की पेशकश करेंगे। बोर्ड ने सुझाव दिया था कि सभी मदरसा बोर्डों को भंग कर दिया जाना चाहिए। तब शिया सेंट्रल वक़्फ़ बोर्ड के अध्यक्ष वसीम रिज़वी ने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि देश के अधिकतर मदरसे मान्यता प्राप्त नहीं हैं और ऐसे संस्थानों में शिक्षा ग्रहण करने वाले मुस्लिम छात्र बेरोज़गारी की ओर बढ़ रहे हैं। ऐसे मदरसे लगभग हर शहर, कस्बे, गांव में खुल रहे हैं और ऐसे संस्थान गुमराह करने वाली धार्मिक शिक्षा दे रहे हैं।
वास्तव में वसीम रिजवी साहब के इस प्रकार के बेबाक विचारों का हमें स्वागत करना चाहिए। उनकी स्पष्ट स्वीकारोक्ति इस बात का प्रमाण है कि मदरसों में कहीं ना कहीं देश विरोधी गतिविधियां चलती रही हैं। जिन्हें प्रदेश में सपा सरकार के समय में सरकारी स्तर पर भरपूर समर्थन प्राप्त हुआ था। अब योगी आदित्यनाथ ने अपने विशेष सफाई अभियान के अंतर्गत इन मदरसों पर शिकंजा कसने की तैयारी की है। वसीम रिजवी साहब की उपरोक्त मांग के समर्थन में इस सफाई अभियान को शीघ्र से शीघ्र पूर्णता की ओर ले जाने की आवश्यकता है।
भारत के संविधान से धारा 370 और 35a को हटाने के पश्चात अब कई लोगों की दृष्टि एक ऐसे ही आपत्तिजनक अनुच्छेद 30 के बारे में है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 30 के अंतर्गत ऐसी व्यवस्था की गई है जिसके रहते अल्पसंख्यक समुदाय के विभिन्न प्रकार के अधिकारों की रक्षा की गारंटी दी गई है। किसी भी अच्छे संविधान के लिए यह आवश्यक है कि उसके भीतर ऐसी व्यवस्था हो जिससे देश के सभी निवासियों की उसके प्रति स्वाभाविक निष्ठा हो। इसके लिए आवश्यक है कि संविधान में आस्था रखने वाले लोग और संविधान को लागू करने वाले लोग एक दूसरे के अधिकारों का स्वाभाविक रूप से सम्मान करने वाले हों। संवैधानिक व्यवस्था का पालन करना सभी देशवासियों का कर्तव्य होता है। संविधान की निष्पक्षता उसके प्रत्येक शब्द से झलकनी चाहिए। यदि वह देश के भीतर ही ऐसी व्यवस्था करता है जिससे किसी वर्ग विशेष को विशेष अधिकार प्राप्त हो जाएं और दूसरे वर्ग के लोगों को वे अधिकार प्राप्त ना हों तो इससे लोगों में बेचैनी बढ़ती है।
अनुच्छेद 30(1) कहता है कि “सभी अल्पसंख्यकों को, चाहे वे धर्म या भाषा के आधार पर हों, अपनी पसंद के शिक्षण संस्थानों की स्थापना और प्रशासन करने का अधिकार होगा।”
संविधान के इस प्रावधान से उस सीमा तक किसी को भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए जिस सीमा तक किसी अल्पसंख्यक समुदाय के ऐसे संस्थान देश के लिए काम करने के प्रति संकल्पित हों। उनकी नीति, उनकी सोच और उनकी नियत “राष्ट्र प्रथम” के आधार पर यदि कार्य कर रही है तो ऐसे प्रावधान का स्वागत ही करना चाहिए। इस सीमा तक भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि वे शैक्षणिक संस्थान अपने अल्पसंख्यक वर्ग के अधिकारों की रक्षा के लिए कृत संकल्प हों। अपत्ति वहां से आरंभ होनी चाहिए जहां पर ऐसे शैक्षणिक संस्थान देश विरोधी गतिविधियों में सम्मिलित हो जाएं या देश विरोधी मानसिकता को बढ़ाने का काम करने लगें। जब अल्पसंख्यक वर्ग के ऐसे शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना की बात की जा रही थी या जब यह स्थापित किए जा रहे थे तो किसी भी हिंदू ने इनका विरोध नहीं किया था। इसका कारण केवल एक था कि हिंदू अपनी परंपरागत उदारता को बनाए रखना चाहता था ।उसकी सोच थी कि देश के बंटवारे के बाद अब कोई भी व्यक्ति देश के बंटवारे की नीति रणनीति पर काम नहीं करेगा। पर अपनी परंपरागत उदारता के आधार पर बार-बार ठगे जाने के लिए मशहूर हो चुके हिंदू समाज ने अपने आप को ही एक बार फिर फिर छल लिया।
अनुच्छेद 30(1ए) अल्पसंख्यक समूहों द्वारा स्थापित किसी भी शैक्षणिक संस्थान की संपत्ति के अधिग्रहण के लिए राशि के निर्धारण से संबंधित है।
अनुच्छेद 30(2) में कहा गया है कि “सरकार को किसी भी शैक्षणिक संस्थान के साथ इस आधार पर भेदभाव नहीं करना चाहिए कि वह अल्पसंख्यक के प्रबंधन में है, चाहे वह धर्म या भाषा पर आधारित हो, सहायता देते समय।”
इस व्यवस्था के अंतर्गत ऐसे अल्पसंख्यक संस्थानों को कुछ विशेषाधिकार प्राप्त हो गए हैं। इस आपत्तिजनक अनुच्छेद की इस व्यवस्था से स्पष्ट होता है कि जैसे सरकार को अल्पसंख्यक समुदाय के शैक्षणिक संस्थानों का निरीक्षण ,परीक्षण या समीक्षण करने का कोई संवैधानिक अधिकार नहीं है।
संविधान सभा में 8 दिसंबर 1948 को एक विशेष बहस हुई थी ,जिसमें यह निर्णय लिया गया था कि नागरिकों की मातृभाषा को प्राथमिक शिक्षा का आधार बनाया जाएगा। संविधान सभा के सदस्यों में से एक ने इस अनुच्छेद के दायरे को भाषाई अल्पसंख्यकों तक सीमित रखने के लिए एक संशोधन पेश किया। उन्होंने तर्क दिया कि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य को धर्म के आधार पर अल्पसंख्यकों को मान्यता नहीं देनी चाहिए। वास्तव में जिस सदस्य ने इस प्रकार का प्रस्ताव रखा था उनकी बात सोलह आने सही थी। संविधान सभा के जितने सदस्य इस प्रस्ताव का यथावत समर्थन कर रहे थे वे यह भूल रहे थे कि देश की एकता और अखंडता के लिए मजहब जैसी चीज को अब पूर्णतया विदा कर देना चाहिए। मजहबी आधार पर किसी भी प्रकार का तुष्टीकरण देश के लिए घातक सिद्ध होगा। ऐसी परिस्थितियों में उन्हें इस प्रकार के प्रस्ताव का समर्थन नहीं करना चाहिए था।
संविधान सभा के एक अन्य सदस्य ने भाषाई अल्पसंख्यकों को उनकी भाषा और लिपि में प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने के मौलिक अधिकार की गारंटी देने का प्रस्ताव रखा। वह अल्पसंख्यक भाषाओं की स्थिति के बारे में चिंतित थे, यहां तक कि उन क्षेत्रों में भी जहां अल्पसंख्यक आबादी महत्वपूर्ण थी।
संविधान सभा ने इन दोनों ही प्रस्तावों को निरस्त कर दिया।
भारत के संविधान में अल्पसंख्यक कौन होगा ? इसकी कोई परिभाषा नहीं नहीं की गई है। बिना परिभाषा और आकार प्रकार या स्वरूप दिए इस शब्द को अपना लिया गया है। भारतवर्ष में किसको अल्पसंख्यक माना जाएगा किसको नहीं, इसका आधार केवल संख्यात्मक शक्ति है।
राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम की धारा 2, खंड (सी) जिन छह समुदायों को अल्पसंख्यक समुदायों के रूप में घोषित करती है। वे हैं: मुसलमान, ईसाई,बौद्ध, सिक्ख,जैन और पारसी।
इनमें से मुसलमानों को छोड़कर शेष सभी समुदाय अपने स्वरूप को सुरक्षित रखने के साथ-साथ भारतीयता के साथ भी अपने आप को समन्वित करने का और प्रदर्शित करने का सराहनीय प्रयास करते हैं। केवल और केवल इस्लाम को मानने वाले मदरसों के मालिक या संचालक या प्रबंधक तंत्र के लोग अपने आप को मुसलमान पहले और भारतीय बाद में सिद्ध करने के शिक्षा संस्कार देते हैं। जिससे बड़ी संख्या में मदरसों के माध्यम से देश में आतंकी गतिविधियों को बढ़ावा देने वाले छात्र बाहर निकल कर आ रहे हैं। एक तरफ देश भक्ति और एक तरफ मजहबपरस्ती दोनों को साथ साथ चलाने की बेतुकी बातें की जाती हैं। जबकि सभी यह जानते हैं कि जब मजहबपरस्ती देश से पहले खड़ी हो जाती है तो देश भक्ति पर प्रश्नचिन्ह लगना स्वाभाविक है। इस प्रकार की दोगली बातों से देश का सामाजिक परिवेश सद्भाव पूर्ण नहीं हो सकता।।
हमीद दलवाई ‘मुस्लिम पॉलिटिक्स इन सेकुलर इंडिया’ के प्रष्ठ संख्या 47 पर लिखते हैं कि “यह मुस्लिम नेता रोषपूर्वक अपने को 100% भारतीय होने का दावा करते हैं। साथ ही साथ कश्मीर पर पाकिस्तान के दावे के पक्ष में तर्क देते सुने जाते हैं। आसाम में पाकिस्तानी घुसपैठियों को भारतीय मुसलमान मुस्लिम सिद्ध करते दिखाई देते हैं। कहने को उनका हिंदुओं से कोई मनोमालिन्य नहीं किंतु साथ ही साथ यह फतवा भी जारी करते हैं कि नेहरू की मृत्यु उपरांत उनके शव के पास कुरान का पाठ इस्लाम के विरुद्ध है, क्योंकि काफिर के शव पर कुरान नहीं पढ़ी जा सकती। वह जाकिर हुसैन को भारत का राष्ट्रपति तो देखना चाहते हैं किंतु अच्छा मुसलमान होने के नाते उनके हिंदी में शपथ और शंकराचार्य से आशीर्वाद लेने पर आपत्ति करते हैं।”
अब दोगलेपन को समाप्त कर केवल देश की बात करने का समय है। जो लोग इसको स्वभाविक रूप से देश की मुख्यधारा में सम्मिलित होकर समझने को तैयार हैं , उनका स्वागत होना चाहिए और इस बात के लिए उनकी प्रशंसा होनी चाहिए कि वे देश की पहचान व सम्मान को सर्वोपरि रखते हैं। पर जो लोग इस बात को समझने को तैयार नहीं हैं, उनके विरुद्ध संवैधानिक ढंग से कठोर कानूनी कार्यवाही करते हुए या उन्हें देश की मुख्यधारा में लाने के लिए नए कानून बनाने के लिए या उनकी गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए हर संभव प्रयास किए जाने चाहिए। योगी आदित्यनाथ अपनी साफगोई और कड़क भाषा के लिए जाने जाते हैं। उनके निर्णयों में किसी प्रकार की लाग लपेट नहीं होती उन्हें जो कुछ कहना होता है ,वह उसे बेधड़क कहते हैं। देश की एकता और अखंडता को मजबूत करने के लिए और देश से छद्म धर्मनिरपेक्षता और तुष्टीकरण के भूत को भगाने के लिए वास्तव में ऐसी ही कड़क भाषा और स्पष्ट कठोर निर्णय लेने वाले नेतृत्व की आवश्यकता है।
हमें यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि जिन तथाकथित राष्ट्रवादी मुस्लिमों को हम देश की एकता और अखंडता के लिए समर्पित वह मानते चले आए हैं उनकी सोच में भी कहीं ना कहीं विकार था। जैसे मौलाना अबुल कलाम आजाद भी राजनीति को कुरान की दासी से अधिक नहीं समझते थे और राजनीति में कुरान के दायरे के बाहर जाने वाले मुसलमान को राजनीतिक काफिर मानते थे। उनका कहना था कि कोई भी विचार जिसका स्त्रोत कुरान के बाहर है, नितांत कुफ्र है। कोई भी मुसलमान जो किसी भी कार्य या विश्वास का समर्थन अथवा अनुमोदन कुरान के सर्वांगीण सिद्धांत के प्रतिकूल किसी दूसरी राजनीतिक पार्टी अथवा दर्शन प्रणाली में खोजता है, मुस्लिम नहीं रहता और उसे राजनीतिक काफिर माना जाएगा।
मौलाना अबुल कलाम आजाद की इस सोच के अनुसार ही मदरसों से जो आवाज आती रही है, वह देश के लिए किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं रही है। यदि वास्तव में भारत एक पंथनिरपेक्ष देश है तो इससे अब कुफ्र और काफ़िर की बात व इसी प्रकार का चिंतन समाप्त होना चाहिए। योगी आदित्यनाथ जी इस समय जिस प्रकार के सफाई अभियान में लगे हैं वह अभिनंदनीय है। बस, ध्यान केवल इतना रखना है कि जो लोग किसी भी संप्रदाय में रहकर देश की एकता और अखंडता के लिए समर्पित हैं, उनके दिल को कहीं चोट ना लगे।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत