विकास की अंधी गली या रामराज्य का अनूठा सपना ?
पुण्य प्रसून वाजपेयी
ना जाति का टकराव। ना वर्ग संघर्ष की कोई आहट। बल्कि सांस्कृतिक और धर्म का टकराव। २०१४ के सत्ता परिवर्तन का सच यही है । यानी आजादी के बाद पहली बार राजनीतिक सत्ता के परिवर्तन ने सियासी तौर पर ही नहीं बल्कि देश के भीतर सामाजिक राजनीतिक समझ की ही एक ऐसी लकीर खिंची है जो विकास को पुनर्भाषित करना चाहती है। इसके दायरे में धर्म और सांस्क़तिक राष्ट्रवाद है। यानी पूंजी और इन्फ्रास्ट्रक्चर के आसरे जिस विकास की परिकल्पना नरेन्द्र मोदी ने चुनाव से पहले प्रधानमंत्री बनने के लिये की । वह सोच प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी जमीन पर उतार पायेंगे या फिर धर्म और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की आंधी में पूंजी पर टिके विकास के परखच्चे उड़ जायेंगे। क्योंकि हिनदू धर्म और सांस्कृतिक राषट्रवाद के जो नारे संघ परिवार की हर बैठक में लग रहे हैं। जो चर्चा संघ से जुड़े हर संगठन में हो रही है, वह भारत को हिन्दु सभ्यता से जोड़ रही है और उस दौर के विकास की रेखा के सामने मौजूदा विकास के सपने थोथे है। इसे कहने में हिन्दु राष्ट्र की कल्पना संजोये लोग कतरा भी नहीं रहे है। हैदराबाद में दो दिन पहले विहिप के केन्द्रीय प्रन्यासी मण्डल एवं प्रबंध समिति के संयुक्त अधिवेशन में धर्मांतरण की व्याख्या स्वामी विवेकानंद के जरीये यह कहकर की जाती है कि हिन्दू समाज से एक मुस्लिम या ईसाई बने इसका मतलब यह नहीं है कि एक हिन्दू कम हुआ बल्कि इसका मतलब हिन्दू समाज का एक और शत्रु बढा। सिर्फ विवेकानंद ही नहीं बल्कि कांग्रेस के बाद अब बीजेपी जिस तरह महात्मा गांधी को आत्मसात कर रही है और खुद प्रधानमंत्री मोदी जिस तरह महात्मा गांधी को अपनी नायाब व्याख्या का हिस्सा बना रहे हैं। स्वच्छ भारत अभियान को स्वस्थ बारत के गांधी के सपने से जोड़ रहे है, इस बीच में अगर विहिप महात्मा गांधी को यह कहकर याद करता है कि गांधी ने कहा, भारत में ईसाई मिशनरी के प्रयास का उद्देश्य है कि हिन्दुत्व को जड़मूल से उखाड़कर उसके स्थान पर दूसरा मत थोपना। तो २०१४ के बीतते बीतते यह सवाल तो देश के सामने आ ही खड़ा हुआ है कि २०१४ का सत्ता परिवर्तन सिर्फ पूर्ण बहुमत की सरकार का बनना या काग्रेस समेत तमाम राजनीतिक दलो के हाशिये पर चले जाना महज चुनावी हार नहीं है बल्कि सामाजिक-आर्थिक तौर पर देश के भीतर जो विपन्नता है, उसे धर्म और सास्कृतिक विपन्नता के तौर पर देखने का वक्त आ गया है। क्योंकि मौजूदा सरकार संघ परिवार से निकली राजनीतिक ताकत है। और संघ परिवार के भीतर उसी वक्त वह सारे सवाल गूंज रहे हैं, जिस पर आजादी के
बाद से हर सियसत ने मौन धारण किया। राजनीति ने जरुरी नहीं समझा और खुद बीजेपी या नरेन्द्र मोदी ने भी विकास के जिस चेहरे को सामने रखा वह उसी आवारा पूंजी के ही आसरे है जिसमें कालेधन की उपज खूब होगी। समाज में विषमता खूब बढ़ेगी। अपराध या भ्रष्टाचार पर नकेल कसने का मतलब सिर्फ कमजोर को दबाना होगा। ताकतवर के लिये कहा यही जायेगा कि न्याय अपना काम कर रहा है । यानी सत्ता पाना और सत्ता को अपने अनुकुल बनाने की समझ से लेकर सत्ता गंवानी ना पड़े इसके लिये नीतियों को पोटली ही सुशासन को परिभाषित करेगी।
लेकिन इसी दौर में जिस विचारधारा की गूंज राजनीति में होने लगे या सत्ता में जो धारा सबसे ज्यादा ताकतवर हो चली हो अगर उसके भीतर यह सवाल कुलबुला रहे हों कि आजादी के वक्त बडी तादाद में हिन्दुओं को जबरदस्ती मुसलमान बनाया गया। उस वक्त राम, श्रीकृष्ण, हरेराम, सीताराम सरीखे हिन्दु शब्द लोगों ने हड्डियो तक गुदवा लिये। ताकि हिन्दु धर्म ना छूटे। तब डर था। भय था । लेकिन सत्ता सियासी रोटिंया ही सेंकती रही। आजादी के पहले से और सत्तर के दशक के आते आते तो ग्रामीण-आदिवासियों को झुंड में ईसाई बनाया गया। सरकारे गांव तक पहुंच नहीं पायी तो ग्रामीण पिछड़े इलाकों में ईसाई मिशनरियों की दस्तक हुई। स्वास्थ्य से लेकर शिक्षा और रोजगार के लेकर भूख मिटाने के रास्ते गिरजाघर से निकलने लगे। तब डर या भय नहीं फेल होते राज्य में दो जून की रोटी और राहत का सवाल था। हर्षोउल्लास के बीच खुलेआम धर्म परिवर्तन का जो दौर सत्तर के दशक में शुरु हुआ वह नब्बे के दौर तक रहा।
लेकिन कभी कोई सवाल धर्म परिवर्तन को लेकर नहीं उठा। तो फिर अब क्यो। यह तर्क और यह सवाल अगर समूचे संघ परिवार की जुबां पर है तो फिर सवालो की इस आंधी में चुनावी लोकतंत्र कोई रास्ता खोजेगी या उसका इंतजार होगा या फिर आने वाले वक्त सत्ता विकास की सोच को पलटने के लिये मजबूर होगी जहां रामराज्य का सपना देखना होगा। मौजूदा सरकार अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार नहीं है, जब बहुमत ना आ पाने कास दर्द हो और सत्ता में बने रहने की चाहत तले रामराज्य भी राजनीतिक सपने में तब्दील किया जा सके। बल्कि २०१४ में तो बहुमत वाली। आरएसएस की विचारधारा को राजनीतिक तौर पर मान्यता देने वाली। रामराज्य को सपने को असल जिन्दगी में उतारने की ट्रेनिग पायी स्वयंसेवकों की सरकार है। और यह सपने कैसे छोड़े जा सकते है या फिर जिस धर्म या जिस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के दायरे में ही समूची शिक्षा बीते ९० बरस से पढी जाती रही हो। या कहें पढायी जाती रही हो। उसे मौजूदा वक्त में ना उठाये तो उसका विस्तार होगा कैसे। वैसे भी राजनीतिक तौर पर जब २०१४ के सत्ता परिवर्तन से पहले संघ परिवार को तात्कालीन सत्ता ने ही आंतक के कटघरे में खडा करने में कोताही नही बरती तो फिर अब तो उसकी विचारधारा वाली सरकार है। और इस वक्त भी खामोश रहे तो सरकारो को बदलने या सत्ता परिवर्तन पर ही संघ परिवार की व्याख्या हमेशा होती रहेगी। क्या इस सोच को तोड़ा जा सकता है कि सत्ता में कोई भी रहे कांग्रेस या बीजेपी दोनो हालात में हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना ही आदर्श सोच हो सकती है। दरअसल यह सवाल स्वयंसेवकों के हैं कि सत्ता बदलने से अगर संघ परिवार के प्रति देश का नजरिया बदलता है तो फिर राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था को ठीक करने की जरुरत है। शायद इसीलिये मोदी सरकार को कोई परेशानी ना हो या वोटर यह ना सोचने लगे कि एक खास नजरिये से देश को हांका जा रहा है इसलिये संघ परिवार के चालिस से ज्यादा संगठन अपने अपने क्षेत्र में विचारधारा के तहत काम करते रहेंगे। लेकिन पहली बार संघ परिवार को के भीतर यह सवाल बड़े होने लगे हैं कि कांग्रेस की तर्ज पर विकास का मतलब विकास की अंधी गली नही होनी चाहिये। यानी सरकार की नीतियां सामाजिक-आर्थिक तौर पर देश के बहुसंख्यक तबके को प्रभावित करें। यानी सिर्फ मोदी सरकार की नीतिया मनमोहन सरकार से इतर है। यह काफी नहीं है बल्कि जिस सामाजिक शुद्दीकरण का सवाल आरएसएस उठाता रहा है उस लकीर पर सरकार खुद चले। यानी अनुशासन और ईमानदारी होनी चाहिये। लेकिन मोदी सरकार के विकास के सपने तले अगर अनुशासन का मतलब बाबूओं के सुबह बिना देरी
नौ बजे दफ्तर पहुंचने से हो या इमानदारी का मतलब नेता-मंत्री के चार्टेड में सफर ना करने से हो या फिर घूस लेते मंत्रियों के बेटों को पार्टी फंड में घूस की रकम जमा रकाने से हो तो संकेत साफ है कि पहली बार संघ की
विचारधारा का पाठ पढने वालों के ही शुद्दीकरण की जरुरत आ पड़ी है।
ऐसे में चुनाव से पहले भ्रष्टाचार के दल दल में मनमोहन सरकार के जो सवाल नरेन्द्र मोदी उठा रहे थे या देश के करोडों युवाओं को उपभोक्ता बनाने के जो सपने पैदा कर रहे थे, वह संघ की विचारधारा के सामने अगर अब टकराते हुये दिखायी दे रहे हैं तो इसका मतलब क्या निकाला जाये। क्या २०१४ के चुनाव के दौर में संघ परिवार राजनीतिक तौर पर सक्रिय इसलिये हुआ क्योकि नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी तमाम भी विकास की उन्हीं अनकही लकीरों को खींच सके जो अभी तक कांग्रेस या दूसरे राजनीतिक दल खींचते आ रहे थे। क्योंकि सवाल वोटरों को एक छत तले लाने का था। या फिर विकास की अंधी गली के असल नुमाइन्दों [कारपोरेट और उघोगपति] को यह भरोसा दिलाया सके की राजनीतिक सत्ता के जरीये बीजेपी भी उनका हित साध सकती है। यानी पूंजीपति यह ना सोचे की हिन्दुत्व की धारा सत्ता में आने के बाद उसका ही बंटाधार कर देगी । हो जो भी अब सवाल उस टकराव का है जहा ग्रामीण आदिवासी इलाकों में विकास होना है। न्यूनतम की जरुरतो को पूरा करने के साथ साथ बड़े बड़े उघोग लगाने हैं। थके-हारे गांवों को स्मार्ट गांव में बदलना है। धर्म से आगे दो जून
की रोटी की व्यवस्था राज्य सरकार को करनी है। जिससे कोई भी छोटी मोटी सुविधा के नाम पर संख्याबल जोडकर यह ना कहे कि उसके धर्म के लोगों को धर्मानुसार ही विकास करना है या धर्मानुसार सरकारें काम कर रही है और उन पर ध्यान नहीं दे रही है। मोदी सरकार को तो विकास के लिये देश की खनिज संपदा से लेकर भूमि अधिग्रहण के वैसे रास्ते खोलने ही होंगे जो कॉरपोरेट को धर्म की दुकान से बड़ा कर दें। जो विकास की अनूठी लकीर में भारत के बाजार और उपभोक्ताओ को चकाचौंध कर दें। दरअसल, संघ के स्वयंसेवकों के पाठ से यह बिलकुल उलट है। लेकिन बीजेपी सरकार बिना संघ परिवार की सक्रियता के बन नहीं सकती। और संघ की सक्रियता अगर सरकार बना सकती है तो फिर सरकार को नायक होने का सपना दिकाकर अपनी विचारधारा को नीतियों में क्यो नहीं बदल सकती। इसलिये धर्मांतरण से राष्ट्रांतरण होता है यह कहने में उसे कोई हिचक नहीं है। घरवापसी से देश धर्म से जुड़ता है, यह कहने में उसे कोई परेशानी नहीं है। सवाल सिर्फ इतना है कि सरकार और संघ के रास्ते एक सरीखे दिखेंगे कब या संघ के रास्तों के बीच चुनावी रास्ते अंडगा डालेंगे कब। और दोनो का असर होगा क्या। दरअसल २०१५ संघ के इन्हीं रास्तों की प्रयोगशाला है। जिस पर मोदी सरकार को चलना है या नहीं। इस पर मुहर उसी जनता को लगाना है जो एक तरफ विदेशी पूंजी पर टिके विकास के नारों को नकार रही है, तो दूसरी तरफ प्रचीन भारत के गौरवमयी क्षणों में रामराज्य का सपनों को
सुनते-देखते हुये थक चुकी है।
लेखक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के वरिष्ठ पत्रकार हैं