ज्ञान का रहस्य
कान सुनना चाहे नहीं, नाक दे क्रिया छोड़।
रसना चखना छोड़कर , लेवे मुखड़ा मोड़ ।।
बोले से भी बोले नहीं, मेरी जिह्वा ऐसी होय।
स्पर्श छूना छोड़ दे , और पैर भी निश्चल होय।।
हाथ पकड़ना छोड़ दे , और काम विदा हो जाय।
हष्ट – पुष्ट हों इंद्रियां पर काम से दूर हो जाएं।।
चित्त की वृत्ति जब शांत हो तभी सफल हो योग।
चित्त निरन्तर निर्मल रहे और दूर भगें सब रोग ।।
अर्जुन ! सुन – उस ज्ञान को , जो है योगी के योग्य।
उसी ज्ञान से मन निर्मल बने और हो भगवन के योग्य।।
विज्ञान सहित वह ज्ञान है, जो करता है कल्याण।
सुनाकर ज्ञानी जन गए और तू भी सुन धर ध्यान।।
विज्ञान का अर्थ अध्यात्म से , ज्ञान का अर्थ सामान्य।
ज्ञानी जन यही मानते और रहें अछूते अन्य ।।
‘राजसूय’ वह क्षत्रिय करे , है जिसे राज की चाह।
भगवान का प्यारा बन रहे , हरे सभी की ‘आह’ ।।
संसार – असार आया समझ वह करते ब्रह्म का यज्ञ।
सब को अपने वश करें, जीवन को बनाते यज्ञ ।।
ओजस्वी जन होते वही , जो करें अपने को होम।
रोम – रोम कहता रहे , हर पल ओ३म ही ओ३म।।
बुद्धि जिसकी सारथी और मन हो जाए लगाम ।
‘विष्णु’ पद पाता वही , और मिलता मुक्तिधाम।।
आवागमन से छूटकर वह जीवन मुक्त हो जाय।
सब का वह आदर्श हो , और योग सफल हो जाय।।
चाह – चिंता से मुक्त हो , जब चित्त चैन में जाय।
तब समझो जीवन सफल और सफल योग हो जाय।।
जगत – झमेला छोड़कर और जो पाता परमानन्द ।
तब उसके चारों ओर ही जाता बिखर आनंद ।।
अर्जुन ! ऐसी संपदा , सौभाग्य से ही मिल पाय।
जिसको चस्का इसका लगा , ना कभी छोड़ने पाय।।
-डॉ राकेश कुमार आर्य
यह गीत मेरी पुस्तक “गीता मेरे गीतों में” से लिया गया है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित की गई है । पुस्तक का मूल्य ₹250 है। पुस्तक प्राप्ति के लिए मुक्त प्रकाशन से संपर्क किया जा सकता है। संपर्क सूत्र है – 98 1000 8004
मुख्य संपादक, उगता भारत