पक्षी बैठे वृक्ष पर,
एक देखे एक खाय ।
जैसा जिसका कर्म है,
वैसे ही फल पायं ॥1888 ॥
फूलों में है सुगन्ध तू ,
तारों में प्रकाश ।
हृदय में धड़कन तूही,
प्रमाणित करता सांस॥1889॥
लालच जड़ है पाप की ,
क्रोध है वन की आग ।
काम खाय सौन्दर्य को ,
अहंकार है नाग॥1890॥
मोह की दलदल है बुरी ,
हिलै ज्यों नीचे जाय ।
धृतराष्ट्र को देख लो,
कुन्बा दिया खपाय ॥1891॥
भावना और कर्तव्य में ,
नित होता संघर्ष ।
दोनों का यदि संयोग हो,
तो होता उत्कर्ष॥1892॥
मोह -शोक के भंवर में ,
फंसा हुआ संसार ।
जो इन से ऊपर उण ,
हो गया भव से पर॥1893॥
मन उलझा दो बात में ,
क्या कभी किया विचार ।
सुखों का संचय करें,
दुखों का परिहार॥1894॥
चैतसिक स्तर पर कभी ,
आया नेक विचार ?
क्यों आया संसार में ,
निज प्रतिबिम्ब निहार॥1895॥
काण संग लोहा तिरै,
जल पर करें विहार ।
संत – सनिधि पारस – मणि ,
भाव से तारै पार॥1896॥
ज्ञानामृत का पान कर,
मत करना प्रमाद ।
सत्य ढका है स्वर्ण से ,
सुन अनहद का नाद॥1897॥
सूर्योदय के साथ ज्यों,
गति करे संसार ।
तेजस्वी के कारणै,
उन्नत हो परिवार॥1898 ॥
गति करने से अभिप्राय है – अपने – अपने कार्य में रत होना I
क्रमश: