लोगों का धर्मांतरण या रूपांतरण?
घर वापसी के सवाल पर भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के बयान का स्वागत किया जाना चाहिए कि यह मुद्दा भाजना और उसके गठबंधन के एजेंडे पर नहीं है। उन्होंने यह बात भी दो टूक शब्दों में कह दी है कि उनकी सरकार जबरन धर्मांतरण के खिलाफ है, वह चाहे ईसाई करें या मुसलमान करें या हिंदू करें। मैं समझता हूँ कि भारत जैसे आधुनिक और विविधतामय राष्ट्र के लिए इससे बेहतर नीति क्या हो सकती है? अब तक जो लोगों की शिकायत यह थी कि मोदी सरकार इस मुद्दे पर अपना रवैया स्पष्ट नहीं कर रही है, वह शिकायत अब दूर हो गई है।
लेकिन अमित भाई की शिकायत का जवाब कौन देगा? अमित शाह ने पूछा है कि अपने आप को सेक्यूलर या धर्म-निरपेक्ष कहने वाले किसी भी सांसद या दल ने संसद में धर्म-परिवर्तन विरोधी विधेयक पेश क्यों नहीं किया? हम तो कठोर कानून बनाना चाहते हैं लेकिन हमारे विरोधी सिर्फ हवा में लट्ठ चला रहे हैं?
क्या भारत के विरोधी दल चाहते हैं कि एकतरफा धर्मांतरण चलता रहे? वे यह चाहे तो भी ऐसा नहीं हो सकता। यदि ईसाई मिश्नरी और तबलीगी जमातें हिंदुओं को अपने मजहबों में जोड़ते रहेंगे तो हिंदू संगठन भी जवाबी कार्रवाई करते रहेंगे। घर वापसी को तो वे लोग इसलिए भी सही ठहराते हैं कि जो लोग पहले से भटक गए हैं, वे यदि वापस अपने घर लौटना चाहते हैं तो इसमें क्या बुराई है? यदि विरोधी दल चाहते हैं कि घर वापसी रूके तो उन्हें तुरंत धर्मांतरण रोकने का कानून लाना चाहिए।
धर्मांतरण करने वालों और घर वापसी करवाने वालों, दोनों से मैं पूछता हूँ कि जो कुछ वे कर रहे हैं, क्या उसका धर्म से कोई संबंध है? क्या वे सिर्फ भेड़ों का रेबड़ बढ़ाने का काम नहीं कर रहे हैं? यह धर्म है या राजनीति? उनका ध्यान सिर्फ संख्या-बल पर है। चरित्र-बल पर क्यों नहीं? यदि ये सारे धर्म-ध्वजी अपने-अपने अनुयायियों को पाखंड छोड़ने के लिए कहें और बेहतर इंसान बनने की प्रेरणा दें तो उनके अपने धर्मों की इससे बड़ी सेवा क्या हो सकती है? उन्हें सोचना चाहिए कि मनुष्यता के लिए कौन-सी चीज़ ज्यादा फायदेमंद है – लोगों का धर्मांतरण या उनका रूपांतरण।