साहित्य की ऊंची साधिका हैं डॉ मृदुल कीर्ति

जीवन और जगत की समस्याओं को सुलझाना और समझाना प्रत्येक विद्वान और दार्शनिक के लिए महत्वपूर्ण प्रश्न रहा है। इसके विपरीत साधारण जन ” भोजन, वस्त्र और आवास” की उलझन में उलझ कर ही बड़े सौभाग्य से प्राप्त हुए मानव जीवन को व्यर्थ में खो देते हैं। जीवन उन्हीं का सफल और सार्थक होता है जो वस्त्र भोजन, वस्त्र और आवास की मूलभूत समस्याओं से ऊपर उठकर आत्मा की आवश्यकता परमात्मा और उसकी सृष्टि के गूढ़ रहस्यों पर भी विचार करते हैं और इसके साथ साथ संसार के लिए सार्थक संदेश भी देते हैं। ज्ञान में विचरण करने वाली ऐसी दिव्यात्माओं के शुभचिंतन और सुविचारों से संसार को असीम ऊर्जा प्राप्त होती है।
परम आदरणीया बहन डॉ मृदुल कीर्ति जी ज्ञान की अनुभूतियों के गहन सागर में विचरण करने वाली ऐसी ही दिव्यात्मा हैं। वह जब भी इस ज्ञान सागर में डुबकी लगाती हैं तो अपनी गहरी और ऊंची साधना के माध्यम से अनमोल मोतियों को लाकर हमारी झोली में डाल देती हैं। जिस जिसके हाथ में उनके दिए ये मोती आते हैं, वही मालामाल हो जाता है। वास्तव में वह मोतियों की थोक विक्रेता हैं। यह अलग बात है कि उनकी साधना की दुकान पर कोई ऊंचे दर्जे का खरीददार ही पहुंच पाता है। यद्यपि वह मोतियों को नि:शुल्क बांटती हैं, परंतु हर खरीददार के पास श्रद्धा की वह भेंट नहीं होती जिसके बदले वह उनके मोतियों को उनसे खरीद सके। कोई सौभाग्यशाली ही उनसे “सौदा” ले सकता है।
सांख्य दर्शन पर उनका चिंतन उतनी ही गहराई लिए हुए है, जितना अन्य आर्ष ग्रंथों पर उन्होंने अपने चिंतन की गहराई प्रकट की है। पाठक को अपने वैदुष्य के साथ जोड़े रखना और उसे गहरे ज्ञान सागर में डुबकी लगवाते रहना डॉ मृदुल कीर्ति जी की अद्भुत लेखन शैली का चमत्कार है। सांख्य दर्शन पर उनकी कितनी गहरी साधना है ? उसके लिए ये पंक्तियां उद्धृत करना पर्याप्त है :-

अंतरिक्ष, द्यौलोक, धरनि, सब अन्तर्निहित अनूप
पंचतत्व एकमेव प्रणेता, अनु, कण, के एक भूप

स्थिति प्रलय और उत्पत्ति, सृष्टि के प्रारूप
सकल सृष्टि, संचालक, पालक, मारक, विरल सरूप

हे ! आद्यंत विहीन, अचिन्त्यं, अद्भुत रूप अरूप
अणु-अणियामा, मह-महियामा, बृहत विराट स्वरूप

सृजन-विसर्जन तुझसे तुझमें, चक्रायित तदरूप
तुझसे-तुझमें, तुझमें-तुझसे, छाँव तू ही तू धूप

अनहद का विश्राम बिंदु तू, तू ही परिनिर्वाण
अनघं, शुद्ध, अकायं, अद्वय, तू प्राणों का प्राण

लोग विषय वासनाओं को भड़काने वाले साहित्य को भी लेखक या लेखिका की साहित्य साधना कह दिया करते हैं। यद्यपि लेखक या लेखिका की साहित्य साधना इसी में निहित होती है कि उसके साहित्य से आत्मा का आत्मा से संवाद हो। ..और डॉक्टर कीर्ति इस अपेक्षा पर पूर्णतया खरी उतरती हैं।
सांख्य दर्शन के रचयिता महर्षि कपिल हैं। इस दर्शन में 6 अध्यायों में महर्षि कपिल ने अपने विषय को स्पष्ट किया है। इसके सूत्रों की संख्या 451 मानी जाती है। इसके अतिरिक्त कुछ प्रक्षिप्त श्लोक भी इसमें सम्मिलित कर दिए गए हैं । इस दर्शन का उद्देश्य प्रकृति और पुरुष की विवेचना करके उनके अलग-अलग स्वरूपों को प्रकट करना है। प्रकृति, महतत्त्व, अहंकार , पंच तन्मात्राएं, एकादश इंद्रियां, पंचमहाभूत और पुरुष सांख्य के अनुसार योग 25 तत्व हैं।

डॉ मृदुल जी लिखती हैं :-

अथ विभु रचित सकल संसारा, दुःख त्रय अखिल विश्व विस्तारा।
आधि -व्याधि दिवि भौतिक तापा, निवृति न होवें पुनरपि व्यापा।
विधना त्रिविध ताप रचि राखा, निवृति हेतु बहु विविध विशाखा।
मूल शूल, एकहि उपचारा , सांख्य कारिकी विधि निस्तारा।
तत्वज्ञान ही श्रेय उपाया, हेय दुःखत्रय पुनरि न आया ।

पुनरपि त्रिविध ताप नहीं होई, सांख्यकारिकी तत्व संजोई।

वैदिक विविध उपाय अपि, जाये न दुःखत्रय शूल
“कपिल मुनि” सांखयारिकी, में उपाय निर्मूल।

यह बहुत ही प्रसन्नता का विषय है कि एक ग्रहिणी होने के उपरांत भी बहन मृदुल जी साहित्य की इतनी ऊंची साधना के लिए समय निकाल लेती हैं। मेरी उनसे जब भी वार्ता हुई है तो वह भारतीय समय के अनुसार सायं काल 8 से 9 बजे के मध्य बातचीत हुई है। तब ऑस्ट्रेलिया में रात्रि के 12:00 या एक बज रहा होता है। कहने का अभिप्राय है कि उस समय भी वह साहित्य की साधना कर रही होती हैं। साधना की इसी ऊंचाई से यह भाव निकल सकते हैं :-

दृश्य विधान सों दुःख न जाई, वेद विदित विधि अपि न सहाई।
शुद्धि दोष, क्षय दोष समाई , अतिशय दोष विकार बताई।
तद विपरीत मार्ग एक श्रेया, व्यक्त अव्यक्त ज्ञान को ज्ञेया।
व्यक्त इन्द्रियन परत दिखाई, मूल प्रकृति अव्यक्त कहाई।
‘ज्ञ’ प्रज्ञातं पुरुष विशेषा, तदुपरांत कुछ रहत न शेषा।
तत्त्वज्ञान मय ‘पुरुष’ प्रधाना,विषयक ब्रह्मतत्व विज्ञाना।

वास्तव में महापुरुषों का निर्माण रात्रि के गहन अंधकार में ही होता है। जब सारा जग सो रहा होता है तब वे अपनी साधना में लीन होते हैं। बहन मृदुल कीर्ति जी जिस समय अपनी इस साधना में बैठती हैं तो वह उनके निर्माण का काल होता है। यह अलग बात है कि उनके निर्माण के साथ-साथ उनकी लेखनी के माध्यम से संसार का निर्माण करने में भी हमें सहायता प्राप्त हो रही है। अपनी इस ऊंची साधना के लिए वह अभिनंदन और बधाई के पात्र हैं।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत समाचार पत्र

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