2 अगस्त/प्रेरक-प्रसंग : नरसंहार के बावजूद मंदिर निर्माण
भारत के दक्षिणी राज्य केरल के मल्लापुरम् जिले में मुस्लिम जनसंख्या 71 प्रतिशत है। समुद्रतटीय होने के कारण यहां अरब देशों से मुस्लिम व्यापारी सैकड़ों साल से आते रहे हैं। केरल के लोग भी अरब देशों में नौकरी के लिए बड़ी संख्या में जाते हैं। उनके द्वारा भेजे गये धन से स्थानीय मुसलमान काफी धनी हुए हैं। इसका प्रभाव उनके मकान, दुकान, खानपान और रहन-सहन पर स्पष्ट दिखता है। उनकी मस्जिदें भी बहुत आलीशान बनी हैं।
इसी जिले के मालापरम्बा में स्थित श्री नरसिंहमूर्ति मंदिर लगभग 4000 साल पुराना है। मंदिर के स्वामित्व में हजारों एकड़ भूमि थी। ऐसी मान्यता है कि इस मंदिर और क्षेत्र में कई ऋषियों ने तपस्या की है। अतः दूर-दूर से धर्मप्रेमी लोग यहां पूजा करने आते थे; पर काल के थपेड़ों में मंदिर कई बार गिरा और फिर बना। एक स्थानीय नायर परिवार इसकी देखरेख करता था। लगभग 250 साल पूर्व टीपू सुल्तान ने मंदिर को तोड़ा और हजारों लोगों को मुसलमान बना लिया। उन्हीं के वंशज आज भी उस क्षेत्र में रहते हैं।
आजादी से कुछ वर्ष पूर्व खान साहब उन्नीन साहब नामक एक धनी मुसलमान ने मंदिर की 600 एकड़ जमीन लीज पर लेकर वहां रबड़ की खेती प्रारम्भ कर दी। उसके मन में हिन्दू धर्म के प्रति इतनी घृणा थी कि उसने खंडित मंदिर के पत्थरों से अपने घर में शौचालय बनवाये; पर कुछ ही समय बाद उसके परिवार में भारी बीमारी फैल गयी। उसका कारोबार और खेती भी चैपट हो गया। उसने कुछ ज्योतिषियों से परामर्श किया तो उन्होंने यह देवी-देवताओं का कोप बताकर उसे फिर से मंदिर निर्माण कराने को कहा।
मरता क्या न करता, खान साहब ने 1947 में मंदिर का निर्माण करा दिया। कुछ समय बाद उनके घर से बीमारी दूर हो गयी। उनका कारोबार और खेती भी पटरी पर आ गयी। इस चमत्कार से उनके मन में फिर से हिन्दू धर्म के प्रति आस्था दृढ़ हुई और उन्होंने कालीकट के आर्य समाज मंदिर में जाकर सपरिवार हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया। उनका नाम राम सिम्हन और उनके भाई का दया सिम्हन रखा गया। दया सिम्हन आगे चलकर नम्बूदरी ब्राह्मण हो गये और उनका नाम नरसिम्हन नम्बूदरी हो गया।
पर इस परावर्तन से स्थानीय मुसलमान और मुल्ला-मौलवी भड़क गये। उन्होंने तो आज तक हिन्दुओं से मुसलमान बनते हुए ही देखे थे। कोई मुसलमान यह मजहब छोड़कर फिर से पूर्वजों का पवित्र हिन्दू धर्म स्वीकार करे, यह उन्हें मान्य नहीं था। उनको लगा कि यदि उन्हें सजा नहीं दी गयी, तो यह बीमारी फैल जाएगी और हजारों मुसलमान फिर से हिन्दू हो जाएंगे। अतः उन्होंने राम सिम्हन को धमकियां दीं; पर वे विचलित नहीं हुए। अंततः दो अगस्त, 1947 को उन्होंने पूरे परिवार की निर्मम हत्या कर दी और मंदिर भी तोड़ दिया।
इससे पूरे क्षेत्र में आतंक फैल गया। हिन्दू लोग भयभीत होकर चुप बैठ गये; पर धीरे-धीरे वहां संघ आदि संस्थाओं का काम बढ़ा। अतः 60 साल बाद पास के गांव के स्वयंसेवकों ने राम सिम्हन के पौत्रों से संपर्क कर उन्हें फिर से इस काम को आगे बढ़ाने का आग्रह किया। सबने मिलकर न्यायालय में अपील की, तो मंदिर की जमीन ‘श्री नरसिंहमूर्ति मंदिर ट्रस्ट’ को मिल गयी।
इससे पूरे जिले के हिन्दुओं में उत्साह की लहर दौड़ गयी। सबने मिलकर फिर से मंदिर का निर्माण किया। यह मंदिर का चैथा निर्माण था। जुलाई, 2010 में एक भव्य समारोह में भगवान गणेश, भगवान सुब्रह्मण्यन, देवी भगवती और स्वामी अयय्पा की मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा की गयी। राज्य के कई श्रेष्ठ संतों ने भी मंदिर निर्माण में सहयोग दिया। इस प्रकार हिन्दुओं के संगठित प्रयास से भव्य मंदिर का पुनर्निमाण हुआ। आज यह मंदिर केवल मल्लापुरम् जिले का ही नहीं, पूरे केरल के हिन्दुओं के लिए गौरव का स्थान है।
(संदर्भ : कृ.रू.सं.दर्शन, भाग छह)
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2 अगस्त/इतिहास-गाथा
जब तिरंगा गर्व से फहरा उठा
भारत का स्वतन्त्रता दिवस 15 अगस्त, 1947 है। उस दिन अंग्रेज भारत से वापस गये थे। फ्रान्स के कब्जे वाले पाण्डिचेरी, कारिकल तथा चन्द्रनगर भी उस दिन भारत को मिल गये थे; पर भारत के वे भूभाग, जो पुर्तगालियों के कब्जे में थे, तब भी गुलाम ही बने रहे। इन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों ने दो अगस्त, 1954 को अपने शौर्य, पराक्रम और बलिदान से स्वतन्त्र कराया। यह गाथा भी स्वयं में बड़ी रोचक एवं प्रेरक है।
भारत के गुजरात और महाराष्ट्र प्रान्तों के मध्य में बसे गोवा, दादरा, नगर हवेली, दमन एवं दीव पुर्तगाल के अधीन थे। 15 अगस्त के बाद पण्डित नेहरू के नेतृत्व में बनी कांग्रेस सरकार ने जब इनकी मुक्ति का कोई प्रयास नहीं किया, तो स्वयंसेवकों ने जनवरी 1954 में संघ के प्रचारक राजाभाऊ वाकणकर के नेतृत्व में यह बीड़ा उठाया। वरिष्ठ कार्यकर्त्ताओं से अनुमति लेकर वे इस काम के योग्य साथी तथा साधन एकत्र करने लगे।
गुजराती, मराठी आदि 14 भाषाओं के ज्ञाता विश्वनाथ नरवणे ने पूरे समय सिल्वासा में रहकर व्यूह रचना की। हथियारों के लिए काफी धन की आवश्यकता थी। यह कार्य प्रसिद्ध मराठी गायक व संगीतकार सुधीर फड़के को सौंपा गया। 1948 में गांधी-हत्या के झूठे आरोप में संघ पर प्रतिबन्ध लगाया गया था। यद्यपि प्रतिबन्ध हट चुका था, फिर भी लोग संघ को अच्छी नजर से नहीं देखते थे। ऐसे में सुधीर फड़के ने लता मंगेशकर के साथ मिलकर संगीत कार्यक्रम के आयोजन से धन एकत्र किया। सब व्यवस्था हो जाने पर राजाभाऊ ने संघ के तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी को सारी योजना बताकर उनका आशीर्वाद भी ले लिया।
इस दल को ‘मुक्तिवाहिनी’ नाम दिया गया। 31 जुलाई की तूफानी रात में सब पुणे रेलवे स्टेशन पर एकत्र हुए। वहाँ से कई टुकड़ियों में बँटकर एक अगस्त को मूसलाधार वर्षा में मुम्बई होते हुए सब सिल्वासा पहुँच गये। योजनानुसार एक निश्चित समय पर सबने हमला बोल दिया और पुलिस थाना, न्यायालय, जेल आदि को मुक्त करा लिया। पुर्तगाली सैनिकों ने जब यह माहौल देखा, तो डर कर हथियार डाल दिये।
अब सब पुर्तगाली शासन के मुख्य भवन पर पहुँच गये। थोड़े से संघर्ष में ही प्रमुख प्रशासक फिंदाल्गो और उसकी पत्नी को बन्दी बना लिया; पर उनकी प्रार्थना पर उन्हें सुरक्षित बाहर जाने दिया गया। दो अगस्त, 1954 को प्रातः जब सूर्योदय हुआ, तो शासकीय भवन पर तिरंगा गर्व से फहरा उठा।
आज सुनने में बड़ा आश्चर्य लगता है; पर यह सत्य है कि केवल 116 स्वयंसेवकों ने एक रात में ही इस क्षेत्र को स्वतन्त्र करा लिया था। इनमें सर्वश्री बाबूराव भिड़े, विनायकराव आप्टे, बाबासाहब पुरन्दरे, डा. श्रीधर गुप्ते, बिन्दु माधव जोशी, मेजर प्रभाकर कुलकर्णी, श्रीकृष्ण भिड़े, नाना काजरेकर, त्रयम्बक भट्ट, विष्णु भोंसले, श्रीमती ललिता फड़के व श्रीमती हेमवती नाटेकर आदि की भी प्रमुख भूमिका थी।
एक अन्य बात भी इस बारे में उल्लेखनीय है कि स्वतन्त्रता के लिए कष्ट भोगने वालों को स्वतन्त्रता सेनानी मानकर कांग्रेस सरकार ने अनेक सुविधाएँ तथा पेंशन दी; पर चूंकि यह क्षेत्र संघ के स्वयंसेवकों ने स्वतन्त्र कराया था, इसलिए नेहरू जी ने इन्हें स्वतन्त्रता सेनानी ही नहीं माना। 1998 में केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी के शासन में इन्हें यह मान्यता मिली।
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2 अगस्त /जन्म-दिवस
गोभक्त प्रचारक राजाराम जी
श्री राजाराम जी का जन्म दो अगस्त, 1960 को राजस्थान के बारां जिले के ग्राम टांचा (तहसील छीपाबड़ौद) में हुआ था। उनके पिता श्री रामेश्वर प्रसाद यादव एक किसान थे। इस कारण खेती और गाय के प्रति उनके मन में बचपन से ही प्रेम और आदर का भाव था। आगे चलकर संघ के प्रचारक बनने के बाद भी उनका यह भाव बना रहा और वह कार्यरूप में परिणत भी हुआ।
राजाराम जी की लौकिक शिक्षा केवल कक्षा 11 तक ही हुई थी। 1977 में आपातकाल और संघ से प्रतिबंध समाप्त होने के बाद संघ के कार्यकर्ताओं ने नये क्षेत्रों में पहुंचने के लिए जनसंपर्क का व्यापक अभियान हाथ में लिया। इसी दौरान राजाराम जी संपर्क में आये। उन्हें यह काम अपने मन और स्वभाव के अनुकूल लगा। अतः 1981 में घर छोड़कर वे प्रचारक बन गये। 1985 तक वे बिलाड़ा में तहसील प्रचारक और फिर एक वर्ष धौलपुर के जिला प्रचारक रहे।
इन दिनों पंजाब में खालिस्तान आंदोलन चरम पर था। हर दिन हिन्दुओं की हत्याएं हो रही थीं। हिन्दू अपनी खेती, व्यापार और सम्पत्ति छोड़कर पलायन कर रहे थे। ऐसे में संघ के कार्यकर्ताओं ने पूरे देश के हर प्रांत से एक साहसी एवं धैर्यवान युवा प्रचारक को पंजाब भेजा। इससे पलायन कर रहे हिन्दुओं में साहस का संचार हुआ।
यद्यपि यह काम बहुत खतरे वाला था। संघ की शाखा पर भी एक बार आतंकियों का हमला हो चुका था। फिर भी देश भर से प्रचारक पंजाब आये। 1986 में राजाराम जी को भी इसी योजना के अन्तर्गत पंजाब भेजा गया। यहां उन्हें रोपड़ जिले के प्रचारक की जिम्मेदारी दी गयी।
कुछ ही समय में वे पंजाब की भाषा, बोली और रीति रिवाजों से समरस हो गये। 1992 तक यह जिम्मेदारी संभालने के बाद वे ‘भारतीय किसान संघ’ के प्रांतीय संगठन मंत्री बनाये गये। इसके बाद 1995 से 98 तक वे कपूरथला और फिर 2002 तक फरीदकोट के जिला प्रचारक रहे।
जब संघ के काम में ग्राम विकास का आयाम जोड़ा गया, तो राजाराम जी को इसकी पंजाब प्रांत की जिम्मेदारी दी गयी। 2004 से 2006 तक पटियाला में विभाग प्रचारक, 2010 तक ग्राम विकास के प्रांत प्रमुख और फिर वे गो संवर्धन के पंजाब प्रांत के प्रमुख बनाये गये। हंसमुख होने के कारण वे हर काम में लोगों को जुटा लेते थे।
यों तो राजाराम जी सभी कार्यों में दक्ष थे; पर गोसेवा में उनके प्राण बसते थे। वे इसे देशभक्ति के साथ ही श्रीकृष्ण की भक्ति भी मानते थे। उनके प्रयास से पंजाब में ‘गोसेवा बोर्ड’ का गठन हुआ। सरकार ने गोहत्या के विरुद्ध बने ढीले कानून को बदलकर गोहत्यारों के लिए 10 वर्ष के कठोर कारावास की सजा निर्धारित की।
इतना होने पर भी वे शांत नहीं बैठे। उनका मत था कि गाय की दुर्दशा का एक बड़ा कारण गोचर भूमि पर गांव के प्रभावी लोगों द्वारा कब्जा कर लेना है। पहले गोवंश इस भूमि पर चरता था; पर अब गोपालकों को चारा खरीदना पड़ता है। अतः गोपालन बहुत महंगा हो गया है। इस निष्कर्ष पर पहुंचने के बाद उन्होंने गोचर भूमि की मुक्ति का अभियान प्रारम्भ किया। उनके प्रयास से पंजाब शासन ने इसके लिए तीन सदस्यीय समिति का गठन किया।
इस बीच वे हृदय रोग से पीडि़त हो गये। चिकित्सकों ने उन्हें शल्य क्रिया कराने को कहा; पर वे राज्य में चलने वाली गोशालाओं की स्थिति सुधारने तथा विभिन्न विद्यालयों में चल रही गो-विज्ञान परीक्षा की सफलता हेतु भागदौड़ करते रहे। इसके लिए ही वे मंडी गोविंदगढ़ आये थे। वहां स्वामी कृष्णानंद जी द्वारा गो-कथा का पारायण कराया जा रहा था।
24 नवम्बर, 2013 को कथा के बाद स्वामी जी से चर्चा करते हुए उन्हें भीषण हृदयाघात हुआ और वहीं उनका प्राणांत हो गया। गोभक्त राजाराम जी का अंतिम संस्कार उनके गांव में ही किया गया।
(संदर्भ : वि.सं.केन्द्र, जालंधर/अभिलेखागार, भारती भवन, जयपुर इस प्रकार के भाव पूण्य संदेश के लेखक एवं भेजने वाले महावीर सिघंल मो 9897230196