स्पष्ट तौर पर चाहे यह बात स्वीकार नहीं की जा रही हो पर सच यही है कि इस समय सारा संसार सांप्रदायिक आधार पर इस्लाम और ईसाइयत नाम के दो खेमों में विभाजित है। जिस सांप्रदायिकता का विरोध बड़े-बड़े मंचों पर किया जाता है उसी सांप्रदायिकता के आधार पर सारे संसार पर अपना अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए संसार के यह दोनों बड़े मजहब आज भी संघर्षशील हैं। जिस चीज को एक जहर के रूप में
बार-बार घोषित किया जाता है वही इन दोनों के लिए अमृत बनी हुई है।
यह सिलसिला आज का नहीं है बल्कि पिछले लगभग 12 00- 1300 वर्ष का है। इन दोनों मजहबों ने अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए संसार में धर्म युद्धों की लंबी लड़ाई लड़ी है। आज भी अप्रत्यक्ष रूप से ये दोनों मजहब संसार से अन्य मजहबों को मिटाकर अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इस्लाम ईसाईयत को आतंकवाद के द्वारा मिटा देना चाहता है । इसी प्रकार ईसाइयत इस्लाम को समाप्त कर देना चाहती है। इस समय दोनों की जनसंख्या लगभग बराबर है। यही कारण है कि दोनों इस समय सीधे-सीधे युद्ध नहीं लड़ रहे हैं पर दोनों के बीच छद्म युद्ध जारी है। यद्यपि दोनों मजहब आपस में गुत्थमगुत्था होने के उपरांत भी हिंदुत्व के प्रति एक कॉमन मिनिमम एजेंडा पर काम करते हैं और वह एजेंडा यही है कि दोनों मिलकर यदि वैदिक धर्मावलंबी हिंदुओं का विनाश कर सकें तो यह सोने पर सुहागा होगा।
इधर हम भारतवासी अपने आप को धर्मनिरपेक्षता की चादर में लपेटकर स्वयं को उदार और सहिष्णु बनाए रख कर दिखाने का प्रयास कर रहे हैं। इतना ही नहीं, ईसाइयों को भारत के हिंदू वैदिक धर्म को मिटाकर अपना विस्तार करने का खुला निमंत्रण भी कांग्रेसी सरकारें देती रही हैं। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर भारत के भीतर ईसाई समुदाय के लोगों ने भारतवर्ष के कई प्रांतों को अपने कब्जे में ले लिया है और वहां पर अब हिंदू अल्पसंख्या में रहते हैं। यह बहुत बड़ा षड्यंत्र है ,जिसके लिए राष्ट्रवादी चिंतकों और कलमकारों के द्वारा बहुत पहले से लिखा जाता रहा है। छुपी हुई बीमारी की तरह ईसाई संप्रदाय के लोग अपना विस्तार करते जा रहे हैं । इस्लाम को मानने वाले लोगों को पता है कि देश के भीतर ईसाईयत किस प्रकार आगे बढ़ रही है ? पर वह भी मौन हैं। इसके पीछे कारण केवल एक है कि हिंदू जितना कम हो जाए, उतना ही उन्हें भी अपना काम करने में सुविधा होगी।
इस्लाम और ईसाइयत को मानने वाले पत्रकार भी अपने अपने मजहब को लाभ पहुंचाने के लिए देश में ही नहीं विदेशों में भी भारत के विरोध में काम करते रहते हैं। जितनी भी ईसाई मीडिया है वह कभी भी भारत को आगे बढ़ने देने की पक्षधर नहीं रही है। भारत में नेताओं के द्वारा गढ़ी गई धर्मनिरपेक्षता और उदारता की बातें केवल और केवल भारत की सीमाओं के भीतर कैद हैं । इन्हें भारत से बाहर इस्लामिक और ईसाई जगत में कोई नहीं मानता । यही कारण है कि हमारे नेताओं को भी भारत से बाहर दूसरे दृष्टिकोण से देखा जाता है। भारत में हिंदू बहुसंख्यक हो सकता है पर भारत से बाहर वह अल्पसंख्यक है। बस, इसी दृष्टिकोण से भारत के नेताओं की बातों को सुना जाता है। यह अलग बात है कि वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी जी ने कुछ नए कीर्तिमान स्थापित किए हैं।
हमें यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि भारत अभी भी इस्लाम और ईसाई संप्रदाय के लिए शिकारगाह है। जिसका शिकार निश्चित रूप से हिंदू है। इन शिकार बन रहे हिंदुओं की ओर से शिकारियों की अत्याचार पूर्ण करतूतों का विरोध चाहे कितना ही हो, पर वह विरोध ईसाई मीडिया को दिखाई नहीं देता। वह केवल यह देखते हैं कि ईसाई संप्रदाय ने भारत में कितना विस्तार किया ? एक प्रकार से लोकतंत्र का यह चौथा स्तंभ भारत के बहुसंख्यक हिंदू समाज को समाप्त कर अल्पसंख्यक ईसाइयों को प्रोत्साहित करने का काम कर रहा है।
एक खबर के अनुसार कुछ समय पहले अमेरिकी अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स ने नौकरी का एक विज्ञापन दिया था। उसने भारत समेत दक्षिण एशिया क्षेत्र में बिजनेस संवाददाता की नियुक्ति के लिए उसके गुण और हुनर पर जोर नहीं दिया, बल्कि भारतीय राजनीति और समाज पर एक लंबा भाषण देते हुए स्पष्ट किया कि वह ऐसे पत्रकार को ढूंढ रहा है, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारत को लेकर आलोचनात्मक दृष्टिकोण अपनाए। विज्ञापन के विवादास्पद वाक्य ये हैं, ‘मोदी
का राष्ट्रवाद भारत के हिंदू बहुसंख्यकों पर केंद्रित है। यह देश के स्वाधीनता सेनानियों की सहिष्णुता और बहुसांस्कृतिक परंपरा के विपरीत है। मोदी सरकार मीडिया और ऑनलाइन टिप्पणियों पर पाबंदियां लगा रही है। इसके कारण भारत में वाक् स्वतंत्रता पर कठिन प्रश्न उठ खड़े हुए हैं।’
यह सच है कि भारत के भीतर हम अपने देश और धर्म की रक्षा के लिए कुछ नहीं कर सकते हैं। जब देश के भीतर हम अपने धर्म का प्रचार और विस्तार नहीं कर सकते तो बाहर हमारी क्या स्थिति होगी और बाहर की इस्लामिक या ईसाई मीडिया हमें कितना समर्थन दे रही होगी ? यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। हमारी संप्रभुता पर भी पहरा बैठाया जा रहा है। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहे जाने वाली मीडिया भी लोकतंत्र की हत्यारी साबित हो रही है। मजहबपरस्ती की बातें यद्यपि तथाकथित सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं हैं, परंतु इसके उपरांत भी भारत के विरुद्ध सांप्रदायिकता अपना अच्छा काम कर रही है। सांप्रदायिकता को ईसाई और इस्लाम को मानने वाले लोग अपने विरुद्ध ही बुरी बात मानते हैं ,पर जब यह हिंदू को समाप्त करने के लिए प्रयोग की जाती है तो पूर्णतया जायज कही जाने लगती है। लोकतंत्र को सबसे अच्छी शासन प्रणाली माना जाता है। इसके लिए कहा जाता है कि इस शासन प्रणाली के माध्यम से लोग अपने भीतर की आवाज को अपने मत के माध्यम से प्रकट कर सकते हैं। इसके साथ-साथ इस शासन प्रणाली में धर्म ,जाति और लिंग के आधार पर व्यक्ति व्यक्ति के मध्य किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता। पर सच यह है कि लोकतंत्र की ऐसी परिभाषा या लोकतंत्र के ऐसे सिद्धांत भी पश्चिमी जगत और पश्चिमी मीडिया की दृष्टि में भारत के हिंदू समाज पर लागू नहीं होते।
शिकारी की प्रवृत्ति खूनी होती है। उसे शिकार करने से मतलब होता है । उसका तीर शिकार के दिल पर लगा या कहीं और लगा ,उसे यह नहीं देखना बल्कि उसे केवल यह देखना है कि उसका शिकार मारा गया या नहीं । जायज नाजायज उसके यहां विचारणीय नहीं है। ऐसी परिस्थितियों में भारत के हिंदू समाज को अपने आप उठ खड़ा होना होगा और उसे यह समझना होगा कि उसे आज भी शिकार ही माना जा रहा है। इसके साथ-साथ उसे यह भी पहचानना होगा कि उसे शिकार मानने वाले लोग कौन हैं ? उसे यह जानना होगा कि आज के तथाकथित सभ्य समाज में भी उसे वे सारे लोकतांत्रिक अधिकार प्राप्त हैं या नहीं ,जिन्हें प्राप्त करके कोई भी व्यक्ति या समुदाय या संप्रदाय या समाज स्वाधीनता का स्वाभिमानी जीवन जीने के योग्य होता है ?
उपरोक्त विज्ञापन को देखकर पश्चिमी मीडिया ने भारत और भारत के लोगों को यह संदेश दिया है कि उनके प्रति पश्चिमी जगत में आज भी अपनी धारणाएं हैं ,जिन्हें वे बदलने को तैयार नहीं है। जो लोग सांप्रदायिक आधार पर हमसे भिन्न मत रखते हैं उनकी बातों को सुनने का समय हमारे पास नहीं है ,इसलिए वे इस नौकरी के लिए आवेदन ना करें।
पश्चिमी देशों ने रंग के आधार पर भी लोगों के बीच बीच दूरियां ना प्रोग्राम इनकी सोच और उनके चिंतन में दूरियां हैं। फासले हैं। विभिन्नताऐं हैं और एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रतिस्पर्धा है। जब भीतरी जगत में इस प्रकार की धारणाओं की आग लग रही हो तो बाहरी संसार स्वर्ग नहीं बन सकता। भीतरी शांति से बाहरी शांति स्थापित होती है। यदि किसी संप्रदाय का आंतरिक जगत शुद्ध, सात्विक, निश्चल और निश्छल है तो उसकी मान्यताओं, धारणाओं ,सिद्धांतों और विचारधारा के आधार पर बाहरी सांसारिक समाज स्वर्ग बन सकता है। इस बात को बहुत गहराई से समझने की आवश्यकता है। हमें यह समझना चाहिए कि मुसलमान और ईसाई समाज के लोग यदि संसार में शांति स्थापित नहीं कर पाए तो इसका कारण केवल एक है कि उनके भीतरी जगत में एक अजीब किस्म की प्रतिस्पर्धा की भावना है। जिसमें वह दुर्भाव रखते हुए एक दूसरे से आगे निकल जाने का प्रयास करते देखे जाते है।
हमें यह ज्ञात होना चाहिए कि न्यूयॉर्क टाइम्स की स्थापना 1851 में हुई थी। पश्चिमी जगत की यह विशेषता रही है कि उसने अपने प्रत्येक कदम को खुलेपन ,आधुनिकता और सबके साथ मिलकर चलने के कदम के रूप में प्रचारित किया है। भारत की शासन पद्धति से हीन शासन पद्धति को विकसित करके उसने अपने आप को लोकतंत्र का सबसे बड़ा संरक्षक और जनक साबित करने में किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी। इसी प्रकार पहले से ही सब के विचारों का स्वागत करने वाले भारत को पश्चिमी जगत ने यह कहकर नीचा दिखाने का प्रयास किया कि यहां पर भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कभी नहीं रही। इस प्रकार भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी पश्चिमी जगत ने अपनी मोहर लगाकर इसे भी अपने लिए कब्जा कर लिया। न्
यूयॉर्क टाइम्स को भी उसके स्थापना के काल में इसी प्रकार स्थापित करने का प्रयास किया गया था कि यह संसार को भाषण और अभिव्यक्ति का नया मंच प्रदान करेगा । पर आज यही न्यूयॉर्क टाइम्स भारत को नीचा दिखाने की हर संभव कोशिश करता है। आज यही न्यूयॉर्क टाइम्स भारत की पहचान को बहुत ही भद्दे ढंग से प्रस्तुत कर रहा है। उसकी दृष्टि में भारत पूर्णतया हिंदू सांप्रदायिकता की चपेट में है और एक ऐसे ही राष्ट्र के रूप में अपने आप को स्थापित करने में लगा हुआ है जहां अल्पसंख्यकों के लिए कोई स्थान नहीं है। इस समाचार पत्र की दृष्टि में मोदी एक कट्टरवादी नेता है जो तेजी से भारत का सांप्रदायिक रन कर रहे हैं। उसकी दृष्टि में भारत की जनता यदि मोदी जी को सबसे अधिक लोकप्रिय नेता मान रही है तो यह भी गलत है। न्यूयॉर्क टाइम्स अपनी प्रतिदिन की खबरों में मोदी विरोधियों को विशेष स्थान देता है । इसके अतिरिक्त जो लोग मोदी की निंदा करने या आलोचना करने के लिए जाने जाते हैं उनके बयानों को भी प्रमुखता से स्थान दिया जाता है। इसी प्रकार ऐसे ही लोगों के लेखों को भी प्रमुखता से प्रकाशित किया जाता है। धारा 370 को हटाने, बालाकोट में वायु सेना की एयर स्ट्राइक कराने ,नोटबंदी और जीएसटी जैसे आर्थिक सुधारों को करने और नागरिकता संशोधन विधेयक लाने जैसे उन कार्यों में भी न्यूयॉर्क टाइम्स को कमी दिखाई देती है जिनके कारण भारत की जनता अपने प्रधानमंत्री मोदी को आज भी सबसे अधिक लोकप्रिय मानती है।
विदेशी षड्यंत्रकारी मीडिया के इस प्रकार के षड़यंत्रों को भारत के लोगों को समझना चाहिए। हमारी अपने प्रधानमंत्री से अनेक मुद्दों पर असहमति हो सकती है। ऐसा भी हो सकता है कि जिस कार्यशैली को हम पसंद करते हैं उसे मोदी नहीं अपना रहे हों या जिन कार्यों को हम प्राथमिकता देना चाहते हैं उन्हें मोदी प्राथमिकता पर नहीं ले रहे हों या जिन कार्यों में हम तेजी चाहते हैं उन कार्यों को वह अपेक्षित तेजी के साथ नहीं कर रहे हों। इन सारी बातों पर आप अपनी असहमति व्यक्त कर सकते हैं ।आलोचना का अधिकार भी आपको है, परंतु विदेशी षड्यंत्रकारियों के षड़यंत्रों को असफल करने के लिए मोदी जैसे प्रधानमंत्री का साथ देना भी समय की आवश्यकता है। क्योंकि मोदी शत्रुओं से देश और धर्म को बचाने के लिए कार्य कर रहे हैं जबकि शत्रु तो देश और धर्म दोनों को ही मिटाने के कार्यों में लगा हुआ है। दोनों की सोच और मानसिकता को देखते हुए रचनात्मक सहयोग और समर्थन अपने प्रधानमंत्री के साथ होना ही चाहिए।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत