बिखरे मोती-भाग 81
पदार्थ मिले हैं कर्म से,
मिलते नही भगवान।
अहंभाव उर से मिटै
तो प्रकटें भगवान ।। 850।।
व्याख्या : जैसे सांसारिक पदार्थ कर्मों से मिलते हैं, ऐसे परमात्मा की प्राप्ति कर्मों से नही होती, क्योंकि परमात्म -प्राप्ति कर्म का फल नही है। याद रखो, प्रत्येक कर्म की उत्पत्ति अहंभाव से होती है,जबकि परमात्म प्राप्ति अहंभाव के मिटने पर होती है।
जग में हो आसक्ति तो,
कहलाती है भोग।
आसक्ति यदि ईश में,
तो कहलावै योग ।। 851 ।।
व्याख्या :-संसार के पदार्थों के प्रति जुडऩा अथवा उनके आकर्षण में लिप्त रहना-भोग कहलाता है, जबकि परमपिता परमात्मा से जुडऩा योग कहलाता है।
तत्वधान हो जाए तो,
हो पापों का नाश।
यह तो अति पवित्र हैं,
ईश और भी खास ।। 852 ।।
व्याख्या :-हमेशा याद रखो, परमात्मा प्राप्ति का अधिकार और अवसर केवल भगवान ने मनुष्य को ही प्रदान किया है, किसी अन्य प्राणी को नही। यह पवित्रता तत्वधान के उत्पन्न होने पर आती है, जो पापों को ऐसे नष्ट कर देती है जैसे प्रकाश अंधकार को नष्ट कर देता है। संसार में तत्वधान के समान कोई पवित्र नही है, किंतु परमपिता परमात्मा तत्वधान से भी अधिक पवित्र है।
ऊंचा नीचा पहाड़ हो,
और टेढ़ी हो राह।
दूर रहो अवसाद से,
पूरी होगी चाह ।। 853।।
व्याख्या : हमारे ऋषि मुनियों ने पर्वत की उपत्यका (गोदी) में बैठकर तप किया था। इसके पीछे जो मूक प्रेरणा है अथवा संदेश है, वह यह है कि ‘हे मनुष्य! जिस प्रकार पर्वत के शिखर पर पहुंचने के लिए कभी ऊपर जाना पड़ता है, कभी नीचे आना पड़ता है, सघन वनों से घिरी घुमावकर घाटियों में से गुजरना पड़ता है तब जाकर पर्वत के शिखर पर पहुंचा जाता है, ठीक इसी प्रकार यह जीवन की डगर है। जीवन के उतार के चढ़ावों को देखकर कभी हिम्मत नही हारनी चाहिए। मन को कभी अवसाद (Depression) से मत भरो। विषम परिस्थितियों में भी जो अपना होंसला बुलंद रखते हैं, वे एक दिन अवश्य अपने अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त करते हैं।
मैं कौन संसार क्या,
क्या बंधन क्या मोक्ष।
बिरला जाने ब्रह्मा को,
जो प्रकृति परोक्ष ।। 854 ।।
व्याख्या :-मैं कौन हूं? संसार क्या है? बंधन क्या है? मोक्ष क्या है? वह परमतत्व क्या है? इस प्रकार की जिज्ञासाएं बिरले लोगों के हृदय में उत्पन्न होती हैं, सामान्य लोगों के हृदय में नही।
माण्डूक्योपनिषद का वचन-”शरीर के प्रपंच के पीछे के ‘जीवात्मा’ ही सार वस्तु है, संसार के प्रपंच के पीछे अर्थात-प्रकृति के पीछे ‘ब्रह्मा’ ही सार वस्तु है। जीवात्मा तथा ब्रह्मा ही आत्मतत्व है, उसे ही जानना चाहिए।
संशय पैदा हो सदा,
जब हो अधूरा ज्ञान।
इसी अधूरे ज्ञान को,
कहते हैं अज्ञान ।। 855।।
ध्यान रहे अज्ञान का अर्थ ज्ञान का अभाव नही है। अधूरे ज्ञान को पूरा ज्ञान मान लेना ही अज्ञान है। जैसे-मनुष्य माया को असत मानकर भी असत से विमुख नही होता यही तो अज्ञान है।
क्रमश: