डॉ. ओमप्रकाश पाहुजा
लईया, मुजफ्फरगढ़, पाकिस्तान
बंटवारे के समय मैं छह साल का था। गांव में एक अज्ञात भय व्याप्त था। शाम होते ही वह दरवाजा बंद कर दिया जाता था। मुझे याद है, हमारे घर की छत पर बड़े- बड़े कड़ाहों में तेल गरम करने की व्यवस्था की गई थी, ताकि मुसलमान अगर घर पर हमला करेंगे तो दरवाजे को तोड़ने में उन्हें काफी समय लगेगा, इतने में यह तेल और तेजाब उनके ऊपर डालकर उनको भगाने का काम करेंगे।
मेरे बड़े भाईसाहब संघ की शाखा में जाया करते थे। एक दिन उनके पीछे-पीछे मैं भी संघ स्थान चला गया और शाखा में पूरे समय रहा। आनंद आया तो अगले दिन से यह क्रम जारी रहा। खैर, विभाजन के समय हालात बहुत खराब हो गए तो जैसे- तैसे हम अपने घर का कुछ सामान साथ लेकर वहां से चले।
लईया से ट्रेन ली और परिवार के साथ पानीपत आ गए। मैं मंडी से भुट्टे लाता और सड़क किनारे बेचता था, ताकि शाम को कुछ पैसे मिल जाएं। एक घटना याद आती है जब पानीपत के राहत शिविर में जवाहर लाल नेहरू गए थे। उनके साथ इंदिरा गांधी भी थीं। वे लोगों को समझा रहे थे कि शांति बनाएं रखें, समय के साथ सब कुछ ठीक हो जाएगा। लेकिन जो भी उनके शांति प्रवचन सुन रहा था, उसके हृदय में खून खौल उठता था।
इसका जवाब लोगों ने तब दिया जब नेहरू जी शिविर से लौट रहे थे। एक बुजुर्ग ने इंदिरा गांधी का हाथ पकड़कर खींच दिया तो नेहरू ने उसे थप्पड़ मार दिया। तब उसी बुजुर्ग ने कहा कि ‘ये बेटी मेरी पोती के बराबर की है। लेकिन मेरा जरा सा हाथ लग गया तो तुम्हारा खून खौल उठा, हम लोगों ने तो अपना सब कुछ खोया है, शर्म नहीं आती हमें शांति का पाठ पढ़ाते हुए।’ खैर, समय बीता और मैं दिल्ली आ गया।