प्रगतिशील लेखक संघ की पहली बैठक (10 अप्रैल 1936 ई.) को संबोधित करते हुए मुंशी प्रेमचंद ने कहा था :-
‘‘हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा, जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौंदर्य का सार हो। सृजन की आत्मा को जीवन की सच्चाईयों का प्रकाश हो, जो सबमें गति, संघर्ष और बेचैनी उत्पन्न करे, सुलाए नही, क्योंकि अधिक सोना मृत्यु का लक्षण है। मैं साहित्य के प्रगतिशील नामकरण से सहमत नही हूं, क्योंकि साहित्य में प्रगतिशीलता स्वत: रहती है।’’
प्रेमचंद का यह कथन इतिहास पर भी यथावत लागू होता है। इतिहास को पढ़ते-पढ़ते यदि नींद आ जाए या पाठक के मन मस्तिष्क में निराशा छा जाए, तो वह इतिहास इतिहास नही होता। इतिहास वही होता है, जो हमें सोने ना दे। हमारी धममियों में प्रवाहित रक्त को ठंडा न पडऩे दे इतिहास का विकृतीकरण करते-करते उसे ‘गांधी बाबा’ की अहिंसा में जिस प्रकार रंगा गया है और इतिहास के पुरातन-सनातन-अधुनातन स्वरूप के साथ उस अहिंसा को किस प्रकार आरोपित किया गया है, उसे पढ़ते-पढ़ते हमारे युवा ऊंघ रहे हैं, और उन्हें निराशा ने घेर रखा है। अत: इतिहास को उसका उसका सत्यस्वरूप प्रदान किया जाना आवश्यक है।
हिंदुओं को अपना इतिहास स्मरण था। ‘संस्कृति और संक्रमण’ के लेखक शाहिद रहीम ने ‘स्वतंत्र भारत की स्वरूप परिकल्पना’ विषय पर प्रकाश डालते हुए पृष्ठ 105-106 पर लिखा है :-‘उन्हें (हिंदुओं को)’ ज्ञात था कि अपने ही देश में वे 1192 ई. से 1857 ई. तक मुस्लिम शासकों के अधीन रहे। अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक अस्मिता बचाने के लिए उन्होंने गत 665 वर्ष की अवधि में धरती का कौन सा अत्याचार है जो नही झेला? तकरीबन डेढ़ लाख हिंदू किश्तों में गुलाम बनाकर तुर्की और बुखारा ले जाए गये। 165000 हिंदुओं ने अपने प्राणों की आहुति दी (बहुत न्यून आंकड़े हैं) लेकिन धर्मांतरण स्वीकार नही किया। अंतत: गुलाम बन गये और देश की दौलत देश के बाहर जाते हुए चुपचाप देखते रहे। घटनात्मक आंकड़ों के अनुसार हीरे, मणिक, मोती, और पुखराज सहित स्वर्ण मुद्राओं की नौ हजार गागरियों में से तीन हजार गागरियां मुसलमान ले गये, छह हजार गागरियों में से 90 प्रतिशत अंग्रेज ले गये, शेष आज भी पुरातत्व के खंडहरों में दफन हंै।’’
इतनी स्पष्ट स्वीकारोक्ति मुस्लिम शासन के विषय में शाहिद साहब ने की है, जिसे पढक़र लगता है कि जो हिंदू स्वतंत्रता के समय इतना संघर्ष कर रहा था, वह गुलामी के कथित काल में भी सो नही रहा था, अपितु जागा हुआ था और अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के अपने दायित्व के प्रति पूर्णत: सजग था। वह आगे लिखते हैं : ‘‘1318 ईं से 1643 ई. तक 327 वर्षों की लंबी अवधि में हिन्दुओं ने अपने धर्म और अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए अपने ईश्वर से अखण्ड प्रार्थना की। सोते-जागते, खाते-पीते, घूमते-फिरते, हंसते-गाते केवल एक प्रार्थना-जिसे यूरोपीय निवासियों ने ‘भक्ति आंदोलन’ कहा। जबकि भक्ति आंदोलन इतिहास में तीन शताब्दियों का ऐसा कालखण्ड है, जिसमें एक देश की तमाम जनता ने हिंदू धर्म, संस्कृति की व्यावहारिकता के जीवित रखने के लिए कई पीढिय़ों तक केवल एक समय का भोजन किया, पत्थरों को बिस्तर बनाया, छालेदार पांवों से दूर दराज के गांवों तक भ्रमण किया, परंतु पूजा पाठ, यज्ञ-अनुष्ठान, भक्ति-कीत्र्तन, तथा व्रत-उपासना की पारंपरिक श्रंखला नही टूटने दी और उन्हें यकीनन इसका दुख भी था कि गजनवी, गौरी गियासुद्दीन खिलजी तुगलक लोदी तथा मुगलों ने उनसे जिंदा रहने के अधिकार तक छीन लिये थे। वह नही भूले थे कि ऊंची कुर्बानियों से हासिल की गयी सांस्कृतिक आजादी और खुदा की दी हुई जिंदगी पर मुगल सम्राट औरंगजेब ने खुदा से एक कदम आगे बढक़र ‘जजिया’ (जीवन कर) लगा दिया था,-‘‘अगर जिंदा रहना है, तो हर महीने उसकी कीमत अदा करो, वरना खुद को मौत के हवाले कर दो, अगर निर्धन हो तो गुलाम बन जाओ, क्षमा का प्रावधान नही है।’’
लेखक का कथन है कि इतिहास के द्वारा हिंदू-आत्माओं पर मुसलमानों द्वारा ठोंकी गयी ‘जजिया’ की कील का दर्द जन्म जन्मांतर तक जिंदा रहेगा। अलाउद्दीन खिलजी से औरंगजेब तक जिस किसी बादशाह ने हिंदुओं पर जजिया लगाया उसने खुद को इस्लाम से खारिज कर लिया।
फीरोज तुगलक के गुलामों की संख्या और अत्याचार
डा. शाहिद रहीम साहब ने गुलामों की जो संख्या ऊपर दी है, उसको हमने अति न्यून माना है। इसका प्रमाण है कि अकेले फीरोज तुगलक के पास ही 1,80,000 दास थे, जिनका संबंध राजकीय संस्थाओं से था। उनमें से चालीस हजार दासों को शाही परिवार की तथा राजमहल की देखभाल के लिए रखा गया था।
(संदर्भ : ‘तुगलककालीन भारत’ पृष्ठ 195, लेखक डा. शाहिद अहमद)
तुगलक काल में दासों को प्राप्त करने के लिए काफिरों (हिंदुओं) के क्षेत्रों पर डाके डालने की परंपरा भी विकसित हो गयी थी। इसमें कुछ मुटठी भर मुस्लिम एकत्र होते थे और वे काफिरों के क्षेत्रों पर हमला कर वहां से दासों को प्राप्त कर उन्हें बांट लेते थे। डा. शाहिद अहमद उपरोक्त पुस्तक में ही हमें बताते हैं कि युद्घ (डाके) में जीते गये इन कैदियों को बलात् इस्लाम धर्म स्वीकार कराया जाता था और तब इन्हें दास बना दिया जाता था। प्रांतीय गर्वनरों और अमीरों को यह आदेश दिया गया था कि दायित्व अथवा वार्षिक कर शुल्क के रूप में अधिक से अधिक रूप में भेज सकते हैं। सुल्तान ने दासों से अवांछित निष्ठा व सेवा की मांग की। यद्यपि दासों को उदार भत्ते प्रदान किये जाते थे, किंतु उनमें से अधिकतर ने अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता की हानि की लागत पर अपने आप से समझौता नही किया और ना ही शाही परिवार अथवा राज्य में अपनी भक्ति भावना को विकसित होने दिया। उन्होंने आजीवन सुल्तान (फीरोज तुगलक) की सेवा की, किंतु उसकी मृत्यु के पश्चात उन्होंने अपने प्रतिशोध की भावना से शाही परिवार के सदस्यों से कसर निकाली।
सुल्तान ने राजकुमारों के सर कलम करवा दिये तथा उनके शरीर को दरबार के मुख्य द्वार पर लटका दिया गया।
दोआब में तुगलक द्वारा कर वृद्घि
गंगा यमुना के मध्य का क्षेत्र दोआब कहलाता है। इस क्षेत्र में प्राचीन काल से ही संपन्नता और समृद्घि का सागर ठाठे मारता रहा है। इसलिए मुस्लिम काल में इस क्षेत्र की संपन्नता हर किसी सुल्तान को आंखों में कांटे की भांति चुभती रही। वैसे भी संपन्न क्षेत्र में स्वतंत्रता आंदोलन भी सबसे अधिक चलने की संभावना होती है। क्योंकि वहां की स्वतंत्रता प्रेमी जनता में स्वाभाविक रूप से राष्ट्रचेतना का तत्व सर्वाधिक प्रबलता से मिलता है। दोआब का इतिहास ‘जागते हुए लोगों’ का इतिहास रहा है। इसीलिए यहां सबसे अधिक दमनचक्र मुस्लिम काल में विभिन्न समयों पर चलाये गये हैं।
मौहम्मद बिन तुगलक ने इस क्षेत्र की स्वतंत्रता प्रेमी जनता को ‘पाठ पढ़ाने’ के लिए यहां कर वृद्घि की घोषणा की। यह कर वृद्घि सीधे-सीधे जजिया कर लगाना था। जिसे बदायूंनी ने यह कहकर स्वीकार किया है कि सुल्तान उस प्रदेश के विद्रोहियों को दंडित करना चाहता था। इसका अभिप्राय है कि इस क्षेत्र में चल रहा स्वतंत्रता आंदोलन सुल्तान की आंखों की किरकिरी बन चुका था और वह इस क्षेत्र के लोगों को इतना आतंकित कर देना चाहता था कि वे भविष्य में किसी प्रकार के आंदोलन का विचार भी न कर सके।
सुल्तान के इस कृत्य को कई इतिहासकारों ने प्रजा के लिए किये जाने वाले अच्छे कार्यों के लिए धन संग्रह करने का एक माध्यम मानकर क्षम्य मानने का प्रयास किया है। परंतु ऐसे लोगों ने मुस्लिम सुल्तानों के इस प्रकार के कृत्यों को जितना ही धर्म निरपेक्ष सिद्घ करने का प्रयास किया है, उतना ही हमारा इतिहास वर्तमान की समस्याओं का समाधान देने में असफल रहा है, और लोगों को ‘नींद दिलाने वाली पुस्तक’ सिद्घ हुआ है। इतिहास की ‘मचलन’ को मसलने का प्रयास उचित नही कहा जा सकता। जहां पीड़ा, हो वहां हाथ रखना ही चाहिए जिससे कि समुचित उपचार किया जा सके। यदि पीड़ा का हरण हो गया तो उसी उपचार को किसी आज की समस्या पर प्रयोग करना चाहिए। हमें विश्वास है कि तब इतिहास उसका भी समाधान देगा।
दोआब में कर वृद्घि के सुल्तान मौहम्मद बिन तुगलक के निर्णय पर यहिया का लिखना है कि सुल्तान ने प्रजा पर ‘गृह’ व ‘चरागाह कर’ भी लगाया। इसके लिए मवेशियों को दाग लगाया गया। प्रजा के घरों की गणना की गयी, खेतों की नाप करायी गयी और उसके अनुसार आदेश दिया गया। (तारीखे-मुबारकशाही)
कर संग्रह का भारतीय आदर्श
भारत की प्राचीन शासन प्रणाली में कर संग्रह की बड़ी सुंदर और प्रजाहितचिंतक व्यवस्था थी। उसमें प्रजा की पीड़ा का ध्यान रखा जाता था कि कहीं करों की व्यवस्था इतनी कठोर न हो जाए कि प्रजा मारे कष्ट के कराह उठे। राजा की कठोरता जनता की स्वतंत्रता का हनन करने वाली मानी जाती थी, और इसीलिए उसे त्याज्य माना जाता था। महाभारत शांति पर्व में राजा के लिए कहा गया है :-
यथाहि गर्भिणी हित्वा स्वं प्रिय मनसोअनुगम्।
गर्भस्यहित साधते तथा राजाव्य संशयम्।।
अर्थात ‘‘राजा को गर्भिणी के समान वर्तना चाहिए। जिस प्रकार गर्भिणी अपना हित त्यागकर गर्भ की रक्षा करती है, (माता अपने गर्भस्थ शिशु के अनुकूल अपना आहार-विहार निश्चित कर लेती है, और अपनी इच्छाओं को स्वयं ही अपने शिशु के कल्याण के दृष्टिगत अनुशासित कर लेती है) उसी प्रकार राजा को अपना हित त्यागकर सदा प्रजा के हित का ही ध्यान रखना चाहिए।
मनुस्मृति में हमें बताया गया है कि राजा को अपनी प्रजा पर कर निर्धारण करने में किस प्रकार की सावधानी अपनानी चाहिए? मनु कहते हैं :-
यथाद्वारित निर्दाता कक्षं धान्यं च रक्षति।
तथा रक्षेन्नृपो राष्ट्र दृन्याच्च परिपंथिना।।
अर्थात-‘‘जैसे धान से चावल निकालने वाला छिलका को अलग कर चावलों की रक्षा करता है, चावलों को टूटने नही देता, वैसे ही राजा रिश्वतखोरों, अन्याय कारियों, चोर बाजारी करने वालों, डाकुओं, चोरों, बलात्कारियों को मारे तथा शेष प्रजा की रक्षा करे।’’
मनु का मत था कि राजा को वस्तुओं के क्रय विक्रय, आयात-निर्यात, लागत-लाभ आदि को ध्यान में रखते हुए थोड़ी-थोड़ी मात्रा में बिना हानि पहुंचाये ही प्रजा से कर लेना चाहिए। मनु का मत है कि व्यापारी के लाभांश का बीस प्रतिशत कर राजा को लेना चाहिए। भीष्म (शांति पर्व 71/9-23, 76/5-9) का मत है कि प्रजा की आय का छठा भाग कर के रूप में लिया जाए, जिसका आधा भाग प्रजा की रक्षा एवं विकास कार्यों पर, आधा भाग कोषागार में जमा कर दिया जाता था।
उद्योगपर्व (महा. 34/17-18) में कहा गया है कि राजा को उतना ही कर निर्धारित करना चाहिए जितने को प्रजा हल्का समझे और जिसे देकर भी प्रसन्नता का अनुभव करे।’’
करों के माध्यम से शिक्षण संस्थाएं संचालित करना प्रजा के ज्ञान विज्ञान में श्रीवृद्घि करने के लिए आवश्यक होता है। प्रजाजनों में नैतिकता और मानवता का संचार करने के लिए भी ज्ञान विज्ञान का प्रचार-प्रसार आवश्यक है। अत: करों से प्राप्त आय का बड़ा भाग इसी क्षेत्र पर व्यय करना उत्तम होता है।
यजुर्वेद (22/22) का आ ब्रहमन ब्राह्मणों…वाला प्रसिद्घ मंत्र हमें बताता है कि राष्ट्र की समृद्घि के लिए राजा को क्या-क्या करना चाहिए? सूक्ष्मता से अवलोकन करें तो यह मंत्र राजधर्म की उद्घोषणा करता है। जिसकी व्याख्या करते हुए स्वामी वेदानंद तीर्थ जी अपनी पुस्तक ‘स्वाध्याय संदोह’ में लिखते हैं :-‘‘कोई राष्ट्र समृद्घ नही हो सकता, जिसमें ब्राह्मण न हों, ब्रह्मवेत्ता न हों, सकल विद्याओं की शिक्षा देने वाले महाचार्य न हों। वह राष्ट्र तो अज्ञानान्धकार में फंसकर अपना स्वातंत्रय नष्ट कर बैठेगा, जिसमें सकल कला कलाप के आलाप करने वाले महाविद्वान न हों। अत: राष्ट्रहित चिंतकों (राजा, आदि) का यह प्रथम कत्र्तव्य है कि वे (उचित कर निर्धारण के माध्यम से) यत्न करके अपने राष्ट्र में बड़े बड़े प्रामाणिक विद्वानों को बसायें, जिससे कि विद्या की वृद्घि तथा अविद्या का नाश सदा होता रहे। नित्य नये-नये आविष्कारों से राष्ट्र की श्रीवृद्घि होती रहे। राष्ट्र-रक्षा के लिए बुद्घिबल के साथ-साथ बाहुबल (सैन्य बल) की आवश्यकता होती है। ….ब्राह्मणों के साथ-साथ राजा योद्घाओं का भी आंकलन करे। शत्रु को कंपा देने वाले (आधुनिकतम शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित) महारथी और शूरवीर हों। देश में यातायात के समस्त साधन हों….।’’
जनता ने दी चुनौती
जिस देश की शासन व्यवस्था में कर संग्रह को इतनी सावधानी से लागू किया जाता था और पुनश्च उस कर निर्धारण का भी अंतिम उद्देश्य प्रजाहित चिंतन ही होता था, उसमें राजा (सुल्तान) का इतना क्रूर हो जाना कि जजिया आदि के माध्यम से जनता का रक्त चूसने की व्यवस्था कर दी जाए तो उस व्यवस्था को चुनौती देना देश की स्वतंत्रता प्रेमी जनता ने देश काल, परिस्थिति के अनुसार आवश्यक और न्यायोचित माना। वैसे भी शासन की कठोरता कभी भी प्रजा को राजभक्त न बनाकर विद्रोही ही बनाती हैं। जैसे एक कठोर पिता की संतान समय आने पर अपनी स्वतंत्रता के लिए विद्रोह कर बैठती है, वैसे ही एक कठोर शासक की कठोरता भी शासन के प्रति प्रजा में विद्रोही भावों का सृजन करती है।
जिस समय दोआब में मौहम्मद बिन तुगलक ने कर वृद्घि की योजना क्रियान्वित की उस समय वहां की परिस्थितियां अनुकूल नही थीं, जनता पहले से ही दुर्भिक्ष जैसी स्थिति का सामना कर रही थी। परंतु विदेशी शासन का उद्देश्य प्रजाहित देखना नही था, अपितु प्रजा को और भी कष्टों में डालना था। उसका उद्देश्य जनहित के कार्यों पर व्यय करना भी नही था, अपितु बढ़े हुए कर से प्राप्त धन हो अपना स्वयं की, अपनी सेना के अधिकारियों की और मंत्रियों आदि की सुख सुविधाओं पर व्यय करना था, या समय आने पर भारतीयों को अपने सैन्यबल के अत्याचारों से पददलित करना उसका उद्देश्य था। ऐसे में प्रजा और राजा के मध्य उचित समन्वय स्थापित होना कठिन था।
जनता ने उठा लिया स्वतंत्रता का झण्डा
युग-युगों से स्वतंत्रता और स्वराज्य की उपासिका और आराधिका रही आर्य हिंदू प्रजा के लिए अंतत: ऐसी परिस्थितियां कब तक सहन करने योग्य रह सकती थीं? चारों ओर प्रजा में असंतोष की ज्वाला धधकती जा रही थी। ‘क्रांति-क्रांति’ का शोर ‘शांति: शांति:’ का जाप करने वाले हिंदू वीरों की वाणी में झलकने लगा था, विचारों में क्रांति धधक रही थी, मन में क्रांति के अंगारे सुलग रहे थे तो कृति में क्रांति आने में कब तक प्रतीक्षा कराती?
‘सल्तनतकाल में हिंदू प्रतिरोध’ के लेखक लिखते हैं कि-‘‘परिणामस्वरूप दोआब की जनता ने विद्रोह कर दिया। उन्होंने अपने पशुओं को घरों से बाहर निकाल दिया एवं खलिहानों में आग लगाकर जंगलों की ओर भाग निकले। इस प्रकार वहां की जनता द्वारा असहयोग किये जाने के कारण कृषि की कमी तथा प्रजा का विनाश हो गया। दोआब से अनाज पहुंच पाने के कारण राजधानी सहित सर्वत्र स्थानों पर अनाज की कमी हो गयी, तथा दुर्भिक्ष पड़ गया।’’
इस विषय में बरनी लिखता है कि-‘‘दूर-दूर की विलायत की प्रजा को जब दोआब की प्रजा के विनाश का समाचार मिला तो उसने भी भय के कारण विद्रोह कर दिया और जंगलों में भाग गये।’’
बरनी देश के अन्य लोगों को भय के कारण विद्रोही होने की बात कहता है। वस्तुत: यह भय नही था। इसे हम कहेंगे कि देश के अन्य क्षेत्रों की जनता ने अपने उन स्वतंत्रता सैनानी भाईयों के समर्थन में आंदोलन किया जो दोआब में सुल्तान के दमनचक्र के विरूद्घ स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे थे। समर्थन को ‘भय’ का नाम देना स्वतंत्रता आंदोलन को कम करके आंकना होता है। और बरनी जैसे लेखक का उद्देश्य भी यही है।
सुल्तान चिढ़ गया और उग्र हो उठा
दोआब की प्रजा के स्वतंत्रता आंदोलन की सूचना पाकर सुल्तान मौहम्मद बिन तुगलक की क्रोधाग्नि भडक़ उठी। जब कामना किसी भी सांसारिक भौतिक अवरोध से बाधित हुआ करती है तो क्रोध का आना स्वाभाविक होता है। सुल्तान ने दोआब में भविष्य में किसी भी प्रकार के स्वतंत्रता आंदोलनों की रीढ़ तोडऩे के लिए जो कर वृद्घि की थी, जब उसने देखा कि वह रीढ़ तोडऩे में तो सहायिका नही हुई, इसके विपरीत भीड़ जोडऩे में सहायिका अवश्य हो गयी है, तो उसे अत्यंत क्रोध आया। उसने क्रोधावेश में अपने शिकदारों एवं फौजदारों को आदेश दिया कि वे दोआब के विद्रोहियों को पूर्णत: विनष्ट कर दें।
जब शिकदारों और फौजदारों ने दोआब में आकर भारत के इन स्वतंत्रता सैनानी किसानों का दमन करना आरंभ किया तो चारों ओर ‘त्राहि-त्राहि’ मच गयी। क्रूरता पूर्ण अत्याचारों का खुला नाच होने लगा। बहुत से किसान अत्याचारों की भेंट चढ़ गये। बहुतों को अंधा बना दिया गया, जो बचे वे जंगलों की ओर भाग गये। आपातकाल में भारतीय स्वतंत्रता सैनानियों को जंगलों ने कितनी ही बार शरण दी, वैसे भी भारतीय लोग प्राचीन काल से ही प्रकृति प्रेमी रहे हैं। ये लोग जंगली (मूर्ख) नही थे, अपितु जंगलों से प्रेम करने वाले (महाबुद्घिमान) थे जिसे संसार आज समझ रहा है, उसे भारतीयों के जंगली होने के व्यंग्य के रूप में बहुत देर तक कहता तो रहा पर उसका अर्थ नही समझ पाया।
हमने भी अपने ‘जंगलियों’ के दुखों, कष्टों तथा दुर्गम जंगलों में निवास करने वाले हिंसक वन्य जीवों से मिलने वाली उनकी चुनौतियों को कभी समझने का प्रयास नही किया कि कैसे जंगलों में जाकर अपनी स्वतंत्रता को और भी संकटों में डालना पड़ता है? परंतु फिर भी हमारे महान पूर्वजों ने अपनी स्वतंत्रता के लिए कष्ट तो सहे पर अपना धर्म नही छोड़ा।
बरनी का कहना है कि इन विद्रोहों को देखते हुए सुल्तान बरन प्रदेश (बुलंदशहर, गौतमबुद्घ नगर, गाजियाबाद का क्षेत्र) की ओर गया और विद्रोहियों को कठोर दण्ड देकर समस्त भू-भागों को नष्ट कर दिया। कुछ काल उपरांत सुल्तान ने पुन: चढ़ाई की और कन्नौज से दुलमऊ (रायबरेली जिले की एक तहसील) तक के प्रदेशों को नष्ट कर विद्रोहियों को कठोर दण्ड दिया।
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि इस दोआब की कर वृद्घि में हिंदू मुस्लिम दोनों ही समान रूप से पीडि़त थे। इसलिए सुल्तान मौहम्मद बिन तुगलक के अत्याचारों का सामना भी दोनों को ही करना पड़ा था। दोआब के नये धर्मांतरित मुसलमान पूर्व में हिंदू ही थे। हमारा मानना है कि सुल्तान इन नये मुसलमानों को भी हिंदुओं की भांति ही उत्पीडऩ, दलन और दमन का पात्र मानता था, इसलिए उसके विरूद्घ स्वतंत्रता आंदोलन भी दोनों ने ही मिलकर चलाया। जिसे इतिहासकारों ने उस समय की अद्भुत और अद्वितीय घटना माना है। परंतु इसके पीछे के सत्य को खोजने की आवश्यकता है जिसके चलते यहां का हिंदू या मुसलमान तत्कालीन शासक की दृष्टि के केवल भारतीय था। इसलिए दोनों के मिलकर लडऩे की बात को यदि यूं कहें कि ‘भारतीयता संघर्षरत हो उठी’ तो अधिक उचित होगा।
हम उस भारतीयता का अभिनंदन करते हैं, जिसने स्वतंत्रता को हवा दी और तत्कालीन क्रूर नेतृत्व की क्रूरता का शूरता से सामना किया।