बिखरे मोती
जब रजोगुण सतोगुण पर शासन करने लगे:-
रज हावी हो सत्त्व पर ,
धर्म शिक्षिल हो जाय।
मन की शांति भंग हो,
बार-बार पछताय॥1872॥
आत्मा की जो ऊर्जा,
ग़र हरि से जुड़ जाय।
भव -बन्धन सारे कटें,
और मुक्ति मिल जाय॥1873॥
विशेष:- भगवान कृष्ण ने गीता के 12 अध्याय के दूसरे श्लोक में कहा है – हे पार्थ ! तू मुझ में प्रवेश हो जा अर्थात् तेरे अन्दर की ऊर्जा दिव्य ऊर्जा में प्रवेश कर जाये, तू विश्वरूप को देखते हुए मेरे स्वरूप में समा जा यानी जीवन्मुक्त हो जा।
मन निर्मल तब ही रहे ,
भाव – प्रदूषण रोक।
मैंले मन को जगत में,
घेरे रहते शोक॥1874॥
मन पिरो हरि ओ३म् में ,
हृदय होय उदार ।
भगवद् – भाव सें तरै,
मायावी संसार॥1875॥
माया – छाया एक सी ,
ये नहीं पकड़ी जाये ।
मनुवा होय अकाम तो ,
पीछे – पीछे आंय॥1876॥
बुद्धि से जग जीतना,
दिल से ले हरि – नाम I
जीवन एक संघर्ष है,
हिम्मत से ले काम॥1877॥
अज्ञान आवरण से ढका,
तेरा आत्मस्वरूप ।
तू अर्चि है ब्रह्म की,
जो ब्रह्माण्ड का भूप॥1878॥
जल फल तरू नक्षत्र ज्यों,
परहित करें हमेश।
ऐसे ही जीते सदा,
दुनियां में दरवेश॥1879॥
दुनियां में बेशक कोई,
व्यक्ति होय महान् ।
माता – पिता और गुरु से ,
लघु रहे इंसान॥1880॥
पत्नी कैसी हो :-
मनोरमा और मनोव्रता,
ऐसी होवै नार ।
अपने शील स्वभाव से,
भव से देय उतार॥1881॥
पति कैसा हो:-
पौरूषय विद्वान हो,
शीलवान गुणवान ।
ऐश्वर्य का हो धनी,
करें नहीं अभिमान॥1882॥
मैले मन से एक दिन ,
रिश्ते होवे चूर ।
जिनको अपना मानते ,
शनै: शनै: हो दूर॥1883॥
अन्तरसाक्षी देख रहा है,
मत करना तू पाप ।
कर्मों का फल वो देता है ,
जब करता इन्साफ ॥1884॥
सृष्टि – क्रम को देख रहा हूं ,
कोई आवै कोई जाय ।
सच पूछो तो मुझको लगती ,
दुनिया एक सराय॥1885॥
जो संयम से काम ले ,
मज़ा दे संसार ।
संयम बिन संसार में ,
मिलती सज़ा अपार॥1886॥
वायु हल्की-होयकै ,
सागर लेय उड़ाय।
ऐसे ही परमात्मा ,
जग को रहा चलाय॥1887॥
क्रमश: