जम्मू कश्मीर में राज्यपाल राज से कई दल हुये नंगे
जम्मू कश्मीर की बाहरवीं विधान सभा के चुनाव नतीजे २३ दिसम्बर को घोषित हो गये थे । यद्यपि चुनाव परिणामों में विभिन्न दलों को मिली सीटों से इतना अन्दाज़ा तो हो ही गया था कि सरकार उतनी आसानी से नहीं बनेगी जितनी आसानी से २३ दिसम्बर से पहले समझा जा रहा था । लेकिन इतनी देर हो जायेगी कि अन्ततः सत्ता राज्यपाल को ही संभालनी पड़ेगी , इसका अन्दाज़ा बहुत कम लोगों को था । वैसे कोई और राज्य होता तो वहाँ ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति शासन लागू होता । लेकिन जम्मू कश्मीर प्रान्त का अपना संविधान है , उसके प्रावधानों के अनुसार ऐसी स्थिति में राज्यपाल का शासन होता है । रिकार्ड के लिये ८ जनवरी को उमर अब्दुल्ला ने राज्यपाल को सूचित किया कि मेरे लिये केयर टेकर मुख्यमंत्री का पद संभालना भी अब मुश्किल है । राज्यपाल के पास स्वयं सत्ता सूत्र संभालने के सिवा कोई विकल्प ही नहीं था ।
राज्य विधान सभा में भाजपा को २५ सीटें मिलीं थीं और पी डी पी को २८ पर संतोष करना पड़ा था । लेकिन ८७ सदस्यीय विधान सभा में सरकार चलाने के लिये कम से कम ४४ सीटें होना लाज़िमी है । इसलिये इन दोनों पार्टियों में से कोई भी पार्टी अपने बलबूते सरकार बनाने में समर्थ नहीं थी । सोनिया कांग्रेस और नैशनल कान्फ्रेंस १२ और १५ सीटों पर सिमट गईं थीं । लेकिन राज्य में मोटे तौर पर एक ऐसा ध्रुवीकरण हो गया था , जिसका अर्थ था कि जम्मू संभाग ने भाजपा को जिता दिया है । कश्मीर संभाग ने पी डी पी को फ़तवा दिया है । नैशनल कान्फ्रेंस अपनी डूबती कुश्ती को किसी तरह बचाने में कामयाब हो गई है । लद्दाख में सोनिया कांग्रेस जीती है , चाहे उसे चार सीटें घाटी से व पाँच जम्मू से भी मिल गई हैं ।
इसका एक अर्थ यह भी था कि भारतीय जनता पार्टी को छोड़ कर , कश्मीर घाटी की सीटें तीनों क्षेत्रीय दलों में बँट गईं थीं । जम्मू कश्मीर में सोनिया कांग्रेस को भी प्रकारान्तर से क्षेत्रीय दल ही माना जाता है । वैसे भी एक लम्बे अरसे तक नैशनल कान्ग्रेस और कांग्रेस का आपस में विलय का काल भी रहा है । जम्मू संभाग ने आज तक इन्हीं तीनों क्षेत्रीय दलों को वोट दिये थे । भारतीय जनता पार्टी वहाँ से कभी भी दहाई की संख्या में सीटें नहीं जीत पाई । ग्याहरवीं विधान सभा में ही उसे एक बार सर्वाधिक ग्यारह सीटें मिल पाईं थीं । लेकिन इस बार मोदी लहर के चलते जम्मू संभाग के लोगों ने इन तीनों क्षेत्रीय दलों को अँगूठा दिखाते हुये भाजपा को २६ (यदि इसमें भाजपा विद्रोही पवन गुप्ता को भी शामिल कर लिया जाये) सीटों पर विजयी बना दिया ।
लेकिन इससे कश्मीर घाटी के सब क्षेत्रीय दलों में एकदम खलबली मच गई । जम्मू संभाग का कोई व्यक्ति मुख्यमंत्री न बन सके इसे लेकर रणनीति बनने लगी । सबसे पहले मोर्चा सोनिया कांग्रेस के ग़ुलाम नबी आज़ाद ने ही खोला । उन्होंने कहा कश्मीर घाटी के सभी दलों को एकत्रित हो जाना चाहिये । सोनिया कांग्रेस , पी डी पी और नैशनल कान्फ्रेंस तीनों को महागठबंधन बना कर सरकार पर क़ब्ज़ा करना चाहिये । उनके इस अभियान में घटिया साम्प्रदायिकता की दुर्गन्ध तो थी ही , साथ ही जम्मू संभाग का कोई व्यक्ति मुख्यमंत्री न बन पाये , इसकी साज़िश भी थी । ग़ुलाम नबी का कहना था कि इसमें पहल पी डी पी को करनी चाहिये क्योंकि वही सबसे बड़ी पार्टी है । यहाँ तक की नैशनल कान्फ्रेंस के उमर ने तो पी डी पी को बिना शर्त समर्थन दे दिया । हुर्रियत कान्फ्रेंस जो अब तक मतदान पेटी की फ़ोटो देख कर भी कश्मीर बंध का नारा दे देती थी , उसने भी सलाह देनी शुरु कर दी कि कश्मीर के क्षेत्रीय दलों को जनता के आदेश का सम्मान करते हुये आपसी महागठबन्धन बनाकर सरकार बनानी चाहिये । सबकी मुख्य चिन्ता यही थी कि जम्मू के जनादेश को सरकार बनाने की प्रक्रिया से बाहर रखते हुये , कश्मीर घाटी के क्षेत्रीय दलों को तुरन्त सरकार बना लेनी चाहिये । चुनाव परिणामों की जितने मर्ज़ी तरीक़ों से व्याख्या की जाये , लेकिन इस बात से सभी सहमत हैं कि प्रदेश की जनता ने नैशनल कान्फ्रेंस-सोनिया कांग्रेस की छह साल से चल रही सरकार के ख़िलाफ़ जनादेश दिया । नैशनल कान्फ्रेंस और पी डी पी , दोनों ही पारिवारिक दल हैं और दोनों ही घाटी में अपने वर्चस्व की लड़ाई लड़ते रहते हैं । लेकिन जम्मू के जनादेश को निष्फल करने के लिये उमर अब्दुल्ला ने ही सबसे पहले पी डी पी को बिना शर्त समर्थन देने की घोषणा की । मामला यहाँ तक बढ़ा कि आतंकी गुटों ने भी , जिनका न लोकतंत्र में विश्वास है और न ही हाल में हुये इन चुनावों में , वे भी यह संकेत देने से पीछे नहीं हटे कि कश्मीर घाटी के इन सभी क्षेत्रीय दलों को मिल कर सरकार बनानी चाहिये । यह अलग बात है कि कश्मीर घाटी की ये सभी पार्टियाँ विपरीत राजनैतिक हित होने के कारण जम्मू के जनादेश को ध्वस्त नहीं कर सकीं , लेकिन इन से इनकी साम्प्रदायिक मानसिकता अपने आप ही प्रकट हो जाती है । बहुत से लोगों को ताज्जुब होता है कि इस जम्मू विरोधी अभियान की शुरुआत सोनिया कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद ने की । लेकिन जो राजनैतिक विश्लेषक शुरु से जम्मू कश्मीर की राजनीति का पीछा कर रहे हैं , वे अच्छी तरह जानते हैं कि कांग्रेस की , शेख़ अब्दुल्ला के वक़्त से ही यह रणनीति रही है । आज़ाद ग़ुलाम नबी तो उस का मात्र अनुसरण कर रहे हैं ?
कश्मीर घाटी के क्षेत्रीय दल , नरम-गरम हुर्रियत कान्फ्रेंस के गुट, आतंकी समूहों के अप्पर और अंडर ग्राउंड प्रवक्ता सभी पिछले दो सप्ताह से इस बात को लेकर रुदाली रुदन कर रहे थे कि कितना बुरा वक्त आ गया है कि जम्मू कश्मीर में जम्मू के लोग भी मुख्यमंत्री बनने का ख़्वाब पाल रहे हैं । दरअसल इनका यह रुदाली रुदन ही जम्मू कश्मीर की असली समस्या है । इस बार प्रदेश की जनता ने जिस प्रकार भयमुक्त होकर अति उत्साह से भारी संख्या में मतदान किया उससे लगता था कि सरकार बनाने में कोई दिक़्क़त नहीं आयेगी । लोकतंत्र में विभिन्न दल साँझा कार्यक्रम के आधार पर सरकारें बनाते ही हैं । दुनिया भर में यह प्रचलन है । इस प्रकार की साँझा सरकारें बनाने का मतलब यह नहीं होता कि उन दलों ने अपने मूल मुद्दे छोड़ दिये हैं । इसका अर्थ केवल इतना ही होता है कि जनता ने उन्हें फ़िलहाल न्यूनतम साँझा कार्यक्रम लागू करने का ही जनादेश दिया है । स्पष्ट ही जम्मू कश्मीर में न्यूनतम साँझा कार्यक्रम के आधार पर सरकार बनाने का यह जनादेश पी डी पी और भारतीय जनता पार्टी को मिला है । लेकिन पी डी पी या तो सत्ता बाँटना नहीं चाहती या फिर वह अपने उन मुद्दों से पीछे नहीं हटना चाहती , जिनका वह केवल स्पष्ट बहुमत की स्थिति में ही , क्रियान्वयन कर सकती थी । पी डी पी के इसी अडियल रवैये ने राज्य को राज्यपाल के शासन की ओर धकेल दिया है । कश्मीर घाटी में पिछले दिनों आई बाढ़ से उत्पन्न स्थिति से और जम्मू में सीमा पर नित्य हो रहे पाकिस्तानी आक्रमण से उत्पन्न हुई स्थिति से निपटने के लिये राज्य में लोकप्रिय सरकार का गठन किया जाना अत्यन्त अनिवार्य था । लेकिन पी डी पी के दुराग्रह के कारण यह संभव न हो सका । लेकिन इससे एक लाभ जरुर हुआ कि कश्मीर घाटी में राजनीति करने वाले दलों की जहनियत नंगी हो गई ।