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संपादकीय

आतंकवाद को लेकर अनिर्णय में फंसा विश्व समुदाय

world-community-in-dialemma-for-terrorismपेरिस में एक ‘शार्ली अब्दो’ पत्रिका के कार्यालय में आतंकियों ने जिस प्रकार प्रैस की स्वतंत्रता पर आक्रमण कर अपनी क्रूरता का नंगा नाच किया है, उससे विश्व समाज पुन: कुछ सोचने पर बाध्य हो गया है। विगत 7 जनवरी को घटी इस घटना पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। भावनात्मक बातें भी हो रही हैं, और आतंकवाद से दृढ़ता से लडऩे के लिए लंगर लंगोट भी खींचे जा रहे हैं। पर पुन: वही भूल की जा रही है, कि लंगर लंगोट खींचने वाले ही यह नही जान पा रहे हैं (या जानकर अनजान बन रहे हैं) कि वे किसके विरूद्घ लंगर लंगोट खींच रहे हैं?

‘इस्लामिक विश्व’ और ‘ईसाई विश्व’ के बीच एक तीसरा विश्व (भारत और चीन जैसे देश) भी है। तनाव इस्लामिक और ईसाई विश्व में हैं, जो दोनों अपने-अपने वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। दोनों की सोच है कि विश्व पर मेरा ही शासन हो, और यह तब है जब विश्व को ये लोग पंथनिरपेक्षता (सैकुलरिज्म) का पाठ पढ़ाते नही थकते। इनके उपदेशों में सैकुलरिज्म है और कार्यशैली में साम्प्रदायिकता है, एक दूसरे को (और विशेषत: भारत जैसे देशों को) मिटा देने की घृणित सोच है। ये दूध देते हैं, लेकिन अफीम मिलाकर। हम उस हाथ को पकड़ते हैं, जो अफीम देता हुआ देखा जाता है, और उसे ही दोषी मान लेते हैं। आतंकवाद के विरूद्घ हमारी लड़ाई यहीं तक सीमित है। दूध में अफीम मिलाने वालों पर हम कोई कार्यवाही करना नही चाहते।

जब कोई आतंकी घटना कहीं होती है, तो देखा यह भी जाता है कि जो दूध में अफीम मिला रहे होते हैं, वह भी आतंकी घटना को कोसते हैं और आतंकवाद के विरूद्घ खड़े विश्व-समुदाय के साथ अपनी उपस्थिति अंकित कराके आंदोलन को भ्रमित कर देते हैं। इतना ही नही विश्व-समुदाय से यह भी कहलवा देते हैं कि ‘आतंकवाद का किसी मजहब से कोई संबंध नही है।’

‘‘जानते खूब थे हम जन्नत की हकीकत को मगर,
दिल को बहलाने के लिए गालिब ख्याल अच्छा है।’’

अब प्रश्न है कि क्या वैश्विक आतंकवाद की ज्वलंत समस्या का समाधान भी ‘दिल को बहलाने वाली बातों’ से हो पाना संभव है? मेरा मानना है कि कदापि नही। आतंकवाद के विरूद्घ जब हम ठोस कार्यवाही की बातें करते हैं तो उसका अर्थ ठोस ही होना चाहिए और यथार्थ के धरातल पर उन बिंदुओं को खोजना चाहिए जो आतंकवाद के लिए उत्तरदायी हैं। हम मानते हैं कि सभ्य समाज में व्यक्ति, संस्था या संप्रदाय को गाली देना अशोभनीय और दण्डनीय होता है, इसलिए कभी भी किसी व्यक्ति, संस्था या संप्रदाय को संपूर्णता में किसी कार्य या घटना के लिए दोषी नही माना जा सकता। परंतु इसके उपरांत भी बहुत कुछ विचारणीय है, और विचारणीय बातों में सबसे अधिक विचारणीय बात होती है कि व्यक्ति, संस्था या संप्रदाय की व्यक्तिगत मान्यताएं कैसी हैं? यदि उनमें कहीं दोष है और यदि वे ही कहीं मानवता को खंडित सोच से प्रभावित होकर देखती हैं या देखने के लिए बाध्य करती हैं तो उपचार के प्रारंभ का सबसे उपयुक्त स्थल वही माना जाना चाहिए। क्योंकि भावों की उज्ज्वलता या भावों का प्रदूषण ही बाहरी विश्व का निर्माण कराता है। हम संसारी इसीलिए होते हैं कि यह संसार हमारे भीतर समाहित है, हमारे भीतर का संसार जैसा है, वैसा ही हमें बाहरी संसार दीखता है। वैदिक मान्यता है कि इस भीतरी संसार को सुंदर और स्वस्थ बना लो, बाहरी संसार स्वयं सुंदर-स्वस्थ बन जाएगा।

आतंकवाद के विरूद्घ संघर्ष करने वाले लोगों के एजेंडा में कहीं पर भी यह सत्य स्वीकार करने का साहस नही झलकता है कि उन्होंने ‘संपूर्ण विश्व को एक परिवार’ मानने के लिए संपूर्ण मानवता के लिए एक समान शिक्षा और एक समान संस्कार देने का मन बना लिया है। क्योंकि कोई भी देश या वहां की सरकार अपने साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों से इतनी बहादुरी से टक्कर नही ले सकती। उन्हें ज्ञात है कि ऐसा निर्णय लेना कितना भयानक हो सकता है? क्योंकि व्यावहारिक सत्य यह भी है कि हर देश ‘कठमुल्लावाद’ या धार्मिक मठाधीशों के समानांतर सत्ता प्रतिष्ठानों से शासित होता है। ये लोग अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिए लोगों की भावनाओं से खेलते हैं और जो होना चाहिए या हो जाना चाहिए, उसे नही होने देते हैं। इसलिए आतंकवाद के विरूद्घ लड़ाई अपने आप में एक भ्रमित आंदोलन है। सचमुच एक ऐसा आंदोलन जिसे अपना न तो साध्य ज्ञात है और न ही साधन ज्ञात है। इसीलिए संयुक्त राष्ट्र जैसी विश्व संस्था में इस विषय पर आज तक खुलकर चर्चा नही होने पायी है।

‘द सऊदी गजट’ में डा. मुहम्मद तलाल अल राशिद ने जो लिखा था वह बहुत ही महत्वपूर्ण है, वह लिखते हैं :-

‘(वैश्विक स्तर पर जारी आतंकवाद) के राक्षसों को हमने ही पाला है। अकेले हम ही उसके लिए उत्तरदायी हैं। मैंने पहले भी यह कहा है और आगे भी कहता रहूंगा कि समस्या हम हैं, अमेरिका नही। न ही उत्तरी धु्रव पर रहने वाले पेंग्विन या अफगानिस्तान की गुफाओं में रहने वाले कोई अन्य। समस्या हम हैं और वे लोग भी जो इस सच्चाई को नही देख रहे।’

डा. तलाल का यह कथन आतंकवाद के विरूद्घ विश्व स्तर पर हमारे संघर्ष का सूत्रवाक्य बनना चाहिए। पर चूंकि इस पर शोर होगा और हर स्थल पर विवाद की स्थिति बनेगी, इसलिए इस सत्य को स्वीकार करके भी लीपापोती का मार्ग अपना लिया जाता है। तब लगता है कि देशों के राजनेता और सत्ताधीश किन्ही उन लोगों के प्रतिनिधि हैं जो विश्व में ‘भस्मासुर के संरक्षक’ हैं। ‘भोंपुओं और मुखौटो’ से कभी सत्य निकलकर नही आता है। क्योंकि भोंपू और मुखौटे किसी के खरीदे हुए ‘अधिवक्ता’ होते हैं। उन्हें वही बोलना होता है जो उन्हें समझाया जाता है और उसी बोलने से उन्हें अपने देश में सम्मान मिलता है। इसलिए आतंकवाद के विरूद्घ चाहे जितनी सेमिनारें हों या विश्व स्तर पर जितने बड़े-बड़े सम्मेलन आयोजित किये जाएं, वह सभी अर्थ के व्यर्थ विनाश के अतिरिक्त और कुछ नही बन पा रहे हैं।

पाकिस्तानी पत्रकार और विद्वान आरिफ जमाल ‘जिहाद’ विषय के ख्याति प्राप्ति शोधकर्ता हैं। उन्होंने पाकिस्तान और अफगानिस्तान में सक्रिय असंख्य जिहादियों का अध्ययन किया है। उनके अनुसार लगभग सभी मुजाहिदीन काफिर, जिहाद, जन्नत, ईनाम आदि का शब्दश: वही अर्थ लेते हैं, जो कुरान में वर्णित हैं। उन्होंने यहां तक पाया है कि काफिरों के विरूद्घ जिहाद में लग जाने के पीछे मुख्य प्रेरणा जन्नत में मिलने वाली 72 हूरें हैं। जमाल ने कश्मीर में जिहाद करने गये 600 से अधिक मुजाहिदों द्वारा की गयी वसीयतों को पढ़ा है। उनमें संभवत: एक भी वसीयत ऐसी नही थी जिसमें इस अपेक्षित इनाम का उल्लेख ना हो।

यदि जमाल साहब के अध्ययन को आतंकवाद के विरूद्घ आंदोलन का आधार बनाया जाये तो स्पष्ट हो जाता है कि आतंकवाद का किसी मजहब से भी संबंध है और उसकी मान्यताओं से उसका गहरा संबंध है। पर इसे हम विश्व स्तर पर जारी आतंकवाद विरोधी आंदोलन का एक प्रमुख मुद्दा नही बनने दे रहे हैं। हम गुड़ खा रहे हैं और गुलगुलों से परहेज कर रहे हैं। यह नीति हमारे लिए आत्मघाती सिद्घ हो रही है। हम नित्य प्रति मर रहे हैं और मरने के लिए एक अंधेरी सुरंग की ओर आंखें मूंदकर भागे जा रहे हैं। भस्मासुर हमारी स्थिति को देखकर हंस रहा है और हम यह नही समझ पा रहे हैं कि यह कौन और क्यों हंस रहा है?

‘किताब से बाहर’ वाले धर्मानुयायियों को घृणास्पद दृष्टि से देखना कितना और कितनी देर तक उचित माना जा सकता है?
अल्लामा इकबाल का यह ‘शिकवा’ भी आतंकवाद के विरूद्घ लड़ाई का एक आधार बनना चाहिए :-

तू ही कह दे कि उखाड़ा दरे खैबर किसने?
शहर कैसर का जो था किया सर किसने?
तोड़े मखलूके खुदावंद के पैकर किसने?
काटकर रख दिये कुफ्फार के लश्कर किसने?
किसने ठण्डा किया आतशकद-ए-ईरां को?
किसने फिर जिंदा किया तजकिरे यजदां को?
तुझको छोड़ा कि रसलू अरबी को छोड़ा?
बुतगरी पेशा किया? बुतशिकनी को छोड़ा?

अर्थात ‘‘खुदा के अरबी संदेशवाहक (रसूल मुहम्मद) के नाम पर पूरी दुनिया में दूसरे मजहबों और उसे मानने वालों को मिटाने के लिए मुसलमानों ने खूनी ताकत का प्रयोग किया। यूरोप में सीजर का शहर उजाड़ा। अफ्रीका एशिया में देवी देवताओं के असंख्य मंदिर मूर्तियां तोड़ीं। ईरान में पारसियों की पवित्र आग बुझा डाली। मंदिरों की टूटी मूर्तियों के सिर गिरकर, डरकर अल्लाह की सत्ता स्वीकारते थे। ‘किसकी हैबत से सनम सहमे हुए रहते थे?’ मुंह के बल गिरके हुवल्ला-हो-अहद करते थे।’’

देखना होगा कि आतंकवाद के विरूद्घ लड़ाई में हमने इकबाल के ‘शिकवा’ का कोई उत्तर खोजने का प्रयास किया है या नही। जिहाद को हम विश्व के लिए एक ऐसी अनिवार्यता मानने पर विवश होते दीखते हैं जो कि विश्व को एक मानवतावादी विश्व व्यवस्था में ढालने के लिए की जाने वाली सर्वकल्याणकारी विश्व व्यवस्था हो। इसके सच को समझने के लिए अयातुल्ला खुमैनी का यह कथन पर्याप्त है-‘‘जिहाद का अर्थ है सभी गैर मुस्लिमों की धरती को जीत लेना। वैसा युद्घ एक सच्ची इस्लामी सरकार बनने के बाद इस्लामी इमाम के निर्देश या उसके आदेश पर घोषित किया जा सकता है। तब सभी स्वस्थ पुरूषों का कत्र्तव्य होगा कि वे इस जीत के लिए लड़े जाने वाले युद्घ के स्वयं सेवक बनें, जिसका अंतिम लक्ष्य है इस धरती के एक छोर से दूसरे छोर तक कुरान के कानून को सत्ताधारी बनाना।’’

बहुत लोग निकलकर आयेंगे, जो ये कहेंगे कि हम खुमैनी के कथन से सहमत नही हैं तो उन्हें खुमैनी को ‘इस्लाम का शत्रु’ या ‘आतंकवाद का पोषक’ कहना चाहिए, पर वे ऐसी घोषणा भी नही करेेंगे।

बस हमारे आतंकवाद विरोधी आंदोलन का सत्य यही है कि हम स्वयं भ्रमित हैं और यह तय नही कर पा रहे हैं कि हमारा शत्रु कौन है और मित्र कौन है? यह संशय अभी हमारी समस्याओं को बढ़ाएगा ही और दुख के साथ कहना पड़ता है कि हम अभी शीघ्र ही समाधान के निकट नही पहुंचेगे, अभी तो हमें व्यवधानों का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए।

समाधान तो लगता है भारी विनाश के पश्चात ही हाथ लगे, और उस समय हम स्वयं आश्चर्य करेंगे कि समाधान यदि इतना निकट था, तो इसे पहले ही प्रकट हो जाना चाहिए था। समाधान तो सदा ही समस्या के साथ लगा होता है, पर वह दिखता तभी है जब वह भारी विनाश करा लेता है। पेरिस में घटी घटना में मृतक हुए मीडिया बंधुओं को विनम्र श्रद्घांजलि, और विश्व समुदाय से यह अपेक्षा कि वह समस्या का समाधान ढूंढ ले, हमें अनिश्चित भविष्य की भयावह सुरंग में न फंसाये अन्यथा भारी विनाश हो जाएगा?

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