ज्ञान बिना मुक्ति नही, और ज्ञान सा नही पुनीत
बिखरे मोती-भाग 82
गतांक से आगे….
राग रहित को होत है,
ब्रह्मवित का अहसास।
जैसे मिटते ही तिमिर के,
प्रकट होय प्रकाश ।। 856 ।।
ब्रह्मवित-ब्रह्म को जानने वाला उसमें अभिन्न भाव से स्थित होने वाला किंतु इस अवस्था को प्राप्त होकर भी अभिमान न करने वाला, सदा सौम्य बना रहने वाला।
व्याख्या : संसार से राग मिटते ही ब्रह्म में अभिन्न भाव से स्वत: स्थिति हो जाती है। जैसे अंधकार का नाश होना और प्रकाश का प्रकट होना दोनों एक साथ ही होते हैं, फिर भी पहले अंधकार का नाश होना और फिर प्रकाश होना माना जाता है। ऐसे ही राग का मिटना और ब्रह्म में स्थिति होना दोनों एक साथ होने पर भी पहले राग का नाश और फिर ब्रह्म में स्थिति मानी जाती है। ध्यान रहे राग सब दुखों , विकारों और क्लेशों की जड़ है। जैसे ही राग मिटता है वैसे ही आत्मा की परमात्मा से दूरी मिट जाती है और आत्मा परमात्मा में अवगाहन करने लगती है। मनुष्य की यही स्थिति ब्रह्मवित कहलाती है।
ज्ञान बिना मुक्ति नही,
और ज्ञान सा नही पुनीत।
ज्ञान-दीप जिनका जला,
जीवन को गये जीत ।। 857।।
व्याख्या : संसार में ज्ञान के बराबर कोई पवित्र नही है। ज्ञान के बिना मुक्ति भी नही होती है अर्थात बंधनों दुखों से छुटकारा नही मिलता है। जब अज्ञानता के कारण हम एक दूसरे को समझ नही पाते हैं, तो मित्र भी मित्र से जुदा हो जाता है। यहां तक कि खून के रिश्ते भी जुदा हो जाते हैं। अज्ञानता के कारण ही व्यक्ति व्यक्ति में अहंकार की दीवार खड़ी होती है। आत्मा भी अज्ञानता के कारण परमात्मा से विमुख होती है। जिनके जीवन में ज्ञान की शिखा प्रदीप्त होती है, वे स्वयं तो जीवन मुक्त होते ही हैं, साथ ही दूसरों का भी उद्घार करते हैं।
सेहत समय संबंध का,
जग में नही कोई मोल।
इन्हें संभालकै राखिये,
तेरा मोल होय अनमोल ।। 858।।
व्याख्या : कैसी विडंबना है, संसार में तीन वस्तुएं-सेहत, समय, संबंध (रिश्ते) जब चले जाते हैं, तब इनके महत्व का पता चलता है और जब ये तीनों वस्तुएं उपलब्ध होती हैं तो मनुष्य इनकी अवहेलना करता है। सूच पूछो तो संसार में इन तीनों का कोई मोल चुका नही सकता है। ये तो अनमोल हंै। जिन्होंने इन तीनों को संभालकर रखा है, चाहे व्यक्ति हो, समाज हो अथवा राष्ट्र हो, वे प्राय: दूसरों के लिए आदर्श बन जाते हैं। महापुरूषों का जीवन ऐसा ही तो होता है, जबकि सामान्य जन सेहत को दुव्र्यसनों में, समय को दुरूपयोग में और संबंधों को दुर्भाव में, कलह, क्लेश में व्यतीत करते हैं। फिर बाद में मंूड पकडक़र रोते हैं-मेरी पत्नी ऐसी अच्छी थी, मेरा भाई ऐसा अच्छा था, मेरा मित्र अथवा रिश्तेदार ऐसा अच्छा था, मेरे माता पिता इतने अच्छे थे, किंतु फिर पछतावा व्यर्थ होता है। अत: सेहत, समय, संबंध (रिश्तों) को सर्वदा संभालकर रखिये। फिर आपका महत्व भी अनमोल हो जाएगा।
यज्ञ दान तप तीर्थ व्रत,
कर श्रद्घा से निष्काम।
श्रद्घा रहित जो जन करै,
मिलै न शुभ परिणाम ।। 859 ।।
व्याख्या : मनुष्य को चाहिए कि वह यज्ञ, दान, तप तीर्थ व्रत इत्यादि शास्त्रविहित कर्मों को श्रद्घापूर्वक और निष्काम भाव से करे, तभी इनका लाभ होता है, अन्यथा अश्रद्घा से किये गये उपरोक्त शुभ कर्मों का कोई फल नही मिलता है। ये सब असत हो जाते हैं, व्यर्थ चले जाते हैं।
क्रमश: