‘राहुल गांधी : ‘मौज करन’ नही, ‘चलो चलिए देश नूं युद्घ करन’
बात 1912 की है। भारत का एक नवयुवक सैन्फ्रासिस्को पहुंचा। सैन्फ्रासिस्को में उन दिनों बाहर से आने वाले लोगों पर रोक-टोक होने लगी थी। इसलिए इमीग्रेशन अधिकारी ने उस भारतीय युवक से पूछा-‘‘तुम यहां क्यों आये हो?’’
युवक ने कहा-‘‘मैं पढऩे के लिए आया हूं।’’
अधिकारी ने पुन: पूछा-‘‘क्या भारतवर्ष में पढऩे की सुविधा नही है?’’
युवक ने उत्तर दिया-‘शिक्षा की तो व्यवस्था है, पर मैं उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहता हूं। इसलिए मैं कैलिफोर्निया के विश्वविद्यालय में पढऩे के लिए आया हूं।’’
अधिकारी का अगला प्रश्न था-‘‘पर यदि तुम्हें यहां उतरने न दिया जाए तो?’’
इस पर भारत के उस नवयुवक ने बड़ी गंभीरता से नपा-तुला उत्तर दिया-‘‘मैं समझूंगा कि बड़ा भारी अन्याय हो गया है। विद्यार्थियों के रास्ते में अड़चनें डालने से संसार की प्रगति रूक जाएगी, क्योंकि कौन जानता है कि मैं ही यहां शिक्षा पाकर संसार की भलाई का बड़ा भारी काम करने में समर्थ हो सकूं। उतरने की आज्ञा न मिलने से संसार उस भलाई से वंचित हो जाएगा।’’
अधिकारी भारतीय युवक के उत्तर से बहुत प्रसन्न और प्रभावित हुआ। उसने उसे अमेरिका में रहने की आज्ञा दे दी। यह युवक अन्य कोई नही, क्रांतिकारी करतार सिंह सराबा था। जो गाया करता था-
‘‘चलो चलिए देश नंू युद्घ करन,
एहो आखिरी वचन ते फरमान हो गये।’’
अर्थात ‘चलो स्वतंत्रता के युद्घ में सम्मिलित हो जाएं। अंतिम आदेश हो चुका है। अब हम लोगों को चलना चाहिए।’
अब प्रश्न है कि क्या आज स्वतंत्रता का युद्घ पूर्ण हो चुका है? उत्तर है-नही।….स्वतंत्रता के लिए चुनौतियां हर काल में उपस्थित रहती हैं। इसलिए स्वतंत्रता का ‘सुरासुर संग्राम’ भी शाश्वत है। वह निरंतर चलता रहता है। इस सनातन धर्मी सनातन राष्ट्र भारत की परंपराएं भी सनातन हैं। यह सुरासुर संग्राम को सनातन मानता है, इसलिए उससे लडऩे की तैयारियां भी अविराम -सनातन निरंतर जारी रहनी चाहिए।
कांग्रेस से सबसे बड़ी भूल क्या हुई? यही कि उसने सुरासुर संग्राम को भुला दिया। 15 अगस्त 1947 को उसने मान लिया कि युद्घ समाप्त हो गया है, चुनौतियां समाप्त हो गयी हैं, और अब हमें कोई संकट नही है। इसी क्षण से कांग्रेस में यथास्थितिवाद की महाव्याधि ने प्रवेश कर लिया। यथास्थितिवाद ने कांग्रेस को ‘गठिया रोग’ पैदा किया। जिससे इसके अंग प्रत्यंग में जकडऩ आरंभ हो गयी। सारा संगठन एक परिवार पर केन्द्रित होकर रह गया।
अब इसी संगठन का मुखिया राहुल गांधी को बनाने की मांग दिग्विजय सिंह ने की है। पूरा संगठन अपना मुखिया बदलना चाहता है। पर बनाना किसे चाहता है-यह अस्पष्ट है। गठिया की बीमारी के कारण सबका बोल नही निकल पा रहा है-यद्यपि दर्द सबको है। जिस युवक राहुल गांधी की ओर ताजपोशी का संकेत दिग्गी राजा ने किया है, वह तो ये जानता ही नही है कि ‘‘चलो चलिए देश नूं युद्घ करन’’ का अर्थ क्या है? देश के सामने चुनौतियां क्या हैं? क्योंकि वह तो उस परिवेश की उपज है जिसमें उसे समझाया गया है कि ‘सावरमती के संत’ ने हमें यह आजादी ‘बिना खडग़ और बिना ढाल’ ही दे दी थी। उसे इस तथ्य से आंखें मूंदने के लिए प्रेरित किया गया है कि तेरे पिता के नाना नेहरू ने 1962 में ‘बिना खडग़ और बिना ढाल’ के जब चीनी आक्रमण का सामना करना चाहा तो देश की क्या दुर्गति हुई थी?
राहुल गांधी की सोच रही है-‘‘चलो चलिए विदेश नूं मौज करन’’ इसीलिए वह उस टीम के मुखिया हैं जो युद्घ के लिए मैदान में उतरना नही चाहती और जिसे ‘ड्राइंग रूम’ की राजनीति में विश्वास है। इसलिए दिग्गी के बयान पर कांग्रेस में उत्साह उत्पन्न नही हो पाया है। कांग्रेसियों की चुप्पी बता रही है कि वे अपने नये कप्तान की कप्तानी पर भरोसा नही कर पा रहे हैं।
दूसरी ओर मोदी और राजनाथ सिंह जैसे जुझारूओं की टीम है। जिन्होंने ‘चलो चलिए देश नूं युद्घ करन’ की नीति को अपनी योजना का आधार बनाया और ‘मौज करन’ वालों को ‘युद्घ करन’ वालों ने सत्ताशीर्ष से घसीटकर नीचे फेंक दिया। इसके पश्चात भी वह रूके नही हैं, उनका युद्घ निरंतर जारी है। उन्होंने 26 मई 2014 को सत्ता प्राप्त करने के बाद 28 मई (स्वातंत्र्य वीर सावरकर-जयंती) को किसी दूसरी स्वतंत्रता की घोषणा नही की, अपितु दूसरी स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए उस दिन से संघर्ष करने की प्रतिज्ञा ली। उन्होंने प्रतिज्ञा ही नही ली, अपितु उस प्रतिज्ञा के अनुरूप कार्य भी करना आरंभ किया। फलस्वरूप विश्व मंचों पर भारत को सम्मान मिलना आरंभ हो गया, और देश की सीमाएं पहले से अधिक सुरक्षित हैं। जब नेतृत्व सजग होता है और अपने राष्ट्र के शत्रुओं के प्रति सदा जागरूक रहता है, तब वह ‘मौज करन’ और ‘युद्घ करन’ में से सदा ‘युद्घ करन’ को ही अपनाया है। दिखने में ही लग रहा है कि सारा देश आगे बढ़ रहा है।
कांग्रेस के राहुल गांधी को कांग्रेस को पुन: प्रतिष्ठित कराने के लिए अपनी और पार्टी की नीतियों में आमूल-चूल परिवर्तन लाना होगा। जिसके लिए पार्टी को मनोवैज्ञानिक रूप से उन्हें तैयार करना होगा। उनकी हार का कारण कांग्रेस के भीतर मर गया लोकतंत्र भी था। प्रणव मुखर्जी जैसे लोगों की आवाज यदि पहले से सुनी जाती तो कांग्रेस आज जिस स्थिति में खड़ी है वहां ना खड़ी होती।
अब पार्टी को सम्प्रदाय, पंथ निरपेक्षता, तुष्टिकरण, आरक्षण का वितण्डावाद, वोट बैंक की राजनीति, एक ही परिवार के प्रति वफादारी को नेता का सबसे बड़ा गुण मानने, जैसी घातक बीमारियों के लक्षण (परिभाषा) और उपचार स्पष्ट करने होंगे। यदि उसने इन बीमारियों के लक्षण और उपचार को चिह्नित कर लिया तो उसका उद्घार होना संभव है। वैसे सोनिया की बीमारी का एक प्रमुख कारण यह भी है कि वे लाख प्रयासों और करोड़ों-अरबों रूपया खर्च करने के उपरांत भी बेटे राहुल को ‘बेचारे पप्पू राहुल’ से ऊपर उठाकर राजनीति में स्थापित नही कर पाईं। वह जैसे बचपन में हाथ पांव मारता था, गिरता था, उठता था और धरती में लेट जाता था, वह आज भी वैसी ही हरकतें कर रहा है, वह मंचों पर अपनी बांहों को दिखाता नही है, अपितु अपने कुर्ते को ऐसे समेटता है जैसे ‘युद्घ’ करेगा।
‘मौज करन’ वालों से ‘युद्घ करन’ की बातें लोगों को अटपटी लगती है, इसलिए ‘बच्चे की बात’ पर लोग हंस पड़ते हैं। वे उसके ‘वोटर’ नही बनते। इस पर मां को पीड़ा होती है। मां भारती ने तो मोदी को अपना उत्तराधिकारी मानकर ‘पप्पू’ से मुक्ति पा ली पर मां सोनिया को मुक्ति कैसे मिलेगी? यह प्रश्न सोनिया को सबसे अधिक साल रहा है? क्या राहुल के पास इस प्रश्न का कोई उत्तर है?
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।