चिंतन
आलोचना ,समीक्षा और निंदा यह तीनों शब्द समानार्थक से प्रतीत होते हैं यद्यपि तीनों शब्दों में मौलिक अंतर है।
तीनों शब्दों का एक विस्तृत आयाम है।
एक शब्द होता है लोचन, उसी से जब ‘आ’ प्रत्यय हुआ तो वह आलोचन हो गया। लोचन का अर्थ है देखना। इसी से आलोचना शब्द की उत्पत्ति होती है।
जब एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को तटस्थ हो करके लोचन करता , देखता है उसके व्यक्तित्व को परखता है, उसका विवेचन करता है,परीक्षण करता है, उसके गुण -अवगुण को एक तुला पर तोलता है ,तब वह आलोचक है और उसका ऐसा वह कृत्य उस अवस्था में आलोचना बन जाता है।
इस दृष्टि व दृष्टिकोण से देखने वाला व्यक्ति जिस व्यक्ति की आलोचना कर रहा होता है उसके प्रति वह सुधारक भाव रखता है। उसके हृदय में कुछ ऐसे भाव होते हैं कि यदि यह व्यक्ति अमुक कार्य को कुछ इस प्रकार सुधारकर कर ले तो यह कार्य और बेहतर हो सकता है। इस प्रकार आलोचना एक श्रेष्ठतर परिणाम की ओर लेकर चलने के लिए प्रेरित करती है। जब हम किसी महान व्यक्तित्व की आलोचना अथवा समालोचना करते हैं तो उसका भी अर्थ यही होता है । यद्यपि समालोचना में ‘सम’ लग जाने का अभिप्राय सम्यक आलोचन है, अर्थात विचार पूर्वक उचित प्रकार से आलोचना करना । कहने का अभिप्राय है कि समालोचना में हम यह ध्यान रखें कि जिस व्यक्ति के बारे में हम कुछ लिख, पढ़ या बोल रहे हैं वह उसके गुण -अवगुण का सम्यक अवलोकन कराने में सहायक हो। ऐसा ना हो कि हम किसी की आलोचना को बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत कर दें और ऐसा भी ना हो कि उसके गुणों का अपेक्षा से अधिक बखान कर दें। विधिक रुप से पूर्णतया नपी तुली सारगर्भित बातों में जो जैसा है उसको वैसा ही प्रस्तुत करना समालोचना कहलाती है। आलोचना समालोचना को इसी दृष्टिकोण से समझना चाहिए।आलोचना में गुण और अवगुण दोनों शामिल होते हैं। यही आलोचना है।
अब आते हैं निंदा पर।
निंदा में व्यक्ति परछिद्रान्वेषी होता है। दूसरे व्यक्ति में छिद्र अर्थात दोष देखना उसका स्वभाव होता है।दूसरों के दोष देखते रहने में उसे आनंद की अनुभूति होती है। उसकी नकारात्मक मानसिकता उसे दूसरे के प्रति केवल नकारात्मक चिंतन प्रस्तुत करने के लिए प्रेरित करती है। ऐसा व्यक्ति दूसरों के अवगुणों को एकत्र करता रहता है और उसे दूसरों के सामने प्रस्तुत करता रहता है। निंदा का शाब्दिक अर्थ है पीठ पर बुराई करना, अर्थात केवल अवगुणों को प्रस्तुत कर गुणों पर कोई ध्यान नहीं देना।
परनिंदा में प्रारंभ में काफी आनंद मिलता है लेकिन बाद में निंदा करने से मन में अशांति व्याप्त होती है। निंदक स्वयं अपना जीवन दुःखों से भर लेते हैं। प्रत्येक मनुष्य का अपना अलग दृष्टिकोण एवं स्वभाव होता है। दूसरों के विषय में कोई अपनी कुछ भी धारणा बना सकने के लिए स्वतंत्र है। हर मनुष्य का अपनी जीभ पर अधिकार है और निंदा करने से किसी को रोकना संभव नहीं है। इसी जिहृवा से आप प्रवचन कर सकते हैं । इसी से आप अपशब्द निकाल सकते हैं। इसमें आपको स्वतंत्रता प्राप्त है।
लेकिन हमारे ऋषियों ने यह कहा है कि रसना और वासना को जीतकर जीवन को हम सफल बना सकते हैं। इसलिए जीभ या रसना जो कुछ भी चाहे सो बोल जाए, यह उचित नहीं है। उचित यही है कि रसना पर हमारा नियंत्रण हो। क्योंकि :–
रहिमन जिह्वा बावरी कह गई आल पताल।
आप कह भीतर घुसी जूते खाए कपाल ।।
नीति श्लोक है कि वृद्धावस्था खूबसूरती को नष्ट कर देती है, उम्मीद धैर्य को, मृत्यु प्राणों को, निंदा धर्मपूर्ण व्यवहार को, क्रोध आर्थिक उन्नति को, दुर्जनों की सेवा सज्जनता को, काम -भाव लाज -शर्म को तथा अहंकार सब कुछ नष्ट कर देता है।
यज्ञो दानमध्ययनं तपश्च चत्वार्येतान्यन्वेतानि सणि। दमः सत्यमार्जवमानृशंस्यं चत्वार्येतान्यनुयान्ति सन्तः ॥
निंदा करने वाले लोगों में कई बार वही लोग होते हैं जो आपके अपने परिजन या प्रियजन होते हैं । इनमें से कई लोग आपकी निंदा केवल इसलिए कर रहे होते हैं कि वह आपसे किसी न किसी क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा अथवा प्रतियोगिता में पीछे रह गए हैं । आपसे अपने आप को पिछड़ा हुआ देखकर उन्हें पचता नहीं। इसलिए वह आपके निंदक हो जाते हैं। समझो कि की ऐसा करके वे निंदकअपने पिछड़ेपन और आपकी उन्नति दोनों की बीच की दूरी की क्षतिपूर्ति वह निंदा करके कर रहे होते हैं । अतः निंदा करने वाला व्यक्ति स्वयं जब अपने आप को पिछड़ा हुआ अनुभव कर लेता है तब वह निंदा करके अपनी मन: संतुष्टि करता है।
निंदक निंदित किए जाने वाले व्यक्ति के प्रति यह कह कर के कि वह सफल नही हैं, हम सफल हैं ,कभी हमारे पूर्वज सफल रहे थे।हम तो ऐसे -ऐसे अमुक लोगों या पूर्वजों के उत्तराधिकारी हैं।
हम तो पीढ़ियों से धनाढ्य हैं।
ऐसे निंदा करने वाले निंदक लोग केवल अपने पूर्वजों की प्रशंसा करके और निन्दित किए जाने वाले व्यक्ति के पूर्वजों की निंदा करके अपने पिछड़ेपन का प्रमाण दे रहे होते हैं। क्योंकि कहा जाता है कि
हारा उसको जानिए जो करे पाछिली बात।
कहने का अभिप्राय है कि जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे की निंदा करते हुए अपने बारे में ऐसी डींगे मारने का काम करें कि मेरे दादा ऐसे थे ,मेरे परदादा ऐसे थे ,तो समझ जाइए कि वह आज कुछ भी नहीं है। क्योंकि जो आज से 50 या 100 साल पहली बात कर रहा है समझो कि उसका वर्तमान लुट चुका है, बर्बाद हो चुका है। वह बर्बादियों के आशियाने पर अपना तकिया लगाए बैठा है, लेकिन उसे नींद नहीं आ रही है। क्योंकि जिनके पास तकिया नहीं थे ,वह तकिया ही नहीं गद्दे सजाए बैठे हैं और यही वजह है कि उसे दूसरों के गद्दा व तकिए परेशान कर रहे हैं। जिससे उसका चित्त विकृत हो गया है और दूषित मानसिकता उसे धर्मयुक्त न बनाकर धर्म भ्रष्ट बना रही है। जिसके परिणाम स्वरुप वह दूसरे की निंदा पर उतर आया है।
ऐसे निंदक केवल अपने अतीत को स्मरण करके अपने मन की संतुष्टि कर रहे होते हैं।
मैं कहना चाहूंगा कि ऐसे हीं निंदक लोग हमेशा धन्यवाद के पात्र भी होते हैं । क्योंकि ऐसे निंदक निंदित किए जाने वाले व्यक्ति के चरित्र को और उज्जवल बनाने में सहायक होते हैं। इसका कारण है कि निंदक द्वारा निंदित व्यक्ति की जो निंदा की जाती है। ज्ञानी, समझदार और कुशल लोग वह होते हैं जो निंदा किए जाने वाले दुर्गुणों को अपने चरित्र से निकाल कर के उसको उज्जवल बना लेते हैं।
शायद इसीलिए कहा गया है कि —
निंदक नियरे राखिए आंगन कुटी छवाय ।
बिन साबुन पानी बिन, उज्ज्वल करे सुभाय।
इसलिए ऐसे निंदक सदैव अपने पास में रखने चाहिए उनके द्वारा की जाने वाली निंदा से अपने आपको ऊपर उठा कर सफलतम व्यक्ति होने का प्रयास किया जाना चाहिए। निंदक से जब भी मिलो तो उसके द्वारा की जाने वाली निंदा पर मौन रहो । समझो कि आपके सामने एक ऐसा व्यक्ति आ गया है जो आपका निंदक होकर आपका हित चिंतक है। ऐसा व्यक्ति आपका हित साधन कर रहा होता है।जो आपको इस बात के लिए प्रेरित करता है कि आप और सुधरिये और संवरिये और भी अधिक सुरेश श्रेष्ठतर बनिए। जब ऐसा व्यक्ति आपके सामने खड़ा हो तो यह भी ध्यान रखिए कि आज जिस पायदान पर यह निंदक खड़ा है कल यहां पर मैं भी खड़ा हो सकता हूं। इसलिए उसके प्रति ऐसे समय में भी विनम्र और सहायक बने रहिए। क्योंकि ईश्वर की व्यवस्था के अंतर्गत सब कुछ निर्धारित समय पर अपने आप होता रहता है। हर व्यक्ति को अपने किए का कर्म फल मिलता रहता है। इसलिए उसकी कर्म फल व्यवस्था में हम किसी प्रकार की बाधा उत्पन्न न करें और अपने आप हम विनम्र और सहयोगी भाव रखकर उसकी व्यवस्था में सहायक बने रहें। इससे कर्म व्यवस्था बनी रहती है और सब कुछ सामान्य चलता रहता है । यदि हम उस व्यक्ति से किसी प्रकार का प्रतिशोध लेने की भावना से काम करना आरंभ कर देंगे तो शीघ्र ही फिर उस प्रतिशोध का कर्मफल हमें उस अवस्था में ले जाएगा जहां आज वह व्यक्ति खड़ा है। इसलिए उस स्थिति से बचने के लिए ईश्वर की व्यवस्था में सहायक रहने का प्रयास कीजिये। घर आए व्यक्ति का तिरस्कार मत कीजिए चाहे वह निंदक ही क्यों ना हो।
निंदक हमेशा अपनी उर्जा का ह्रास करता है और वह स्वयं दीपक की तरह जलकर आपके जीवन को आलोकित करने का प्रयास करता है। निंदक नहीं वह आपके लिए दीपक भी है। जो स्वयं तो जल रहा है लेकिन आपके लिए सही मार्ग प्रशस्त किए जाने का कार्य भी तो कर रहा है। आपको सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा भी तो दे रहा है। निंदक की बुद्धि और वृद्धि अवरुद्ध हो जाती है इसलिए उसका क्षरण होता है।
यदि किसी निंदक के निंदा करने से आप उस पर क्रोधित हो जाते हैं, अथवा उसके विरुद्ध हो जाते हैं तो इससे निंदक को आनंद मिलता है। यही तो वह चाहता था यह आपके चरित्र में दोष आए और निंदक आपको उन दोषो के लिए निन्दित कर सके। जब वह निंदक आपकी निंदा करें तो आप मुरझा जाओ, जिसका तात्पर्य हुआ कि आपके खुशी और दुख का रिमोट कंट्रोल निंदक के पास पहुंच गया। समझदारी इसी में है कि आप रिमोट कंट्रोल निंदक के पास और उसके हाथ में ना दें। धैर्य और समझदारी का परिचय दें।
अवसर को अपने अनुकूल बनाएं क्योंकि अवसर बुद्धिमान के पक्ष में लड़ता है। ज्ञानी पुरुष को अपना जमीर सुरक्षित रखना चाहिए क्योंकि जिंदगी का आखिरी जेवर जमीर है। निंदक इसीलिए सहायक होता है।
क्योंकि वाणी ही नहीं, मनुष्य का चरित्र बोलता है ।मनुष्य के संस्कार बोलते हैं। मनुष्य की चेतना बोलती है। मनुष्य का मौन बोलता है।
आपको सफल व्यक्ति बनाने में सहयोग प्रदान कर रहा है। तो वास्तव में निंदक प्रेम एवं स्नेह का पात्र है ।
यह आपके अंदर विशेषता होनी चाहिए कि आप अपने निंदक से प्रेरणा लेकर के सन्मार्ग पर चलने का प्रयास करें।
निंदक के द्वारा की जाने वाली निंदा असत्य भी हो सकती है तो भी उसका खंडन नहीं करो बल्कि ऐसे संभावित अवगुणों से अपने व्यक्तित्व को बचा कर रखें ।इसका तात्पर्य है कि निंदक अपनी शक्ति को क्षीण कर के आपको सबल एवम चेतनित कर रहा है।
इसलिए निंदा करने वाले को साथ रखो।
निंदंतु नीति निपुणा
यदि वा इस्तु वंतु ।
अद्यैव वा मरण मस्तु युगांतरे वा ।
लक्ष्मी समाविष्टू गच्छतू वा यतेष्ठम ।
न्यायात पथा प्रविचलंती पदम न धीरा।
चाहे कोई कितने ही निंदा करें या चाहे कोई स्तुति करें चाहे ।आज ही मृत्यु आ जाए, चाहे युगो युगो बाद आए। लक्ष्मी आज ही चली जाए जैसी उसकी इच्छा हो उसके अनुसार रहे।
परंतु न्याय के पथ से धीर पुरुषों के कदम कभी विचलित नहीं हुआ करते हैं
यही धीर पुरुषों की पहचान है, धैर्यवान लोग हमेशा ऐसा ही करते हैं । यही धर्म के प्रथम एवं द्वितीय लक्षण भी धृति ,क्षमा हैं।
अर्थात धैर्य रखना और क्षमा करना।
इसलिए आप धर्म के दोनों लक्षणों को अपने व्यक्तित्व के अंदर और समाहित करें। धैर्य और संयम का ,सब्र का बांध न टूटने दे।
इस प्रकार हम देखते हैं कि उसी निंदक के कारण हम धर्म के प्रति प्रबृत्त हो गए। अर्थात धर्म के मार्ग पर आ गए और जो धर्म के मार्ग पर आ गए वही संसार मे सफल व्यक्ति है ।
तुलसी बुरा न मानिए जो मूरख कह जाए।
तुलसीदास जी कहते हैं कि मूर्ख की बात का , अथवा मूर्ख के कहे का बुरा नहीं मानना चाहिए
एक उदाहरण से इस बात को स्पष्ट करते हैं एक पागल कुत्ता यदि आपकी टांग में खा जाता है आप उस कुत्ते की टांग में नहीं खाएंगे। नहीं तो कुत्ते के साथ-साथ आप भी पागल कहीं जाएंगे। क्योंकि कुत्ता तो पागल था ही कि आपने भी पागलपना कर दिया। इसलिए कुत्ते की टांग नहीं खाया जाता इसलिए निंदक की निंदा नहीं की जाती। सहन करना चाहिए ।ऐसे दुर्गुणों को दूर करना चाहिए।
अब अंत में आते हैं समीक्षा पर। समीक्षा से अभिप्राय है ,सं और ईक्षा। अर्थात सम्यक ईक्षण करना। सम्यक का तात्पर्य है उचित प्रकार से।
ईक्षा शब्द से ही ईख बन गया है। ईख को कोल्हू में पेरा तो गुड़ चीनी आदि कई चीजें बन जाती हैं। इसका अभिप्राय है कि समीक्षा किसी को परीक्षा की कसौटी में कसकर निकालने की प्रक्रिया का नाम है। जिससे हम एक ऐसे ठोस निष्कर्ष या परिणाम पर पहुंचते हैं जिसका लाभ समाज को और संसार को मिल सकता है। यह सम्यक ईक्षण है। विचार पूर्वक ईक्षण करके निष्कर्ष पर पहुंचने की एक प्रक्रिया।
समीक्षा में भी समीक्षक अपना पूर्णतया तटस्थ भाव रखता है । वह समीक्षित व्यक्ति या वस्तु के गुणावगुण में से किधर को भी अपने आप को लुढ़काता नहीं है। ना तो वह किसी के गुणों से आकर्षित होकर अपनी समीक्षण शक्ति को भटकाता है और ना ही किसी अवगुण से प्रेरित होकर अपनी विचार शक्ति को भटकने देता है।
कुल मिलाकर अंत में हम अपने महान पूर्वजों की भाषा संबंधी विद्वता के प्रति नतमस्तक होते हैं। जिन्होंने प्रत्येक शब्द की गरिमा पूर्ण आयाम के साथ निश्चित की है। प्रत्येक शब्द की परिभाषा निश्चित की है और प्रत्येक शब्द कहां उपयुक्त हो सकता है उसको भी सही स्थान प्रदान किया है। आलोचना, निंदा, समीक्षा भी ऐसे ही शब्द हैं, जिन्हें हमें यथा स्थान प्रयुक्त करना चाहिए।
देवेंद्र सिंह आर्य एडवोकेट
चेयरमैन : उगता भारत