अथर्व वेद
बहुत से लोगों का ख्याल है कि , अथर्ववेद ऋगादि तीनों वेदों के बाद बना है । वे अपने इस विचार की पुष्टि में दो दलीलें पेश करते हैं । वे कहते हैं कि , एक तो अनेकों जगह त्रयीविद्या का ही नाम आता है और ऋग्वेद , यजुर्वेद , सामवेद ही के नाम कहे जाते हैं , दूसरे अथर्ववेद का नाम अथर्ववेद के सिवा अन्य तीनों वेदों में नहीं आता , इसलिए अथर्ववेद बाद का है । हम यहाँ इन दोनों दलीलों की आलोचना करके बतलाना चाहते हैं कि , ये दोनों दलीलें निस्सार हैं । जो लोग कहते हैं कि , त्रयीविद्या से अभिप्राय ऋक् , यजु और साम ही से है , वे गलती पर हैं । त्रयीविद्या का यह मतलब ही नहीं है । त्रयीविद्या का अभिप्राय तो ज्ञान , कर्म और उपासना है । ज्ञान , कर्म , उपासना ही का वर्णन चारों वेदों में आता है , इसलिए चारों वेद त्रयीविद्या कहलाते हैं , तीन ही नहीं । महाभारत में लिखा है कि –
त्रयीविद्यामवेक्षेत वेदे सूक्तमथाङ्गतः ।
ऋक्सामवर्णाक्षरता यजुषोऽथर्वणस्तथा । ( महाभारत शांति ० १३५ )
अर्थात् ऋग्यजुस्सा और अथर्व में ही त्रयीविद्या है । यहां त्रयीविद्या के साथ चारों वेदों के नाम दिये गये हैं , जिससे ज्ञात होता है कि , त्रयीविद्या से अभिप्राय चारों वेदों से ही है । दूसरी बात यह है कि चारों वेदों में तीन ही प्रकार के मंत्र हैं , इसलिए चारों वेदों का समावेश तीन में हो जाता है । सर्वानुक्रमरणी में लिखा है कि –
विनियोक्तव्यरूपश्च त्रिविधः सम्प्रदर्श्यते ।
ऋग्यजुः सामरूपेणमन्त्रो वेदचतुष्टये ||
अर्थात् विनियोग किये जाने वाले मन्त्र चारों वेदों में तीन ही प्रकार के हैं । मीमांसा में इन तीनों प्रकार के मन्त्रों का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि , जिन मन्त्रों के अर्थ के साथ पादव्यवस्था है वे ऋक् , जो गानेयोग्य हैं वे साम और इन दोनों के अतिरिक्त हैं वे सब यजु हैं । इससे ज्ञात होता है कि चारों वेदों को तीन ही विभागों में विभक्त करने का कारण मंत्रों के तीन प्रकार और उन मन्त्रों में प्रतिपादित तीन ( ज्ञान , कर्म , उपासना ) विषय ही हैं । रहा यह कि प्राचीन ग्रन्थों में तीन ही वेदों के नाम कहे गये हैं , यह गलत है । समस्त ब्राह्मण ग्रन्थों में तीनों वेदों के साथ अथर्ववेद का
भी वर्णन है । बृहदारण्यक उपनिषद् में लिखा है कि , ‘ अरे अस्य महतो भूतस्य निश्वसितमेतद् ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गिरसः ‘ | यहां स्पष्ट अथर्व का नाम आया है । इसी तरह ताण्ड्य महाब्राह्मण १२।६।१० में लिखा है कि ‘ भेषजं वा अथर्वणानि ‘ अर्थात् अथर्व में औौषधि विद्या का वर्णन है । इसके अतिरिक्त यज्ञों में जो ब्रह्मा होता है , वह अथर्व का ही विशेष ज्ञाता होता है । इसके लिए सर्वत्र ही लिखा हुआ है कि- ‘ अथर्वैर्वा ब्रह्मा ‘ अर्थात् ब्रह्मा अथर्व वेद वाला ही हो । इन प्रमाणों से विदित होता है कि , तीनों वेदों के साथ अथर्व की गणना समस्त प्राचीनतम साहित्य में है , इसलिए त्रयीविद्या अथवा कारणवश केवल ऋग्यजु : और साम का ही नाम आ जाने से यह न समझना चाहिये कि अथर्ववेद तीनों वेदों के बाद बना है । अथर्ववेद उतना ही प्राचीन है जितने प्राचीन ऋग्यजु : और साम हैं ।
.इस दलील के अतिरिक्त अथर्ववेद के नवीन होने में जो दूसरी दलील दी जाती है कि , अथर्ववेद का नाम ऋग्यजु : और साम में नहीं आता , वह भी निस्सार ही है । हम लिख आये हैं कि , अथर्व में भी उसी त्रयीविद्या का वर्णन है और उसी प्रकार के मन्त्रों का समावेश है , जिस प्रकार से अन्य तीनों वेदों में है , किन्तु अथर्ववेद के मन्त्र कुछ सरलार्थबोधक हैं इसलिए अथर्व का पृथक् अस्तित्व स्थिर किया गया है । मीमांसा में लिखा है कि ‘ निगदो वा चतुर्थं स्याद्धर्मविशेषात् ‘ अर्थात् विशेषता के कारण ही निगद नामक चतुर्थ वेद का अस्तित्व है । अथर्व का निगदत्व ही उसको तीनों से पृथक् किए हुए है । बाकी सब बातें चारों की समान ही है । यही कारण है कि अथर्व न तो तीनों से अलग ही हो सकता है , न तीनों में समा ही सकता है और न ऋग्यजुः और साम की तरह उसका कोई स्थिर नाम ही रक्खा जा सकता है ।
क्रमशः
देवेंद्र सिंह आर्य