जब किसी नई तकनीक से किसी राजनीतिज्ञ का पाला पड़ता है तो कुछ मुश्किल है उसे भी झेलनी पड़ती हैं। कुछ लोग उन मुश्किलों को स्वीकार कर लेते हैं तो कुछ स्वीकार नहीं करने का नाटक करते हैं। पर सच यह है कि विज्ञान और तकनीक के नए-नए प्रयोगों को समझना हर किसी के बस की बात नहीं है। यदि देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू की बात करें तो वह भी अपने पहले टीवी इंटरव्यू में बहुत कुछ अधिक मुश्किल में फंस गए थे।
यद्यपि आज की परिस्थितियां बहुत कुछ बदल चुकी हैं। आज हम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से इतना अधिक घुलमिल गए हैं कि उसके बिना जीवन चलना दूभर सा लगता है। सब कुछ हमारे हाथ में होकर रह गया है। प्रिंट मीडिया की कीमत निश्चित रूप से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के आने से कुछ कम हुई है। यद्यपि अखबार का अपने स्थान पर अभी भी महत्व है।
1953 की बात है जब देश की पहली संसद के चुनाव संपन्न हो चुके थे और संवैधानिक तरीके से स्वतंत्र भारत की पहली सरकार सत्ता में आ चुकी थी जिसके प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू थे। तब देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पहली बार टीवी पर उपस्थित हुए। उस समय उनसे टीवी साक्षात्कार लेने वाला प्रसिद्ध संस्थान बीबीसी था। इस प्रकार का टीवी इंटरव्यू अब से पहले पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कभी किसी को दिया नहीं था। इसलिए वह थोड़ी सी मुश्किल में फंसे हुए थे और उन्हें लग रहा था कि पता नहीं क्या हो जाएगा ? यह वास्तव में प्रेस कॉन्फ्रेंस थी। आधे घंटे के उस सवाल-जवाब के दौर में उन्होंने स्वीकार किया था कि वह पहली बार टेलीविजन इंटरव्यू की मुश्किल का सामना कर रहे हैं। उन्होंने यह भी माना था कि वह टीवी के बारे ज्यादा नहीं जानते हैं। पिछले दिनों जब बीबीसी के आर्काइव से यह ऐतिहासिक इंटरव्यू जारी किया गया तो कई नई बातें पता चलीं। महत्वपूर्ण बात यह थी कि यह नेहरू की टीवी पर पहली प्रेस कॉन्फ्रेंस थी। अपनी इस पहली टीवी कांफ्रेंस में पंडित नेहरू ने कुछ ऐसा भी कह दिया था जो उस समय उनके तो अनुकूल था, पर देश के लिए उसके घातक परिणाम निकले। नेहरू गांधी जी के शिष्य थे और जिस प्रकार गांधीजी अपने जिद्दीपन के कारण अपनी ही नीतियों पर अडिग रहने की वे बेतुकी कोशिश करते थे वही दुर्गुण नेहरू के भीतर भी था। ये दोनों ही नेता अपनी किसी नीति या दुर्गुण की समीक्षा करने के प्रति तनिक भी सजग नहीं रहते थे। उन्हें लगता था कि जो भी कुछ वह कर रहे हैं या जो भी उन्होंने सोच लिया है, वही ठीक है।
इस प्रेस कॉन्फ्रेंस में ऐंकर दर्शकों से नेहरू का परिचय कराते हैं और उन्हें एशिया का प्रमुख राजनेता कहकर संबोधित करते हैं। सवाल पूछने वाले पत्रकारों में न्यू स्टेट्समैन और नेशन के एडिटर किंग्सले मार्टिन, संडे टाइम्स के एडिटर एचवी हॉडसन और द इकनॉमिस्ट के फॉरेन एडिटर डोनाल्ड मैक्लाक्लन मौजूद थे। नेहरू दरअसल, एलिजाबेथ द्वितीय के राज्याभिषेक में लंदन गए थे। पहला सवाल उनसे यही पूछा जाता है कि आप कोरोनेशन में आए थे, वापस जाने पर भारत में आलोचना नहीं होगी? नेहरू जवाब देते हैं कि मेरे आने के समय भी आलोचना हुई थी और जब लौटकर जाऊंगा तब भी होगी। इसमें कोई संदेह नहीं है। लेकिन मुझे नहीं लगता कि यह ज्यादा होगी।
आंशिक रूप से इसलिए क्योंकि हम लंबे वक्त तक नफरत नहीं करते और प्रमुख रूप से उस बैकग्राउंड की वजह से जो बीते कई दशकों में मिस्टर गांधी (महात्मा गांधी) ने हमें दिया है।
अगला सवाल किया गया कि मिस्टर नेहरू, हम सब अच्छी तरह से समझते हैं कि भारत ने कॉमनवेल्थ के भीतर गणराज्य के रूप में रहने का फैसला क्यों किया। लेकिन सबसे खास बात यह कि हमारे अतीत के बावजूद अंग्रेजों को लेकर भारत में इतनी कम नाराजगी और नाखुशी क्यों है? हमें ऐसा लगता है कि भारत एक उदार देश है। क्या आप माफ करने की इस शानदार क्षमता और रवैये के बारे में समझाएंगे? नेहरू ने बड़े सधे हुए अंदाज में जवाब दिया, ‘मेरे हिसाब से आंशिक रूप से इसलिए क्योंकि हम लंबे वक्त तक नफरत नहीं करते। प्रमुख रूप से उस बैकग्राउंड की वजह से जो बीते कई दशकों में मिस्टर गांधी (महात्मा गांधी) ने हमें दिया है।’
नेहरू के इसी बयान पर हमें विचार करना चाहिए। यह एक अच्छी बात है और भारतीय संस्कृति के अनुकूल भी है कि किसी से अधिक देर तक वैर नहीं पढ़ना चाहिए। बीती ताहि बिसार दे आगे की सुध लेय – यह भी भारतीय सांस्कृतिक परंपरा का एक चिर परिचित संस्कार है। परंतु राष्ट्रीय संदर्भ में बहुत सी चीजों के अपवाद होते हैं। वहां पर आप कुछ चीजों को भुलाते हैं तो कुछ को बड़ी मजबूती के साथ याद रखने का प्रयास करते हैं। अंग्रेजों से वैर पालना उचित नहीं था, यह बात ठीक हो सकती है पर उन्होंने जितना कुछ इस देश में शासक रहते हुए किया था, वह सारा कुछ ठीक नहीं था। उनको माफ करना ठीक था पर उनके कुकृत्यों को भी माफ कर देना उचित नहीं था। उन्होंने देश की संस्कृति और देश के इतिहास के साथ जिस प्रकार छेड़छाड़ की थी उस को यथावत रख लेना उनके कुकृत्यों को भी माफ करने के समान था। उदारता दिखाने की अपनी सीमाएं हैं । नेहरू वर्तमान में जीने के अपने संकल्प को प्रकट करते हुए यह कह सकते थे कि आज हम एक स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक हैं ,अब हमारा अंग्रेजों से कोई वैर नहीं है। नेहरू उसी समय यह भी स्पष्ट कर देते कि अंग्रेजों ने हमारे देश के सांस्कृतिक मूल्यों और इतिहास के साथ जो छेड़छाड़ की है उसकी भरपाई हम करेंगे और उनकी संस्कृति को देश में विकसित नहीं होने देंगे। यदि अंग्रेजों की सोच और अंग्रेजों की संस्कृति भारत के अनुकूल होती तो अंग्रेजों को यहां से भगाने की ही आवश्यकता नहीं पड़ती। देश के जनमानस ने अंग्रेजों को यहां से भगाने का संकल्प ही इसलिए लिया था कि वह भारत की संस्कृति और धर्म का नाश करने की योजनाओं में सम्मिलित थे, देश को लूट रहे थे और देश के जनमानस को उत्पीड़ित और आतंकित करके अपना शासन चला रहे थे।
किसी को माफ करना अलग चीज है पर उसके काले कारनामों को माफ कर देना किसी सीमा तक उचित नहीं होता है व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में कई बार ऐसा चलता है पर राष्ट्रीय जीवन में ऐसा हर बार नहीं चलता। अंग्रेजों को माफ करके उनके नक्शे कदम पर शासन चलाना और उनकी संस्कृति को देश के लिए वरदान मान लेना नेहरू की भूल थी। उस पर भी अंग्रेजों को माफ करना देश के लिए बड़ा घातक सौदा साबित हुआ।
किसी को माफ करने की नीति तब अच्छी होती है जब दूसरा भी माफ करने की सोच रखता हो। समय और परिस्थिति के अनुसार यदि दूसरा व्यक्ति भी अपने आप में परिवर्तन लाने की सोच रहा है या ऐसे संकेत दे रहा है तो आपको अपने भीतर परिवर्तन लाने में देर नहीं करनी चाहिए। गांधी जी का हवाला देते हुए नेहरू जी अपने उपरोक्त इंटरव्यू में कह रहे थे कि गांधी ने हमको उदारता का पाठ पढ़ाया है। यह बहुत अच्छी बात है कि गांधी के उदारता के पाठ को नेहरू याद रखते थे, पर देश के संदर्भ में उन्हें ध्यान रखना चाहिए था कि उदारता अगले व्यक्ति को भी दिखानी चाहिए। यदि वह उदारता दिखा रहा है तो आप भी अपनी ओर से उदारता दिखाने में देर ना करें। अंग्रेजों ने नेहरू की उदारता की नीति को कमजोर समझते हुए कश्मीर पर कभी भी भारत का समर्थन नहीं किया। इसके उपरांत भी नेहरू ब्रिटेन को माफ कर के चलते रहे। इसी प्रकार देश को तोड़ने वाले लोगों को और उनके मानस पुत्रों को गांधी और नेहरू दोनों ने देश के भीतर माफ करके देख लिया, पर वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आए। इस प्रकार घरेलू और बाहरी दोनों मोर्चों पर गांधी और नेहरू की उदारता मुंह की खा गई।
कुछ भी हो नेहरू ने अपनी पहली टीवी कॉन्फ्रेंस में ही यह संकेत दे दिया था कि वह गलत राह पर हैं। दुर्भाग्य की बात यह थी कि वह अपनी इस गलत राह की समीक्षा करने को भी तैयार नहीं थे। वह अपने जीवन काल में कभी भी ब्रिटेन को अपने साथ नहीं लगा पाए। ब्रिटेन हमेशा पाकिस्तान के साथ खड़ा दीखता रहा । ना ही वह पाकिस्तान की मांग करने वाले लोगों के मानसपुत्रों को ही अपने साथ लगा पाए।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत