पुण्य प्रसून वाजपेयी
देश की सियासी राजनीति की प्रयोगशाला दिल्ली बन चुकी है। नरेन्द्र मोदी के खिलाफ जनता परिवार की सियासी एकजुटता को भी दिल्ली के राजनीतिक प्रयोग में अपनी जीत-हार दिखायी दे रही है। और मोदी के नाम पर हिन्दु राष्ट्रवाद और सांप्रदायिकता की राजनीति के उभार के भविष्य का फैसला भी दिल्ली चुनाव को माना जा रहा है। वामपंथी-समाजवादी आर्थिक चिंतन से लेकर राजनीतिक तौर पर करोड़ों मुसलमानों को वोट बैंक के दायरे के भविष्य की दशा-दिशा भी दिल्ली चुनाव को महत्वपूर्ण मान रही है और मोदी की अगुवाई में बदलते बीजेपी और संघ परिवार के विस्तार के भविष्य को भी दिल्ली चुनाव तले देखा जा रहा है। चूंकि मोदी का उभार पारंपरिक चुनावी राजनीति के टकराव से इतर नया है। संघ की राजनीतिक सक्रियता और बीजेपी के हर हाल में चुनावी जीत के सामने नतमस्तक होने की सोच नयी है। तो पहली बार दिल्ली एक
ऐसी चुनावी मंथन के दौर में पहुंचा है जहा से आगे की राजनीति 2014 के लोकसभा चुनाव में रचे गये इतिहास को विस्तार देगी या फिर रचे गये इतिहास को बदल देगी। राजनीति के इमानदार नियम कायदे बनाये अन्ना आंदोलन ने।
केजरीवाल ने राजनीतिक जमीन आंदोलन की इमानदारी को बनाया और उसी में सेंघ लगाकर बीजेपी ने अपनी की राजनीति को हाशिये पर ढकेल कर संकेत दे दिये की नये नियम चुनाव जीतने के है। चाहे संघ की पाठशाला से निकले नेताओं को किनारे किया जाये चाहे बीजेपी की धारा को मोड़ना पड़े। क्योंकि नयी सोच चुनाव जीतने के है, जिसके बाद हर परिभाषा खुद ब खुद सही हो जाती है। सवाल सिर्फ यह नहीं है कि दिल्ली के चुनाव कांग्रेस की पारंपरिक राजनीति से दूर है और जिस काग्रेस पर निशाना साधना 2014 में सबसे आसान रहा वह हालात 2015 के नहीं होंगे। सवाल यह है कि दिल्ली का चुनावी फैसला उन्हीं क्षत्रपो के सामने एसिड टेस्ट की तरह हो चला है जिन क्षत्रपों ने सत्ता का ताज कांग्रेस की सत्ता को उखाड़ कर पहना। नीतिश-लालू का सामना बिहार में बीजेपी से होना है। मुलायम को यूपी में मोदी ही चुनौती देंगे। नवीन पटनायक के सामने भी उडीसा में बीजेपी ही खड़ी हो रही है और बंगाल में ममता के सामने अब वामपंथियों की नहीं मोदी की सोच की चुनौती है। और दिल्ली का फैसला हर जगह मोदी के लिये लकीर खिंच सकता है या फिर केन्द्र में ही मोदी सरकार को समेटे रख सकता है। वजह भी यही है कि मोदी के खिलाफ एकजुट हुये जनता परिवार को समझ नहीं आ रहा है कि दिल्ली चुनाव में वह कैसे घुसपैठ करें। ममता को समझ नहीं रहा है कि वह दिल्ली में कैसे सफल रैली करें। नीतिश कुमार और ममता दोनो दिल्ली के मंच पर दस्तक देना चाहते है। अपने
बूते संभव नहीं है तो केजरीवाल के मंच पर साथ खड़ा होना चाहते हैं। लेकिन केजरीवाल इसके लिये तैयार नहीं है।
केजरीवाल को लगता है कि नरेन्द्र मोदी जिन्हें पराजित कर रहे है या जो मोदी से पराजित हो रहे हैं, उनके साथ खड़े होने का मतलब उस समूची राजनीति का घराशायी होना होगा जो भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं। जो ईमानदारी को महत्व देती है, जो नैतिक बल पर खड़ी है। संयोग एसा बना है कि दिल्ली चुनाव विरासत ढोते राजनीतिक दलों से मुक्त है । अनुभवी और कद्दावर राजनेताओं से मुक्त है। आजादी के बाद जिस संसदीय राजनीति को लेकर लोगो में गुस्सा जागा और अन्ना आंदोलन के दौर में नेताओं को सेवक कहकर खुले तौर पर पुकारा गया। संसद में राजा बने राजनेताओं की टोपियां सड़क पर उछाली गयी। उसी धारा की राजनीति दिल्ली चुनाव में आमने सामने आ खड़ी हुई है। ना किरण बेदी के लिये राजनीति कैरियर है ना केजरीवाल के लिये। दोनों अपने अपने दायरे में अडियल हैं, अख्खड है। दोनों में ही राजनीतिक लूट को लेकर हमेशा गुस्सा रहा है। दोनो ही एनजीओ के जरीये समाज को समझते हुये आंदोलन में कूदे और उसके बाद अपने अपने हालात की बंद गली को खोलने के लिये राजनीति के मैदान में चुनाव जीतने के लिये उतरे है। और सीएम के पद के दावेदार होकर सामाजिक हालातों को बदलने का सपना पाले है। दिल्ली चुनाव इसीलिये तमाम राजनीतिक दलों की राजनीति पर भारी है, क्योंकि किसी भी राजनीतिक दल की उम्र उसके नेता या उसकी सत्ता के दौरान किये गये कार्य दिल्ली चुनाव में मायने नहीं रख रहे है। लोकसभा चुनाव ही नहीं बल्कि बीते छह महीनों में चार राज्यों के विधानसभा चुनाव के दौरान जो धुरंधर सक्रिय थे वह सभी दिल्ली चुनाव के वक्त खोल ओढे हुये है।
इस कतार में सानिया गांधी भी है और रामलीला मैदान की रैली के बाद प्रधानमंत्री मोदी भी हो चले हैं। लेकिन नया सवाल यही है कि केजरीवाल हो या किरण बेदी क्या दोनो क्रोनी कैपटिलिज्म से टकरायेंगे। किरण बेदी सीएम बनी तो मोदी सरकार की आर्थिक नीतियां क्या उन्हें भी भायेगी। या फिर सत्ता पाने के बाद किरण बेदी बदल जायेगी या बीजेपी को बदल देगी। वहीं केजरीवाल जिस अंबानी-अडानी का नाम लेकर मोदी को घेरने से नहीं कतराते हैं, वह सत्ता में आये तो दिल्ली और केन्द्र के टकराव में जीत ताकत की होगी या नीतियों को जन से जोड़ने की नयी शुरुआत होगी। कारपोरेट के आसरे विकास के ढांचे के तो किरण बेदी भी खिलाफ रही है तो क्या दिल्ली का सीएम बन कर वह मोदी की नीतियों पर नकेल कस पायेगी जो संघ परिवार नहीं कर पा रहा है। और दबी जुबां में कभी स्वदेशी जागरण मंच को कभी भारतीय मजदूर संघ की आवाज सुनायी देती है। उसकी आवाज आने वाले वक्त तेज हो सकती है अगर चुनाव जीतने के पीछे ईमानदार विचारधारा साबित हो जाये। यानी सिर्फ चेहरा नहीं बल्कि नीतियो के आसरे भी मौजूदा राजनीति में चुनावी छौक लगाकर हालात बदले जा सकते है। यह लगता तो सपना ही है क्योंकि किरण बेदी चेहरा हो सकती है, चुनावी रणनीति का मजबूत खंभा हो सकती है। जीत के लिये ईमानदार मंत्र हो सकती है। लेकिन किरण बेदी बीजेपी की विचारधारा नहीं हो सकती। किरण बेदी सदा वतस्ले कहकर संघ की साखा में खड़ी दिखायी नही दे सकती। यानी चुनावी ज्ञान की चादर में केजरीवाल और किरण दोनों अभी भी अनाड़ी हैं। चाहे वह दिल्ली के खिलाड़ी हों। शायद इसलिये मीडिया, सोशल मीडिया,सड़क, सांसद,पूंजी, कारपोरेट, नुक्कड सभा, आंदोलन और सियासी तिकडम क्या कुछ नहीं है दिल्ली चुनाव में। रायसीना हिल्स की घड़कनें भी बढ़ी हुई हैं और संघ परिवार की सक्रियता तेज हो चली है तो 10 जनपथ के माथे पर भी शिकन है। नारे बदल रहे हैं। गठबंधन के तौर तरीके बदल रहे हैं। हर घेरे के सत्ताधारियों के संबंधों का खुला नजारा भी है और चुनावी राजनीति की जीत हार को ही विचारधारा की जीत हार बताने की कोशिश भी है। जाति, संप्रदाय और प्रांत पर टिकी राजनीति को खारिज कर पूंजी के आसरे विकास की अनूठी लकीर खिंचने की कोशिश भी है और स्वराज शब्द को सड़क, पानी , बिजली सरीखे न्यूनतम इन्फ्रास्ट्रक्चर तले परिभाषित करने की कोशिश भी है। प्रधानमंत्री का दिल्ली का सपना झुग्गियों को पक्के मकान में बदलना है और विधायक के संघर्ष का नारा भ्रष्ट नीतियों से मुश्किल होती गरीबों की जिन्दगी में रोजगार, स्कूल, अस्पताल लाना है। किसी के लिये सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा महिलाओं की सुरक्षा है तो कोई पीने के पानी और चौबीस घंटे बिजली देने में ही अटका है। यानी जिस दिल्ली को विकास की चकाचौंध में समेटने की कोशिश दुनिया के सबसे बडे दुकानदार और खरीदारों के सामने विदेशी पूंजी लाने के लिये की जा रही है उसी दिल्ली में सरकार उसी की बनेगी जो न्यूतम का जुगाड़ करा दें। यानी जिस दिल्ली के चुनावी फैसले को देश की राजनीति की प्रयोगशाला के तौर पर देखा जा है उसी दिल्ली के चुनावी मुद्दे बताते हैं कि सियासत गुमराह करने के हथियार से इतर कुछ भी नहीं। लेकिन पहली बार गुमराह करने वाले अगर पीछे की कतार में है और आगे चेहरा भरोसे का लगाया गया है तो इंतजार कीजिये भरोसा जनसंघर्ष का है या सियासी गुमराह का नया हथियार भरोसे का मुखौटा है।