‘आर्याभिविनय’ नामक अपनी पुस्तक के दूसरे अध्याय के पहले मंत्र में स्वामी दयानंद जी महाराज लिखते हैं कि – “हे प्रभु ! आप के अनुग्रह से हम सब लोग परस्पर प्रीतिमान, रक्षक, सहायक, परम पुरुषार्थी हों। एक दूसरे का दुख न देख सकें। स्वदेशस्थादि मनुष्यों को परस्पर अत्यंत निर्वैर, प्रीतिमान, पाखंडरहित करें।”
इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि स्वामी दयानंद जी महाराज देश कि शासन सत्ता संभाल रहे लोगों के साथ – साथ देश के नागरिकों के लिए भी कर्तव्य निर्धारित करते हैं। उनकी मान्यता थी कि देश के लोग परस्पर एक दूसरे के प्रति इतने अधिक संवेदनशील हों कि एक दूसरे के दुख को देख न सकें। वसुधैव कुटुंबकम की बात करने वाले तो बहुत हैं परंतु वसुधैव कुटुंबकम के पवित्र भाव को समझना बड़ा कठिन है। ऋषि दयानंद जी महाराज के इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि वह देश के निवासियों को परस्पर ऐसी संवेदनशीलता में बांध देना चाहते थे जहां परस्पर एक दूसरे के दुख दर्द में सब स्वाभाविक रूप से सम्मिलित हों। वास्तव में भारत में राष्ट्र की यही भावना प्राचीन काल से रही है। इसी से हमारे यहां समाज का निर्माण होता है और इसी से राष्ट्र और समाज की लघु इकाई परिवार का निर्माण होता है। परिवार को स्वामी जी महाराज राष्ट्र तक पहुंचा देना चाहते थे और राष्ट्र में भी वही पवित्र संस्कार देखना चाहते थे जो परिवार में होता है।
यदि महर्षि दयानंद देश के संविधान के निर्माण के समय रहे होते और उन्हें देश की संविधान सभा में स्थान दिया गया होता तो निश्चय ही वह संविधान के भीतर ऐसी व्यवस्था करवाते कि देश के सभी नागरिकों का यह कर्तव्य होगा कि वे परस्पर प्रीतिमान, रक्षक, सहायक, परम पुरुषार्थी हों। स्वामी दयानंद जी महाराज के इसी चिंतन से आज का एकाकी समाज हमें देखने को नहीं मिलता। वास्तव में समाज एकाकी कभी नहीं होता। समाज संवेदनशीलता और परस्पर सद्भाव के भाव से विकसित होने वाली एक अदृश्य अमूर्त संस्था है, जो हम सब का संरक्षण करती है। आज के संविधान में यद्यपि नागरिकों के मौलिक कर्तव्य दिए गए हैं परंतु उन मौलिक कर्तव्यों को लागू कराने के लिए तदनुरूप शिक्षा नीति नहीं अपनाई गई है और ना ही ऋषि जैसी विचारधारा को उन मौलिक कर्तव्यों में स्थान दिया गया है। यही कारण है कि देश के नागरिकों की स्थिति इस समय यह बन गई है कि वह देश व समाज के लिए अपने व्यस्त समय में से थोड़ा सा भी समय देने को तैयार नहीं है।
स्वामी दयानंद जी महाराज अपनी उपरोक्त पुस्तक के 31 वें मंत्र में यह भी लिखते हैं कि हे प्रभु , हे महाराजाधिराज परब्रह्मन ! अखंड चक्रवर्ती राज्य के लिए शौर्य, धैर्य, नीति, विनय, पराक्रम और बलादि उत्तम गुण युक्त कृपा से हम लोगों को यथावत पुष्ट कर। अन्य देशवासी राजा हमारे देश में कभी न हो और हम लोग पराधीन कभी ना हों। हे प्रभु ! हमें द्यावापृथ्वीभ्याम स्वर्ग अर्थात परमोत्कृष्ट मोक्ष सुख ( नि:श्रेयस ) तथा पृथ्वी आदि संसार सुख ( अभ्युदय ) इन दोनों के लिए समर्थ कर। अपनी कृपा दृष्टि से हमारे लिए विद्या, पुरुषार्थ, हाथी, घोड़े ,स्वर्ण, हीरा आदि रत्न उत्कृष्ट शासन, उत्तम पुरुष और प्रीति आदि पदार्थों को धारण कर। जिससे हम लोग किसी पदार्थ के बिना दुखी ना हों। हे सर्वाधिपते ! ब्राह्मण ( पूर्णविद्यादिसद्गुणयुक्त ) क्षत्र ( क्षत्रबुद्धि विद्या तथा शौर्य आदि गुणयुक्त विश ( अनेक विद्योद्यम ) बुद्धि, विद्या, धन और धान्य आदि वस्तु युक्त तथा शूद्र आदि भी सेवा गुणयुक्त यह सब स्वदेशभक्त, उत्तम, हमारे राज्य में हों अर्थात किसी भी बात के लिए हम विदेशों पर निर्भर न हों।”
राष्ट्र को उन्नत बनाने के लिए केवल किसी देश के प्रधानमंत्री या वहां की सरकार का पुरुषार्थ और उद्यम ही काम नहीं करता है, बल्कि जब जन जन की पुकार और जन जन की प्रार्थना ऐसी हो जाती है जैसी स्वामी दयानंद जी महाराज ने बताई है, तब कोई देश वास्तव में उन्नति कर सकता है। यदि देश में देश तोड़ने वाले या देश विरोधी लोगों के सपोले घूमते रहें तो देश उन्नति नहीं कर सकता। विशेष रूप से तब जब देश का जनमानस इन सपोलों के प्रति पूर्णतया उदासीन या असावधान हो जाए या यह मान ले कि इनका विनाश करना तो केवल सरकार का काम है। उत्तम राष्ट्र निर्माण के लिए आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको सरकार का एक अंग समझे।वह यह भी समझे कि वह देश में व्यवस्था बनाए रखने में सहायक होना चाहिए।
उन्नत और उत्तम राष्ट्र निर्माण के लिए स्वामी जी महाराज के उपरोक्त शब्द स्वर्णिम अक्षरों में लिखने योग्य हैं। एक-एक शब्द को स्वामी जी महाराज ने बड़ी सावधानी से रखा है। इन सारे शब्दों की गहराई को समझकर यदि इनके अनुसार राष्ट्र निर्माण के महान पुरुषार्थ में सारे राष्ट्रवासी लग जाएं तो भारत अति शीघ्र विश्व गुरु बन सकता है।
यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि देश की बागडोर जिन हाथों में सौंपी गई है, कई बार वही हाथ लोगों के खून से सने दिखाई देते हैं। आदमी के खून से हवन करने वाले लोग देश के सत्ता प्रतिष्ठानों पर जब जा बैठते हैं या देश के हितों के विरुद्ध कार्य करने वाले लोग जब हमारे आका बन जाते हैं तो स्थिति अत्यंत खतरनाक हो ही जाती है। स्वामी विद्यानंद सरस्वती जी महाराज ‘बागी दयानंद’ नामक पुस्तक के पृष्ठ संख्या 26 पर लिखते हैं कि श्रीमती सोनिया गांधी देश में ईसाई मिशनरियों को उनके काम में भरपूर संरक्षण व सहायता दे रही हैं। जिन्हे धर्म परिवर्तन के लिए विदेशों से प्रतिवर्ष 1400 करोड़ रुपए मिलते हैं। मिशनरियों की इन गतिविधियों के फलस्वरूप देश में हिंदू आबादी, जो आजादी के समय लगभग 80% थी अब 65% रह गई है। जबकि ईसाइयों की आबादी 1% से बढ़कर 3% और मुस्लिम आबादी 15% से बढ़कर 28% हो गई है।’
हमें यहां पर यह ध्यान रखना चाहिए कि यदि सोनिया गांधी इस देश की बहू बनकर ऐसे सब काम करती रही हैं तो इसके पीछे केवल उनका अपना सुनियोजित षड्यंत्र ही जिम्मेदार नहीं है , इसके लिए जिम्मेदार हम स्वयं भी हैं अर्थात देशवासी भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। हममें से कितने लोग ऐसे हैं जो वोट देने के बाद जिन लोगों को वोट दिया गया उनकी कार्य शैली की समीक्षा करने में रुचि रखते हैं या उन्हें आगामी आम चुनावों में सबक सिखाने के लिए कृत संकल्प होते हैं। तथाकथित विचारधाराओं के नाम पर राजनीतिक दल देश या राष्ट्र नाम की विचारधारा को धूमिल करते रहते हैं और हम उनकी संकीर्ण विचारधारा के साथ अपने आपको बांधकर देश ,धर्म व राष्ट्र के प्रति उदासीन होते जाते हैं। स्वाधीन भारत में हमारा स्वतंत्र चिंतन होना चाहिए था, पर हमने अपने चिंतन और विचार को भी किसी न किसी राजनीतिक दल के खूंटे से बांध दिया है।
हम एक दिन अपने वोट का प्रयोग करके फिर यह नहीं देखते कि देश किधर जा रहा है और क्यों जा रहा है ? विदेशों में बैठे भारत विरोधी षड्यंत्रकारी लोग भली प्रकार यह जानते हैं कि भारत देश के निवासियों के भीतर सबसे अधिक उदासीनता देखी जा सकती है। ये लोग वोट देकर फिर पीछे मुड़कर नहीं देखेंगे। यही कारण है कि ये विदेशी षड्यंत्रकारी सत्ता में बैठे लोगों के साथ मिलकर देश को लूटने तथा भारत और भारतीयता का अस्तित्व मिटाने के लिए अपनी योजना में लग जाते हैं। देश के बड़े बड़े अधिकारी और बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ इन विदेशी षड्यंत्रकारियों के शिकंजे में आराम से कसे जाते हैं। कई बार तो हमारे अधिकारी और राजनीतिज्ञ स्वयं ही अपने आप को उनके शिकंजे में कस जाने देते हैं। क्योंकि उन्हें पता है कि जनता देश के प्रति उदासीन होकर अब घरों में आराम कर रही है और उसने देश को लूटने का प्रमाण पत्र हमें दे दिया है। ऐसे राजनीतिज्ञ ही आज जेलों के भीतर जा रहे हैं या अपमानित जिंदगी जी रहे हैं।
वास्तव में इस प्रकार की स्थिति जब किसी देश की बनती है तो वह देश अपना अस्तित्व बचाने में सफल नहीं होता है। भारत को यदि विदेशी आक्रमणकारियों के समक्ष कहीं झुकना पड़ा है या देश के किसी न किसी भाग को पराधीन होते देखना पड़ा है तो उसके पीछे सोनिया गांधी जैसे ‘जयचंदों’ की एक बड़ी परंपरा है। इन ‘जयचंदों’ को देश के जनमानस की ओर से समर्थन मिलना तो और भी खतरनाक है। यदि कांग्रेस और उसकी नेता सोनिया गांधी को बड़ा समर्थन देश के भीतर मिल रहा है तो समझिए कि इस समर्थन के बदले में देश को तोड़ने की गहरी चाल फलीभूत होती जा रही है।
स्वामी दयानंद जी महाराज विभिन्न मत वाले लोगों को भी देश के लिए खतरनाक मानते थे। विशेष रुप से उनकी असहमति ऐसे लोगों के विरुद्ध बनती थी जो देश के गौरव पूर्ण इतिहास और गौरव पूर्ण सांस्कृतिक परंपराओं की खिल्ली उड़ाते थे और विदेशी आक्रमणकारी अंग्रेजों का गुणगान करते थे। ऐसे मत, पंथ, संप्रदाय देश के भीतर आज भी हैं जो देश में रहकर विदेशों का गुणगान करते हैं। वे देश की संस्कृति और धर्म को कोरा पाखंड मानते हैं, जबकि पाखंड पूर्ण विदेशी संस्कृति को देश के लिए वरदान मानते हैं।
स्वामी दयानंद जी महाराज ने ब्रह्मसमाज की आलोचना करते हुए सत्यार्थ प्रकाश के 11 वें समुल्लास में लिखा है कि अपने देश की प्रशंसा व पूर्वजों की बड़ाई करना तो दूर रहा, उसके स्थान में पेट भर निंदा करते हैं। व्याख्यान में ईसाई आदि अंग्रेजों की प्रशंसा भरपेट करते हैं। ब्रह्मा आदि ऋषियों का नाम भी नहीं लेते। प्रत्युत्तर ऐसा करते हैं कि बिना अंग्रेजों के सृष्टि में आज तक कोई भी विद्वान नहीं हुआ। आर्यावर्त के लोग सदा से मूर्ख चले आए हैं ।इनकी उन्नति कभी नहीं हुई।
वेदादिकों की प्रतिष्ठा तो दूर रही परंतु निंदा करने से भी पृथक नहीं रहते। ब्रह्म समाज के उद्देश्य नमक पुस्तक में साधुओं की संख्या में ईसा, मूसा, मोहम्मद ,नानक और चैतन्य तो लिखे हैं, किसी ऋषि महर्षि का नाम भी नहीं लिखा। इससे जाना जाता है कि इन लोगों ने जिनका नाम लिखा है यह उन्हीं के मतानुसारी मतवाले हैं।”
किसी भी संप्रदाय के महापुरुष के अच्छे गुणों की प्रशंसा करना बुरी बात नहीं है, परंतु दूसरे की प्रशंसा करते-करते अपने महापुरुषों को भूल जाएं, यह बहुत बड़ी धूर्तता है। विशेष रुप से तब तो यह बात और भी अधिक विचारणीय हो जाती है जब हमारे ऋषि मनीषियों की बौद्धिक क्षमताओं के समक्ष संसार के अन्य सभी महापुरुष बहुत अधिक फीके दिखाई देते हैं। ऐसी स्थिति में हमें अपने महापुरुषों के गुणगान करने से पीछे नहीं हटना चाहिए अपितु उनकी बौद्धिक क्षमताओं को प्रकट कर संसार को सच बताने का काम अपने हाथ में लेना चाहिए।
देश की स्थिति आज भी वैसी ही बन रही है जैसी पराधीनता काल में बनी हुई थी । उस समय अभाग्य, आलस्य और प्रमाद हमारा पीछा कर रहे थे । हम एक दूसरे की टांग खींचने में लगे हुए थे और एक दूसरे को नीचा दिखाना ही हमारा राष्ट्रीय चरित्र बन गया था। आज की स्थिति भी कुछ ऐसी ही बनी हुई है। राजनीतिक सांप्रदायिकता के वशीभूत होकर लोग राजनीतिक अखाड़ों में बंटे हुए हैं और एक दूसरे दल के मानने वाले लोगों से वैसा ही ईर्ष्या भाव रखते हैं जैसे कोई संप्रदाय दूसरे संप्रदाय के लोगों से रखता है। इस प्रकार की राजनीतिक सांप्रदायिकता देश के लिए बहुत घातक सिद्ध हो रही है। ऐसी ही राजनीतिक सांप्रदायिकता अथवा प्रतिस्पर्धा की राष्ट्रघाती भावना आजादी से पहले हमारे देश के राजाओं के भीतर देखी जाती थी।
स्वामी दयानंद जी महाराज ने उस समय के राजाओं के भीतर मिलने वाली ऐसी राजनीतिक सांप्रदायिकता पर अपनी टिप्पणी करते हुए और आंसू बहाते हुए लिखा था कि “अब अभाग्योदय से और आर्यों के आलस्य, प्रमाद और परस्पर के विरोध से अन्य देशों में तो राज्य करने की कथा ही क्या कहनी, किंतु आर्यवर्त में भी आर्यों का अखंड ,स्वतंत्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है ,जो कुछ है सो भी विदेशियों के पदाक्रांत (शासित) हो रहा है। (देसी रियासतों के रूप में ) कुछ थोड़े राज्य स्वतंत्र हैं। दुर्दिन जब आता है तब देशवासियों को अनेक प्रकार का दुख भोगना पड़ता है । कोई कितना ही करे, परंतु जो स्वदेशी राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है।”
स्वामी दयानंद जी महाराज के इन शब्दों पर यदि हम चिंतन करें तो उन्होंने हमें इतिहास की समीक्षा करने के लिए प्रेरित किया है। जिन मूर्खताओं के कारण हमने अतीत में धोखा खाया है या चोट खाई है या गुलामी का दंश झेला है उन मूर्खताओं को अब ना करें, इसी में भलाई है। समय की आवश्यकता है कि जिन इतिहास की पुस्तकों में अतीत में की गई हमारी मूर्खताओं, धूर्त्तताओं और बार-बार चोट खाने की प्रवृत्ति को ढकने का प्रयास किया है, उस इतिहास को अग्नि में भस्म कर नए गौरवशाली इतिहास को लिखकर अपनी आने वाली पीढ़ी को आने वाले खतरों से सावधान करें। ध्यान रहे कि भारत के परंपरागत शत्रु ने अपने विचारों में तनिक भी परिवर्तन नहीं किया है । अतः हम को भी सावधान रहकर अपने अस्तित्व का आकलन करना चाहिए।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत