इस्लामी लेखकों की विश्वसनीयता?
सल्तनत काल में मुस्लिम लेखकों को हर क्षण अपने प्राणों की चिंता रहती थी। सच कहने या लिखने पर उनकी आत्मा भी कांप उठती थी। क्योंकि वह अपने नायकों की क्रूरता से इतने भयभीत रहते थे कि पता नही कब किस बात पर उसका क्रोध उनके प्राण ले ले? वैसे भी मुस्लिम राजभवनों में छोटी-छोटी बातों पर राजाज्ञा से नित्य किसी न किसी की हत्या होती रहती थी, और रक्त राजभवन की नालियों में यूं बहता था, जैसे किसी कमेले में पशुओं का बहता है। इसलिए जहां राजभवन कमेले बन गये हों, वहां लेखनी धर्म के साथ कितना न्याय हो सकता है? यह सहज ही अनुमान किया जा सकता है।
बरनी जैसे मुस्लिम लेखक को भी तुगलक काल के विषय में स्वीकार करना पड़ा है-‘‘सुल्तान मुहम्मद तुगलक के भय से अनेक स्थानों पर मैंने सत्य का वर्णन नही किया है, क्योंकि मुझे अपना सिर खोने का डर था।
मैं नही जानता था कि सुल्तान मुहम्मद तुगलक की मृत्यु की बहुत सी बातों का सामंजस्य कैसे स्थापित करूं। क्योंकि वह आज तक पैदा हुए मनुष्यों में सबसे अधिक आश्चर्यजनक है। ऐसे प्रतीत होता है कि अल्लाताला ने सुल्तान को अंधा बना दिया, क्योंकि एक दिन भी ऐसा नही जाता जबकि सुन्नी मुसलमानों को मूली गाजर या जूं के समान काटा या कुचला नही जाता। मुसलमानों का खून शाही महल की नाली में पानी के समान बहता था। अगर मैं उन सभी बातों का उल्लेख करूं जो कि प्रतिकूल भाग्य से प्राप्त हुई है, तो मुझे कम से कम दो मोटे ग्रंथ लिखने पड़ेंगे।’’
बरनी की इस आत्म स्वीकारोक्ति से स्पष्ट है कि वह एक ईमानदार लेखक नही था, और वह ही नही ऐसा कोई भी इतिहासकार ईमानदार नही हो सकता, जिसकी लेखनी पर रक्त रंजित तलवार लटकती रहती हो। ‘इलियट एण्ड डाउसन’ के इतिहास के तृत्तीय खण्ड में कहा गया है :-
‘‘जियाउद्दीन बरनी अन्य अनेक इतिहासकारों की भांति अपने समकालीन शासकों के आदेश से और उनके सामने (बैठकर) लिखा करता था, इसलिए वह ईमानदार इतिहासकार नही है। बहुत सी महत्वपूर्ण घटनाएं छोड़ दी गयीं हैं, या उनको साधारण मानकर थोड़ा सा स्पर्श किया गया है। अलाउद्दीन के राज्यकाल में मुगलों के कई आक्रमण हुए, परंतु उसने उनका उल्लेख नही किया है। मुहम्मद तुगलक ने भीषण हत्या और बेईमानी से राज्य प्राप्त किया था, इसका भी उल्लेख नही किया गया है। मुहम्मद तुगलक का अपने समकालीन सुल्तानों से निकट का संबंध था। इसको ध्यान में रखकर ही यह बात छिपाई गयी है।’’
हर लेखक ही भयग्रस्त था
ऐसा भय अकेले बरनी की लेखनी को ही प्रभावित करता हो ऐसी बात नही है, अपितु सच यह है कि यह डर लगभग हर मुस्लिम लेखक की लेखनी पर समान रूप से था। इसलिए उन लोगों के इतिहास संबंधी विवरण का अध्ययन करते समय बड़ी सावधानी अपनाने की आवश्यकता होती है। वह भय वश अपने स्वामी की सेना को कभी-कभी पराजित होने पर भी या तो विजयी दिखा देते हैं, या उस पराजय का ऐसा गोलमोल वर्णन करते हैं कि उसका अर्थ खोजना पड़ता है।
पर इतना होने पर भी बरनी ने मुहम्मद तुगलक को रक्तपिपासु सुल्तान माना है। वह कहता है कि उसके महल के सम्मुख खून का दरिया सदा बहता था। उसने सुल्तान को रक्तपिपासु सिद्घ करने के लिए दोआब में कर वृद्घि के समय हुए विद्रोह के उदाहरण दिये हैं। इब्नबतूता ने भी सुल्तान मुहम्मद तुगलक को ‘रक्तपिपासु’ ही कहा है। एसामी भी सुल्तान पर ऐसा ही आरोप लगाता है।
जब लेखक भयवश कुछ घटनाओं का उल्लेख तक करना उचित ना समझे, या उसे कम करके लिखे, तब भी उसकी लेखनी से ऐसे शब्द कहीं निकल जाएं कि सुल्तान रक्त पिपासु था, तो उस समय उन शब्दों का मूल्य बढ़ जाता है। ऐसी परिस्थितियों में हिंदू समाज पर हो रहे अत्याचारों का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है और उन अत्याचारों से मुक्त होने के लिए उनकी आत्मा कितनी व्याकुल होगी? इसकी भी सहज ही कल्पना की जा सकती है।
कराजल के हिंदुओं ने ली एक लाख सल्तनती सैनिकों की जान
कराजल चीन और तिब्बत की ओर एक हिंदू राज्य था। अब से पूर्व किसी मुस्लिम शासक ने पहाड़ी क्षेत्रों के किसी शासक को छेडऩा अथवा उसका राज्य हड़पना उचित नही माना था। परंतु मुहम्मद बिन तुगलक ने उस परंपरा को तोड़ा और पहाड़ी क्षेत्र में भी विजय अभियान चलाने की योजना बनायी गयी। उस समय भारत में कई पर्वतीय हिंदू राज्य थे।
इब्नबतूता का कहना है कि चीन ने इन हिंदू राज्यों में घुसपैठ की थी इसलिए इस ओर की सीमा से विदेशी घुसपैठ रोकने के लिए सुल्तान ने एक लाख मुस्लिम सेना के साथ खुसरो मलिक को इन हिंदू राज्यों को विजयी करने के लिए भेजा। इस शाही सेना ने जिद्या क्षेत्र को जीतकर सल्तनती पताका वहां फहरा दी। इस पर सुल्तान ने अपनी सेना को दिल्ली लौट आने का आदेश दिया, परंतु खुसरो मलिक नही माना और वह अपने सुल्तान की आज्ञा की अवहेलना करते हुए आगे बढ़ गया। वह तिब्बत की ओर बढ़ रहा था। समकालीन इतिहासकारों का कहना है कि वर्षा और मौसम की खराबी के कारण सुल्तानी सेना इस पर्वतीय क्षेत्र में फंसकर रह गयी।
संभवत: यह विधि का विधान था
वास्तव में कभी-कभी ईश्वर अपनी व्यवस्था के अनुसार कुछ ऐसी परिस्थितियां बना देता है कि उसमें किसी व्यक्ति को अपने किये का फल भोगना ही पड़ जाता है। सुल्तान की सेना अब अपनी करनी के फल को भोगने के लिए फंस गयी। अधिक वर्षा होने से मौसम तो प्रतिकूल हो ही गया था, साथ ही पर्वतीय क्षेत्रों के हिंदुओं ने भी मौसम की इस प्रतिकूलता को अपने अनुकूल समझकर उसका लाभ लेने का उचित अवसर माना। अत: हिंदुओं ने ईंट तथा पत्थरों से शाही सेना को मारना आरंभ कर दिया।
एक लाख सैनिकों की कब्रें बन गयीं खुले आसमान के नीचे
शाही सेना के सैनिक यहां की भौगोलिक परिस्थितियों से पूर्णत: अनभिज्ञ थे, उन्हें पर्वतीय क्षेत्रों में युद्घ करने का कोई अनुभव भी नही था, इसलिए विशाल सेना की संख्या तेजी से घटने लगी। घटते घटते दस पांच सैनिक ही बचे, शेष सभी पर्वतीय क्षेत्र के हिन्दुओं ने पत्थरों से मार-मारकर ‘ऊपर’ पहुंचा दिये। एक साथ एक लाख कब्रें खुले आसमान के नीचे बन गयीं। बरनी का कथन है कि इस एक लाख की विशाल शाही सेना में से मात्र दस लोग ही बचकर दिल्ली पहुंचे थे, जबकि इब्नबतूता ने इन बचे हुए सैनिकों की संख्या मात्र तीन कही है।
मलिक का ‘मालिक’ और ‘सबका मालिक’
खुसरो मलिक ने अपने मालिक की बात तो मानी ही नही ‘सबके मालिक’ की भी बात नही मानी कि निरपराधों की हत्या मत करो, पीछे हटो और लौट जाओ, दिल्ली? तो परिणाम क्या आया, ‘सबके मालिक’ ने दंडित करना आरंभ कर दिया, और मलिक का मालिक भी ‘सबके मालिक’ के दण्ड के सामने मौन खड़ा रह गया।
इस कराजल को करांचल भी कहा गया है जो कूमेचिल शब्द से बना है। कूमंचिल आज के कुमायूं का पुराना नाम है। आजकल इसे कुमायूं और गढ़वाल के भूभाग पर स्थित होना माना जा सकता है।
करांचल पर आक्रमण करने की यह घटना 1337-38 की मानी गयी है। उस समय यहां का शासक चंद्रराज वंशीय त्रिलोकचंद था। शाही सेना ने पर्वत के तलहटी में स्थित जिद्या नामक नगर को जलाकर राख कर दिया था। विद्वानों का एक मत ये भी है कि राजा त्रिलोकचंद की प्रजा के लोगों ने शाही सेना का सामना नीचे खुले मैदानों में न करके पर्वत की संकरी घाटियों एवं दुर्गम भागों में छिपकर अवसर के अनुकूल प्रतिरोध करना ही उचित समझा और इसलिए शाही सेना को ऊपर ले जाकर फंसाकर मार लिया। यदि ऐसा भी हुआ तो इसमें भी हिंदुओं की रणनीति सफल रही और समय के अनुसार उनका निर्णय भी उचित रहा कि शत्रु को पहले फंसाओ और फिर घेरकर नष्ट कर दो। यह रणनीति विशेषत: तब अपनायी जाती है, जब शत्रु प्रबल हो और आप दुर्बल हों। हिंदुओं की यह रणनीति सफल रही और जैसा कि बरनी हमें बताता है कि उन्होंने पत्थर तथा वृक्ष लुढक़ा लुढक़ाकर ही शाही सेना का अंत कर दिया। बरनी ने शाही सेना का पूर्णरूपेण विनाश होना बताया है।
विश्व इतिहास में ऐसे उदाहरण दुर्लभ हैं
एक लाख की सेना को बिना हथियारों के और बिना अपनी क्षति कराये इस प्रकार समाप्त करने के उदाहरण विश्व इतिहास में और कितने हैं? इस सेना के इस प्रकार विनाश करने में हिंदुओं की योजना बद्घ युद्घ शैली, वीरता, धैर्य, समायानुकूल निर्णय लेने की क्षमता और देशभक्ति इत्यादि गुणों के दर्शन होते हैं। यहां के राजा ने यद्यपि दिल्ली के साथ समझौता कर ‘खिराज’ देना स्वीकार कर लिया परंतु इतिहासकारों का मानना है कि उसका विद्रोही स्वरूप कालांतर में भी यथावत बना रहा।
राजा ने सुल्तान से संधि भी इस योजना के अनुसार ही की होगी कि दिल्ली से और सेना भेजकर सुल्तान उसकी प्रजा का विनाश न करा सके। इसलिए राजा ने शत्रु को पुन: अपनी योजना में फंसाकर शांत कर दिया। सुल्तान खिराज लेकर शांत हो गया, एक प्रकार से ये खिराज उसके एक लाख सैनिकों का मूल्य ही था। जिसे केवल तुगलक ही ले सकता था, कोई हिन्दू शासक अपने एक लाख सैनिकों के विनाश के पश्चात ऐसा कभी नही करता। इस प्रकार कराजल के इस सैनिक अभियान में सुल्तान को मिली असफलता से सुल्तान की शक्ति में दुर्बलता आयी, और देश में अन्य स्थानों पर भी विद्रोह के स्वर तेज होकर स्वतंत्रता संग्राम को बल मिला।
कराजल की देशभक्ति जनता ने कौटिलीय अर्थ शास्त्र का यह कथन सत्य सिद्घ कर दिया कि :-
नक्षत्रमपि पृच्छन्तं बालमर्थोअति वत्र्तते।
अर्थो हृयर्थस्य नक्षत्रं कि करिष्यंति तारका:।।
अर्थात ‘‘काम केे समय नक्षत्र और मुहूर्त छंटवाने वाले बालक हैं, ऐसे आवोधों को सफलता नही मिलती। जो काम जिन उपायों से बन सकता है, उनका अवलंबन करना चाहिए। उस काम में ये आकाश के तारे क्या बनाएंगे और क्या बिगाड़ेंगे?’’
हमने कर लिया था धान धर्म धारण
धान मूसल के नीचे जितने कूटे जाते हैं उतने ही वे सफेद होते जाते हैं। इसलिए मूसलों के प्रहार को वे अपने लिए वरदान मानकर सहन करते जाते हैं। इस प्रतीक्षा में कि एक क्षण आयेगा जब हम इस ओखली से बाहर निकाले जाएंगे और हमारा मूल्य तब और भी अधिक बढ़ जाएगा। ‘धान’ पर हो रहे इस मूसल प्रहार के मध्य उनकी हंसी पर आश्चर्य चकित कवि पंडितराज जगन्नाथ ने उनसे पूछ लिया कि तुम्हारे हंसने का रहस्य क्या है, तो उन धानों ने कहा-
‘‘अस्मानवेहि कलमानल माहतानां
येषा प्रचण्ड मुसलैट वदातवैव।।
स्नेहं विमुच्य सहसा खलताम्प्रयान्ति
ये स्वल्पपीडनवशान्न वयं तिलास्ते।।’’
अर्थात ‘‘हम पर जितने प्रहार होते जावेंगे हमारी सफेदी उतनी ही निखरती जाएगी। जो थोड़े से पीटने से ही स्नेह (तेल) छोडक़र खल (दुष्ट) बन जावें वे तिल हम नही हैं।’’
हिंदुओं को अत्याचारों के ऊखल में डालकर धानों की भांति ही कूटा जा रहा था, और ये थे कि धान की सफेदी की प्रतीक्षा में हंस हंसकर पीड़ा (पिराई) को सहन कर रहे थे। इस प्रतीक्षा में कि भोर होगी, आशा का सूर्य चमकेगा और तब हमारा मूल्य बढ़ेगा?
….स्वतंत्रता के पश्चात हमने क्या किया-मूल्य बढ़ाया या घटाया?
हमारे क्रांतिकारी स्वतंत्रता आंदोलन की नींव के इन पत्थरों पर ही सारा भवन टिका था। हमने नींव की इन ईंटों के साथ वही किया जो समाज नींव की ईंटों के साथ किया करता है। हमारी सोच बन गयी कि अतीत जितना पुराना होता जाए, उसे भूलते जाओ। अंग्रेजी काल में ब्रिटिश सत्ताधीशों के विरूद्घ लड़ते हुए यदि किसी क्रांतिकारी ने एकअंग्रेज अधिकारी या दस पांच अंग्रेजों को कहीं ढेर कर दिया तो उसका भी हम गौरवपूर्ण उल्लेख करते हैं (जो होना भी चाहिए) पर दस बीस हजार, पचास हजार और एक एक लाख की शत्रु सेना को मिटा देने वाले देशभक्त स्वतंत्रता सैनिकों को हम भूल रहे हैं। उनके स्मारकों की ओर देखने तक का समय हमारे पास नही है। लगता है कि एक दिन हमारी अपने क्रांतिकारियों को भूलने की यह प्रवृत्ति ब्रिटिश काल के क्रांतिकारी स्वतंत्रता सैनानियों को भी यूं ही डस जाएगी जैसे मध्यकालीन स्वतंत्रता सेनानियों को डस गयी है।
जैसलमेर का रोमांचकारी स्वतंत्रता संग्राम
भारत के सुदूर पश्चिम में स्थित धार के मरूस्थल में जैसलमेर की स्थापना 1178 ई. के लगभग भाटी राजा रावल जैसल के द्वारा की गयी थी। रावल जैसल द्वारा स्थापित इस राजवंश ने लगभग 770 वर्षों तक अर्थात स्वतंत्रता प्राप्ति तक शासन किया। इस राज्यवंश ने इतने लंबे काल तक अपना शासन बिना वंशक्रम को भंग किये किया। सल्तनत काल में 1308 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने भाटी राज्य जैसलमेर पर आधिपत्य स्थापित कर लिया था।
जैसलमेर संभाग का प्राचीन नाम माडधरा अथवा ‘वल्लभमण्डल’ था। महाभारत के युद्घ के पश्चात अनेकों यदुवंशी लोग यहां आकर बस गये थे। वाल्मीकि रामायण में ‘किष्किंधा काण्ड’ में पश्चिम दिशा के जनपदों के वर्णन में मरूस्थली नामक जिस जनपद का उल्लेख हमें मिलता है, डा. ए.बी लाल के अनुसार यह जैसलमेर वही मरूभूमि है। महाभारत के ‘अश्वमेधिक पर्व’ में वर्णन है कि भगवान श्रीकृष्ण हस्तिनापुर से जब द्वारका जा रहे थे तो मार्ग में मरूस्थल पड़ा था। उस समय इसे सिंधु सौ वीर कहकर पुकारा जाता था। महाभारत के सभा पर्व से ज्ञात होता है कि नकुल ने इस मरूभूमि को विजय किया था।
यह प्रांत कई राज्य वंशों के अधीन रहते हुए प्रतिहार वंशी शासकों (700-900ई.) के अधीन भी रहा था। उनके अधिकार से निकलने पर यहां भिन्न-भिन्न जातियों ने अधिकार करने का प्रयास किया। सातवीं शताब्दी में यहां भाटी जाति ने पश्चिमोत्तर से आकर अपना वर्चस्व स्थापित किया। यही भाटी राज्य कालांतर में जैसलमेर राज्य के नाम से प्रसिद्घ हुआ। 1178 ई. में त्रिकूट नाम की पहाड़ी पर रावल जैसल ने अपनी राजधानी जैसल-मेरू=जैसलमेर स्थापित की।
1308 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने इस क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित किया था। उस समय रावल जैत्रसिंह यहां का शासक था। उसकी मृत्यु अलाउद्दीन खिलजी द्वारा किले की घेराबंदी की अवधि में ही हो गयी थी, तो उसके पश्चात उसका लडक़ा मूलराज सिंहासन पर बैठा। लंबी घेराबंदी से दुखी होकर तब राजा मूलराज और उनके सैनिकों ने अलाउद्दीन से अंतिम युद्घ किया और किले के भीतर रानी और उनकी सहेलियों ने जौहर किया था।
जैसल रावल दूदा की वीरता
मुहम्मद बिन तुगलक के समय जैसलमेर का शासक रावल दूदा था। उसे अपने प्राचीन इतिहास से असीम अनुराग था। अत: वह एक परमयोद्घा की भांति युद्घ के लिए उद्यत था। यह अलाउद्दीन खिलजी के समय लड़े गये युद्घ में किन्ही कारणों से अनुपस्थित रहा था। इसलिए वह अब अपने मन की प्रसन्नता के लिए युद्घ में शत्रु को परास्त करने के लिए पूर्णत: समर्पित था। इसलिए उसने शाही सेना की टुकडिय़ों पर अपनी ओर से छेड़खानी की घटनायें आरंभ करा दीं। शाही सेना ने आकर किले की घेराबंदी कर ली थी। शाही सेना क्षेत्र के गांवों में लूटपाट व आगजनी की घटनाओं को निर्बाध रूप से करती जा रही थी। अत: राजा दूदा यह सब कुछ मौन रहकर नही देख सकता था। इसलिए रावल दूदा ने दुर्ग में बैठे रहने को उचित न मानते हुए बाहर आकर शत्रु सेना से युद्घ करना उचित माना।
हुआ घोर संग्राम
दोनों पक्षों में घोर संग्राम हुआ। रावल दूदा और उनके सैनिकों की संख्या शत्रु पक्ष की अपेक्षा अति न्यून थी। जैसलमेर राज्य की जनसंख्या 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में लगभग 77 हजार थी, इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि उस समय इस क्षेत्र में कितने लोग होंगे और उनमें लडऩे वाले योद्घा कितने होंगे, पर उन मुट्ठी भर लोगों को भी पराजित करने के लिए उनकी जनसंख्या की अपेक्षा तीन चार गुणी सेना दिल्ली से जाती थी, जिससे ज्ञात होता है कि उस समय के सत्ताधारियों के मन मस्तिष्क में हिंदुओं की वीरता का कितना भय व्याप्त रहता था। शाही सेना जब देख लेती थी कि हमारी संख्या विजित किये जाने वाले दुर्ग के लोगों से पर्याप्त रूप से अधिक है, तभी वह युद्घ के लिए प्रस्थान किया करती थी।
राजा रावल दूदा और उनकी सेना ने वीरता के साथ युद्घ किया और सभी ने वीरगति प्राप्त की। किले के भी रानियों ने जौहर कर अपना धर्म निभाया। युद्घ करके प्राण गंवा दिये स्वतंत्रता के लिए, पर जीवित जातियों के बलिदान कभी निरर्थक नही जाते हैं।
क्योंकि जहां बलिदानों को परंपरा मानकर दिया जाता है, वहां स्वतंत्रता की लौ बुझने की स्थिति -परिस्थिति विशेष में केवल भ्रांति हुआ करती है, वास्तव में लौ बुझती नही है, अपितु दिये गये बलिदान, बलिदानी परंपरा को और भी अधिक खाद पानी देकर ऊर्जान्वित कर डालते हैं। राजा दूदा और उसकी प्रजा के बलिदानों से जैसलमेर वीरान हो गया, परंतु इस बलिदानी, परंपरा ने वीरानों में भी हरियाली दिखा दी। मात्र 12 वर्ष की अवधि के उपरांत रावल धड़सी ने पुन: अपनी राजधानी बनाकर नये सिरे से दुर्ग आदि का निर्माण कराया। इसके पश्चात जैसलमेर की स्वतंत्रता का हरण करने का साहस सल्तनत काल में तो किसी बादशाह ने किया नही। जहां लगन होती है और लक्ष्य के प्रति समर्पण होता है वहां सफलता मिलती है और यह भी सच है कि इतिहास भी वही बनाया करता है जिसमेंं ये गुण होते हैं।
घटना का काल निर्धारण
इस घटना का काल निर्धारण 1340 ई. के लगभग किया जा सकता है। जिस समय हम्मीर ने मेवाड़ (1338 ई.) एवं बनवीर ने जालौर को स्वतंत्र कराया था, उसी समय के लगभग की यह घटना है। इससे ज्ञात होता है कि जिस साम्राज्य के दुर्ग का निर्माण मुस्लिम सुल्तान रात को खड़े होकर कराया करते थे, उसका विध्वंस हमारे स्वतंत्रता सैनानी प्रात: होते होते या दोपहर तक कर दिया करते थे। यह सतत प्रवाह अब तक के इतिहास में तो निरंतर प्रवाहमान था। रावल घड़सी को कहीं कहीं घड़ सिंह तो कहीं-कहीं घर सिंह भी लिखा गया है।
आई.एच.क्यू. खण्ड 35 एवं ऐतिहासिक शोध संग्रह पृष्ठ 153-158 से ज्ञात होता है कि घर सिंह के उत्तराधिकारी केहरसिंह के नाम के साथ शिलालेखों में प्रयुक्त ‘राजा, महाराजा, महाराजाधिराज परमेश्वर उपाधियां मिलती हैं, जो कि भाटियों के बढ़ते प्रभुत्व की परिचायक हैं।
बलिदानों में बोल रही थी गीता
प्रो. रामविचार एम.ए. ने अपनी पुस्तक ‘वेद संदेश’ के पृष्ठ 101 पर ‘राष्ट्रभक्ति’ पर बड़ा सुंदर लिखा है, वह कहते हैं :-‘‘राष्ट्रभक्ति का अर्थ यह है कि देश विशेष के निवासी अपने राष्ट्र की भूमि, जल, और पर्वतों से प्रेम करे। उसके वनों, वनस्पतियों, औषधियों, फलों और फूलों से प्रेम करें। उसके खनिज पदार्थों से प्रेम करें। उसकी वायु से भी प्रेम करें, जिसमें कि वे सांस लेते हैं। स्वदेशी उत्पादन से प्रेम करें। उस राष्ट्र की भाषा और साहित्य से प्रेम करें, उसकी संस्कृति से प्रेम करें। उस राष्ट्र के निवासी परस्पर एक दूसरे से प्रेमपूर्वक रहें। जब अपने राष्ट्र का नाम लें तब गर्व से झूम जायें। यदि राष्ट्र की स्वाधीनता संकट में पड़ जाए तो देश को स्वाधीन रखने के लिए अपना बलिदान दें।’’
….और राष्ट्र भक्ति की यही भावना थी जो हमें सल्तनत के अत्याचार पूर्ण शासनकाल में भी राष्ट्र के लिए जीने मरने की प्रेरणा दे रही थी।
कृष्ण जी ने गीता में कहा है-
‘‘जातस्य हि धु्रवो मृत्युध्र्रुव जन्म मृतस्य च।।’’
(गीता 2/27)
अर्थात जो जन्मा है वह मरेगा अवश्य और जो मरा है, उसका जन्म भी अवश्य होगा।’’
इस भाव को अपनाने वालों के लिए जन्म-मृत्यु बहुत छोटी वस्तु बनकर रह जाती है-
‘‘न जन्म कुछ न मृत्यु कुछ सिर्फ इतनी बात है,
किसी की आंख खुल गयी किसी को नींद आ गयी।’’
इसलिए देशभक्ति के विषय में या धर्म पर आ रही आपत्ति के काल में उसकी रक्षार्थ भारतीय अपने जीवन को बलिदान करना बहुत छोटी बात समझते थे। इसलिए यहां साकों (जिस दिन युद्घ केवल मरने के लिए किया जाए, उसे साका कहते हैं, यह शब्द राजस्थान से चलकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में अब भी बड़े युद्घ के संदर्भ में प्रयोग किया जाता है कि अब तो ‘साका’ ही होगा और ‘जौहरों’ की लंबी श्रंखला है। तुगलक काल में मृत्यु को आंखों का बंद हो जाना या मात्र नींद का आ जाना मानने वाले वीरों ने इन्हीं ‘साकों’ और ‘जौहरों’ से देश की स्वतंत्रता के लिए अभूतपूर्व संघर्ष किया। बलिदानों की परंपरा रूकी नही और देश की पताका झुकी नही दीये और आंधी का संघर्ष जारी रहा। जिन पर हम अगले लेख में विचार करेंगे।
मुख्य संपादक, उगता भारत