Categories
विविधा

  भ्रष्टाचार की बाड़ी आंगनबाड़ी योजना

हाजीपुर,ब्रजकिशोर सिंह। मित्रों,हमारे बिहार में घर के आगे-पीछे जो खाली जमीन होती है लोग उसका भी बखूबी उपयोग करते हैं। लोग उसमें सब्जी उगा लेते हैं और ऐसे ही सब्जियों के छोटे-बड़े बागीचे को हम कहते हैं बाड़ी। कुछ ऐसी ही स्थिति बिहार में आंगनबाड़ियों की है। बिहार के आंगनबाड़ियों में पोषण की नहीं बल्कि वास्तव में भ्रष्टाचार की सब्जी की खेती हो रही है और खुलेआम हो रही है,ताल ठोंककर हो रही है। जबसे यह ICDS (Integrated Child Development Services Scheme) योजना शुरू की गई है आजतक मेरी तो समझ में ही नहीं आया कि योजना को चलानेवाले अधिकारी-कर्मी धूर्त हैं या सरकार ही अंधी है? इस योजना के अंतर्गत कहीं कोई काम ही नहीं हो रहा। पूरा-का-पूरा माल जेब में। अब यह तो जाँच का विषय है कि किसकी जेब में कितना माल जाता है।

 

मित्रों,इस परियोजना से जुड़े भ्रष्ट अधिकारियों का मनोबल किस कदर बढ़ा हुआ है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कई साल पहले जब परवीन अमानुल्लाह बिहार की महिला एवं बाल विकास मंत्री थीं तब वैशाली जिले के ही बिदुपुर में वहाँ की प्रखंड बाल विकास परियोजना पदाधिकारी ने उनके साथ धक्का-मुक्की और बदतमीजी की और मंत्री होते हुए भी अमानुल्लाह कुछ नहीं कर सकीं।

 

मित्रों,अभी कुछ दिन पहले ही जब वैशाली जिले के कई प्रखंडों में आंगनबाड़ियों की जाँच की गई तो पाया गया कि महुआ और देसरी में कई आंगनबाड़ियों का कहीं अता-पता ही नहीं है। राघोपुर का तो मैं खुद ही चश्मदीद गवाह हूँ और वहाँ भी धरातल पर अधिकांश आंगनबाड़ी हैं ही नहीं फिर बच्चों का कैसा पोषण और कैसा विकास। हाँ,आंगनबाड़ी सेविकाएँ जरूर प्रति सेविका प्रति माह 20 से 25 हजार रुपये का कालाधन अर्जित कर रही हैं।

 

मित्रों,बिहार सरकार के समाज कल्याण विभाग के दस्तावेजों के मुताबिक समग्र बाल विकास सेवा (आइसीडीएस) योजना के तहत 91,688 आंगनबाड़ी संचालित किए जा रहे हैं, मगर एक सर्वे रिपोर्ट में पाया गया कि अधिकांश आंगनबाड़ी केंद्र अपने लक्ष्य और दायित्व से कोसों दूर हैं। मुश्किल से 60 फीसदी बच्चों को नियमित पोषाहार मिल पा रहा है। आइसीडीएस का पहला लक्ष्य ही बच्चों को कुपोषण से बचाना है, लेकिन कागजों में दर्ज बच्चों में बमुश्किल 60 फीसद को ही आंगनबाड़ी केंद्रों पर नियमित पोषाहार मिलता है। समाज कल्याण विभाग के संबंधित अधिकारी के मुताबिक हर आंगनबाड़ी केंद्र में आने वाले बच्चे रोजाना दोपहर डेढ़ सौ से दो सौ ग्राम खिचड़ी, अंडे, हलवा या पुलाव खाते हैं। सुबह के नाश्ते में इन्हें फल और बिस्किट मिलता है, लेकिन हकीकत में तो अधिकांश केंद्रों पर बच्चों की मौजूदा संख्या के अनुरूप भोजन पकाने की सुविधा तक उपलब्ध नहीं है। कई जगहों पर विटामिन ए की खुराक तक समय पर नहीं मिल पा रही है। कहीं-कहीं जरूर कभी-कभी बच्चों को कुछेक बिस्कुट या टॉफियाँ देकर समझ लिया जाता है कि अब वे कुपोषित नहीं रह गए हैं।

 

मित्रों,आंगनबाड़ी सेविका के बीमार पड़ने, प्रशिक्षण पर जाने या किसी अन्य काम से जाने पर ये केंद्र नहीं खुल पाते। राजधानी पटना की कई आंगनबाड़ियों में वजन मापने की मशीन उपलब्ध तो है, मगर उसका कभी उपयोग नहीं किया गया। दवा की किट, बच्चों का शारीरिक विकास दर्ज करने की व्यवस्था, शौचालय और स्वच्छ पानी आदि की व्यवस्था तो कहीं दिखी ही नहीं। आंगनबाड़ी केंद्र पर बच्चों को दरी और स्लेट तक नहीं मिलती। ज्यादातर सेविकाओं को टीकाकरण और पोषण संबंधी सामान्य सावधानियों की जानकारी नहीं है। बच्चों को खिचड़ी, हलवा या पुलाव देने में भी सफाई नहीं बरती जाती। अधिकांश आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं का कहना है कि पोषाहार के सामान से लेकर जलावन तक के लिए मिलने वाली रकम बेहद कम है। शिकायत करने पर संबंधित अधिकारी झिड़क देते हैं।

 

मित्रों,सवाल उठता है कि फिर इस योजना का पैसा जाता कहाँ है? ऐसा कौन-सा स्पंज है जो योजना की राशि को सोख जाता है? सवाल यह भी उठता है कि सरकार कबतक सबकुछ जानते-बूझते हुए भी इसी तरह जनता के टैक्स से आए पैसे को गड्ढ़े में बहाती रहेगी? आखिर कब इस भ्रष्टाचार की बाड़ी को समाप्त किया जाएगा या इसमें सुधार किया जाएगा? आँकड़े व समाचार-पत्र गवाह हैं कि बिहार में जितने भी अधिकारी घूस लेते रंगे हाथों पकड़े गए हैं उनमें बड़ी संख्या इस योजना से जुड़े अधिकारियों की है। फिर भी केंद्र और राज्य की सरकार क्यों इस योजना की ओवरहॉलिंग नहीं कर रही?

Comment:Cancel reply

Exit mobile version