आतंकवाद को लेकर पाकिस्तानी नीति और अमेरिका का व्यवहार
— डा० कुलदीप चन्द अग्निहोत्री
एक बहुत बड़ा प्रश्न आजकल तीन देशों में बहस का मुद्दा बना हुआ है । मुद्दा है पाकिस्तान में आतंकवाद और आतंकवादी । इसकी व्याख्या करना जरुरी है या इसे दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि पाकिस्तान आतंकवाद का शिकार है या फिर अन्य देशों , ख़ासकर भारत में , आतंकवाद के हथियार से शिकार करने वाला शिकारी ? इन अन्य देशों की सूची में अफ़ग़ानिस्तान तो बहुत पहले जुड़ गया था लेकिन 9/11 के बाद अमेरिका का नाम भी इसमें जुड़ गया था । दरअसल आतंकवादियों की फ़ौज की जरुरत अमेरिका को भी रही है , क्योंकि उसे भी अन्य देशों में इस हथियार से अपने हिसाब से शिकार करना था । लेकिन अमेरिका के हिसाब से अन्य देशों की सूची में सोवियत रुस का नाम सबसे ऊपर था । यह जरुर है कि अमेरिका ने अपने देश में हथियारों के फलते फूलते उद्योग के बावजूद , आतंकवाद नाम का यह नया हथियार पाकिस्तान में आधार बना कर उत्पादित किया , वाशिंगटन डी सी में नहीं । वैसे पूरी स्थिति को समझने के लिये थोड़ा और पीछे जाना पड़ेगा ।
यह 1947 के काल और उससे पहले का इतिहास है । सोवियत रुस में सर्वहारा की क्रान्ति हो जाने के बाद ब्रिटिश साम्राज्यवाद की मुख्य चिन्ता इस नये वैचारिक आन्दोलन के विजय रथ को सोवियत रुस की सीमाओं के भीतर ही रोक देने की थी । इस चिन्ता से ग्रेट गेम की रणनीति ने जन्म लिया । रणनीति साफ़ थी । रुस के आसपास के देशों में ब्रिटिश साम्राज्यवादी हितों की रक्षा कर सकने वाले शासक रहने चाहियें । इसी रणनीति के तहत इंग्लैंड ने पहली बार तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लिया , जबकि तिब्बत स्वतंत्र देश था और कभी चीन का हिस्सा नहीं रहा था । लेकिन ब्रिटेन की चिन्ता तो यह थी कि तिब्बत अपने बलबूते सोवियत रुस के प्रभाव को रोक नहीं पायेगा , लेकिन चीन इसे रोक सकता है । बाक़ी संकट काल में ब्रिटेन तो सहायता करेगा ही । ध्यान रहे उन दिनों चीन रुस विरोधी था और ब्रिटेन के प्रभाव क्षेत्र में आता था । इसी प्रकार उत्तर-पश्चिम में इस ग्रेट गेम में इरान और अफ़ग़ानिस्तान ब्रिटेन के स्वाभाविक साथी थे , जिन्हें भारत में सोवियत रुस के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिये बफर स्टेट का काम करना था ।
लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध ने सारा परिदृश्य ही बदल दिया । इसे इतिहास का संयोग ही कहना होगा कि इस युद्ध में सोवियत रुस को मित्र राष्ट्रों के खेमे में आना पड़ा । युद्ध के बाद विश्व राजनीति में ब्रिटेन का स्थान अमेरिका ने ले लिया और रुस का अपना एक अलग खेमा बन गया । लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण घटना थी ब्रिटेन का भारत से चले जाने का निर्णय । भारत से चले जाने के निर्णय से सारे समीकरण बदल गये थे । ग्रेट गेम की रणनीति जारी थी क्योंकि नई स्थिति में सोवियत रुस के प्रभाव के बढ़ने का ख़तरा और तेज़ हो गया था , लेकिन अब इसे भारत में रोकने के लिये इरान और अफ़ग़ानिस्तान की बजाय पाकिस्तान को मुख्य भूमिका निभानी थी । इसके लिये जरुरी था कि पाकिस्तान शक्तिशाली बने । शक्तिशाली वह तभी बन सकता था यदि आज का ख़ैबर पख्तूनख्वा प्रान्त और जम्मू कश्मीर उसमें शामिल किया जाता । जम्मू कश्मीर का गिलगित संभाग तो उसमें शामिल करना बहुत ही जरुरी था क्योंकि गिलगित तीन साम्राज्यों का मिलन स्थल था । चीन, रुस और अफ़ग़ानिस्तान । लेकिन ब्रिटेन की इस रणनीति में जम्मू कश्मीर के उस समय के शासक महाराजा हरि सिंह सबसे बड़ी दीवार बन गये । उन्होंने लार्ड माऊंटबेटन और जिन्ना के लाख समझाने डराने के बावजूद पाकिस्तान में शामिल होने से इन्कार कर दिया । तब ग्रेट गेम की रणनीति के अनुसार जम्मू कश्मीर को पाकिस्तान में शामिल करने का एक ही रास्ता बचता था , उस पर हमला करके उसे जीत लिया जाये । यदि पूरा जम्मू कश्मीर हड़पना संभव न हो तो कम से कम उसका उतना विभाजन तो कर दिया जाये जो भविष्य में पाकिस्तान के लिये लाभकारी हो । गिलगित पाकिस्तान में शामिल करवा दिया जाये और नौशहरा से लेकर पुँछ तक जम्मू की पट्टी भी पाकिस्तान में शामिल कर दी जाये ताकि पश्चिमी पाकिस्तान के प्रमुख नगरों को भविष्य के संभावित हमले से सुरक्षित करवा दिया जाये । २२ अक्तूबर १९४७ को जम्मू कश्मीर पर पाकिस्तानी हमला इसी रणनीति का परिणाम था । गिलगित तो अंग्रेज़ों ने अपने आदमी मेजर ब्राऊन को आगे करके तुरन्त पाकिस्तान में शामिल करवा दिया । नौशहरा से जम्मू तक की पट्टी को युद्ध विराम के माध्यम से पाकिस्तान में ही रहने दिया । दुर्भाग्य से जम्मू कश्मीर के इस विभाजन में लार्ड माऊंटबेटन व शेख़ अब्दुल्ला का व्यवहारिक सहयोग तो है ही , पंडित नेहरु की भी इसमें भूमिका रही है ।( पंडित नेहरु का एक पत्र उपलब्ध है जिसमें उन्होंने कहा है कि वे गिलगित पाकिस्तान में चले जाने के लिये सहमत हो सकते हैं ) । यह पाकिस्तान , ब्रिटेन और अमेरिका का स्वाभाविक साथी बना । अमेरिका और ब्रिटेन ने जिस उद्देश्य के लिये पाकिस्तान को मज़बूत किया था , उसका प्रयोग उन्होंने उस वक़्त किया जब सचमुच सोवियत रुस ने अफ़ग़ानिस्तान पर हमला कर दिया । उस वक़्त पाकिस्तान, अमेरिका के लिये रुस के ख़िलाफ़ युद्ध का लांचिंग पैड बना । अफ़ग़ानिस्तान में रुस को पराजित करने के उद्देश्य के लिये ही इस्लामी आतंकवाद और आतंकवादियों का हथियार तैयार किया गया । यह ठीक है कि यह हथियार रुस के ख़िलाफ़ बहुत कारागार सिद्ध हुआ , जिसके लिये अमेरिका अपनी पीठ थपथपा सकता है और पाकिस्तान को शाबाशी दे सकता है । लेकिन इसके तुरन्त बाद सोवियत रुस का भी पतन हो गया । उसने साम्यवादी रास्ते का त्याग कर दिया और सैकड़ों साल पहले जारशाही के दिनों में बंदी बनाये गये मध्य एशिया के सब देश भी मुक्त कर दिये । द्वितीय विश्व युद्ध के उपरान्त शुरु हुये इस वैचारिक शीत युद्ध का इस प्रकार अन्त हुआ ।
लेकिन इसके साथ ही पाकिस्तान की उपयोगिता पर भी प्रश्नचिन्ह लग गया । ग्रेट गेम का अन्त तो हो ही गया था । अमेरिका ने पाकिस्तान के भीतर जो इस्लामी आतंकवाद और आतंकवादियों के हथियार तैयार किये थे , उसकी बहुत सी खेपें तो अभी भी पाकिस्तान में बची हुईं थीं । पाकिस्तान ने आतंकवाद के इस हथियार का प्रयोग भारत के ख़िलाफ़ करना शुरु कर दिया । जम्मू कश्मीर उसका विशेष निशाना बना । अमेरिका को इसमें भी कोई आपत्ति नहीं थी । क्योंकि इसके माध्यम से मौक़ा पड़ने पर , उन विषयों पर जिन पर भारत और अमेरिका के रास्ते अलग अलग हैं , यदि भारत की बाँह मरोड़ी जा सके तो अमेरिका को लाभ ही लाभ है । इसलिये अमेरिका , जम्मू कश्मीर में इस्लामी आतंकी गतिविधियों को आतंकवाद न कह कर उसकी जन संघर्ष के नाम पर नाना व्याख्याएँ करने लगा और बीच बीच में भारत को जन समस्याएँ कैसे सुलझाई जायें , इसका उपदेश देना भी शुरु कर दिया ।
लेकिन ९/११ ने सारा पासा पलट दिया । आतंकवाद और आतंकवादियों के ये हथियार अमेरिका के विश्व व्यापार केन्द्र पर भी हमला करने लगे । इतना ही नहीं विश्व व्यापार केन्द्र पर हमले का सूत्रधार ओसामा बिन लादेन, जिसे अमेरिका ने दुश्मन नम्बर एक घोषित कर रखा था , वह लम्बे अरसे तक पाकिस्तान में ही छिपा रहा । ज़ाहिर है ऐसा पाकिस्तान सरकार की इच्छा के बिना सम्भव नहीं था । पाकिस्तान इस मामले में अमेरिका के साथ ही लुका छिपी का खेलता रहा । पाकिस्तान की भूमिका और उपयोगिता पर प्रश्नचिन्ह लग गया ।
लेकिन इसके बावजूद अमेरिका आतंकवाद के साथ अपनी लडाई में पाकिस्तान को ही अपने साथ रखने की रणनीति पर चल रहा था । दरअसल अमेरिका अपनी लम्बी रणनीति में भारत को अपना स्वाभाविक साथी नहीं मान रहा था । अमेरिका भारत को सशक्त और विश्व राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की स्थिति में नहीं देखना चाहता था । यह लाबी नहीं चाहती थी कि भारत में कोई सशक्त और निर्णय लेने वाली सरकार बने । इन की रुचि यही रही कि भारत गठबन्धन राजनीति का ही शिकार रहे ताकि ऐसे निर्णय लेने में सक्षम न हो सके जो अमेरिका के वैश्विक हितों को प्रभावित कर सकें । इसलिये अमेरिका ,भारत में नरेन्द्र मोदी के ख़िलाफ़ वातावरण बनाने में प्रत्यक्ष परोक्ष रुप से लगा रहा । वीज़ा प्रकरण उसी का हिस्सा था । लेकिन तमाम विरोधों और षड्यंत्रों के बावजूद नरेन्द्र मोदी केवल जीते ही नहीं बल्कि तीन दशक बाद भारत में गठबन्धन की राजनीति का अन्त हुआ और दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हो गया ।
यह भारत का एक नया रुप था । अभी तक भारत वही बोल रहा था जो १९४७ में और उससे पूर्व अंग्रेज़ शासक उसके लिये निर्धारित कर गये थे । नेहरु उस भारत के प्रतिनिधि थे । उन्हें सत्ता के हस्तांतरण से सिंहासन और वाणी मिली थी । यह वह वाणी नहीं थी जिसकी कल्पना विवेकानन्द और महर्षि अरविन्द ने की थी । लेकिन नरेन्द्र मोदी के आने से वही भारत एक बार फिर अँगड़ाई लेने लगा था , जिसकी कल्पना गुरु गोविन्द सिंह , विवेकानन्द और महर्षि अरविन्द ने की थी । अब अमेरिका को निर्णय करना था कि उसे इस नये भारत के साथ सहयोग करना है या फिर पाकिस्तान के साथ मिल कर आतंकवाद-आतंकवाद का वही पुराना खेल खेलते रहना है । पिछले कुछ मास से अमेरिका के राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा , भारत को अधिमान देते दिखाई दे रहे हैं । वे छब्बीस जनवरी के दिन दिल्ली के इंडिया गेट पर होने वाले कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के नाते आ रहे हैं । अमेरिका के किसी राष्ट्रपति को पहली बार इस कार्यक्रम में बुलाया गया है । इसमें कोई शक नहीं कि पाकिस्तान को इससे कोफ़्त होती है । ऐसे हर अवसर पर वह अपनी कोफ़्त का प्रदर्शन जम्मू कश्मीर या कहीं अन्यत्र आतंकवादी घटना के माध्यम से करता रहा है । जब बिल क्लिंटन भारत में आये थे तो पाकिस्तानी आतंकवादियों ने कश्मीर घाटी में ३० से भी ज़्यादा सिक्खों-हिन्दुओं का क़त्ल करके अपना प्रतीकात्मक विरोध दर्ज करवाया था । ऐसी घटनाओं के बावजूद अमेरिका इन घटनाओं को जम्मू कश्मीर को लेकर आपसी विवाद ही कहता रहा है ।
अब छन छन कर ख़बरें आ रहीं थीं कि ओबामा के भारत आगमन पर पाकिस्तान जम्मू कश्मीर में कोई ऐसी ही वारदात करके अपना विरोध दर्ज करवा सकता है । जो ख़बरें भारत में छन छन कर आ रहीं थीं , ज़ाहिर है कि अमेरिका के पास वे अपने समग्र रुप में ही पहुँच रही होंगी । सेना के सूत्र बताते ही हैं कि २०० के आसपास दुर्दान्त आतंकवादी पाकिस्तान की सीमा में मोर्चा लगा कर बैठे हैं ताकि मौक़ा देख कर घुसपैठ कर सकें । पाकिस्तान पिछले कुछ अरसे से युद्ध विराम का उल्लंघन कर, नियंत्रण रेखा पर निरन्तर गोलाबारी कर ही रहा है । उधर पाकिस्तान के भीतर मुम्बई आक्रमण का सूत्रधार लखवी जेल से बाहर आने के कगार पर ही है । मुम्बई दंगों का सरगना दाऊद अब्राहम तो रह ही पाकिस्तान सरकार की देख रेखा में रहा है । लेकिन भारत में आतंकवाद को लेकर अमेरिका ने पहली बार पाकिस्तान ने चेतावनी दी है कि यदि ओबामा के भारत प्रवास के दौरान पाकिस्तान ने हिन्दुस्तान में कोई आतंकवाद की वारदात की , उसे इसके परिणाम भुगतने के लिये तैयार रहना चाहिये ।
इस के कुछ संकेत अपने आप स्पष्ट हैं । पहला संकेत तो यही है कि अमेरिका इसे अच्छी तरह जानता है कि भारत में आतंकवादी वारदातों के पीछे पाकिस्तान का हाथ है । दूसरा अमेरिका यह भी जानता है कि पाकिस्तान में , दूसरे देशों के ख़िलाफ़ आतंकवाद का प्रयोग राज्य की नीति का ही हिस्सा है । यह इसकी विदेश नीति का भाग है ।
शायद अमेरिका यह मान कर चलता है कि अमेरिकी राष्ट्रपति के भारत प्रवास के दौरान यदि पाकिस्तान कोईँ आतंकी वारदात जम्मू कश्मीर या अन्य किसी प्रान्त में करता है तो वह भारत को तो चुनौती होगी ही , लेकिन सबसे बढ़ कर तो वह अमेरिका को ही चुनौती मानी जायेगी । इसलिये उसने इस चेतावनी से चुनौती का जबाव दे दिया है । लेकिन चेतावनी एक सीमित समय के लिये दी गई है । वह समय केवल उन तीन दिनों के लिये है , जब तक ओबामा भारत में रहेंगे । यह किसी शरारती बच्चे को डाँटने जैसा ही है कि ख़बरदार जब तक बड़े साहिब आसपास हैं तब तक कोई शरारत मत करना । उसके बाद पाकिस्तान अपनी आतंकी गतिविधियाँ फिर जारी कर सकता है ।
फ़िलहाल अमेरिका ने भारत में पाकिस्तान की आतंकी गतिविधियों को लेकर , अपनी नीति का ख़ुलासा कर दिया है । यह ठीक है कि पाकिस्तान की आतंकवाद की रणनीति की काट भारत को स्वयं ही खोजनी होगी । इसके लिये अमेरिका पर निर्भर रहना उचित नहीं होगा । इस दिशा में उसने कुछ क़दम उठाये भी हैं । पाकिस्तान के विदेश मंत्री हुर्रियत कान्फ्रेंस के नेताओं से दिल्ली में आकर मिलेंगे तो भारत पाकिस्तान के साथ कोई बात नहीं करेगा -ऐसा संकेत दिल्ली ने इस्लामाबाद को दिया ही है । प्रधानमंत्री ने स्वयं भी हुर्रियत कान्फ्रेंस के नेताओं से मिलने से इंकार कर दिया । पाकिस्तान सीमा पर गोलीबारी करता है तो उसका जबाव उसी की भाषा में दिया जा रहा है । लेकिन प्रश्न तो अमेरिका की आतंकवाद को लेकर नीति का है ? क्या वह अभी भी पाकिस्तान के साथ मिल कर ही आतंकवाद से लड़ने की नीति पर चलता रहेगा और इसी बात से प्रसन्न होता रहेगा कि पेशावर कांड के बाद पाकिस्तान ने आतंकवादियों को फाँसी पर लटकाना शुरु कर दिया है । जो आतंकवादी पाकिस्तान सरकार पर हमला करें , वे तो बुरे आतंकवादी हैं और उन्हें फाँसी पर लटका देना चाहिये , लेकिन जो इस्लामाबाद या किसी और के इशारे पर अन्य देशों में आतंकी वारदातें करें , उन्हें शाबाशी दी जानी चाहिये , यह दोहरा मापदंड तो नहीं चल सकता । अमेरिका को स्पष्ट करना चाहिये कि पाकिस्तान यदि किसी देश में आतंकी कार्यवाही करता है तो उसे ज़िम्मेदार ठहराया जायेगा । निकट भविष्य में अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति को देखते हुये , ऐसा निर्णय लेना और भी जरुरी है । पाकिस्तान की आतंकी वारदातों को ओबामा के प्रवास के साथ जोड़ कर नीति बनाना , कहीं न कहीं अमेरिका के दोहरे चरित्र को ही उजागर करता है ।