तनवीर जाफ़री
भारतवर्ष में इन दिनों धर्म परिवर्तन जैसे अतिसंवेदनशील मुद्दे को लेकर गर्मागर्म बहस छिड़ी हुई है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने इस मुहिम में शामिल अपने सहयोगी दूसरे हिंदू संगठनों की इन शब्दों में हिमायत की है कि वे ‘लूटे हुए’ अपने माल को वापस ले रहे हैं। संघ के ही दूसरे विचारक इस प्रक्रिया को घर वापसी या धर्म परावर्तन जैसे शब्दों के साथ संबोधित कर रहे हैं। देश के कई स्थानों से विभिन्न धर्मों के लोगों द्वारा खासतौर पर ईसाईयों व मुसलमानों द्वारा धर्म परिवर्तन किए जा रहे हैं। अर्थात् इनके द्वारा हिंदू धर्म स्वीकार किए जाने के समाचार आ रहे हैं। दक्षिणपंथी हिंदूवादी संगठनों का मानना है कि भारतवर्ष में रहने वाले मुसलमानों के पूर्वजों ने मुगल शासकों के देश पर सत्तासीन होने के दौरान बड़े पैमाने पर भयवश अथवा लालचवश धर्म परिवर्तन किया था और उन्होंने हिंदू धर्म त्यागकर इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था। लिहाज़ा उनके वंशजों द्वारा हिंदू धर्म में पुन: वापस जाना धर्म परिवर्तन नहीं बल्कि उनके अपने पूर्वजों द्वारा किए गए पाप का प्रायश्चित है। इसी आधार पर वे अपनी इस प्रक्रिया को ‘घर वापसी’ अथवा धर्म परावर्तन जैसे तकनीकी शब्दों का जामा पहना रहे हैं।
धर्म परिवर्तन के विषय पर एक और तथ्य- ईसाई मिशनरीज़ द्वारा वैश्विक स्तर पर धर्म परिवर्तन कराए जाने का सुनियोजित षड्यंत्र रचा जाता है। मिशनरीज़ इस काम के लिए अपार धन खर्च करती हैं। उनकी नज़रें किसी अन्य धर्म के संपन्न वर्ग पर पडऩे के बजाए गरीब,असहाय व उपेक्षित जनता पर रहती हैं। इसमें कोई शक नहीं कि जातिवादी वयवस्था रखने वाले हिंदू समुदाय में अनेक जातियां ऐसी हैं जिन्हें छोटी अथवा नीची जाति का माना जाता है। हिंदू धर्म का तथाकथित उच्च जाति का व्यक्ति इन निम्र अथवा नीची जाति के कहे जाने वाले लोगों से भेद-भाव रखता है। उन्हें अपमान व उपेक्षा की नज़र से देखता है। यहां तक कि कथित उच्च जाति के लोग इनको मंदिरों तक में प्रवेश करने नहीं देते। यहां तक कि यदि कोई दलित युवक दूल्हा बनकर घोड़ी पर सवार हुआ तो उसे अपमानित कर घोड़ी से उतारने जैसी अनेक घटनाएं हमारे देश में हो चुकी हैं। दूसरी ओर इसाई मिशनरीज़ के लोग जोकि इन बातों से भलीभांति वािकफ हैं वे इनके मध्य इस ‘फार्मूले’ के साथ पहुंच जाते हैं कि वे उनके बच्चों को पढ़ाएंगे,उन्हें समानता का दर्जा देंगे,समाज में उन्हें सिर उठाकर रहने के योग्य बनाएंगे,उनकी स्वास्थय की देखभाल करेंगे तथा ज़रूरत पडऩे पर उन्हें अन्न व धन भी उपलब्ध कराएंगे। और इस प्रकार स्वयं को उपेक्षित समझने वाला यह वर्ग ईसाई मिशनरीज़ की ओर झुक जाता है। जिसका परिणाम अंततोगत्वा धर्म परिवर्तन के रूप में सामने आता है। क्या देश के दूर-दराज़ के जंगली इलाकों में तो क्या शहर की झुग्गी कालोनियों में लगभग हर जगह मिशनरीज़ ने आज अपने पैर जमा लिए हैं। जिस प्रकार दक्षिणपंथी हिंदूवादी संगठन मुगल शासकों के शासनकाल में हुए कथित धर्म परिवर्तन का हवाला देकर मुसलमानों का पुन: हिंदू धर्म में वापस लाए जाने की बात कर रहे हैं उसी प्रकार मिशनरीज़ द्वारा हिंदू से ईसाई बनाए गए लाखों लोगों की भी ‘घर वापसी’ की योजना बनाई जा रही है।
अब देश में इस समय बहस इस बात को लेकर है कि यदि ईसाई मिशनरीज़ द्वारा कराया गया धर्म परिवर्तन सही है तो इन्हीं लोगों की घर वापसी आिखर गलत क्यों? इसी प्रकार मुसलमानों की ‘घर वापसी’ के प्रश्न पर भी वही तर्क दिया जा रहा है कि जब मुसलमान अपने पूर्वजों द्वारा उठाए गए गलत कदमों का पश्चाताप कर ‘घर वापसी’ कर रहे हैं तो इसमें बुराई क्या है? इस विषय पर बहस को आगे बढ़ाते हुए सर्वप्रथम तो मैं यही कहना चाहूंगा कि देश में हुए पिछले चुनावों के समय क्या किसी देशवासी ने यह सोचा था कि चुनाव होने के चंद ही दिनों के बाद हमारे देश में धर्म परिवर्तन,धर्म परावर्तन अथवा घर वापसी जैसे उन विषयों पर बहस छिड़ेगी जिसका न तो देश के विकास से कोई लेना-देना है न ही यह विषय किसी धर्म-जाति या वर्ग की संपन्नता से जुड़ा है। जो लोग मंहगाई समाप्त करने,भ्रष्टाचार मिटाने,देश से बूचडख़ाने समाप्त करने तथा देश में काला धन वापस लाने व देश के हर व्यक्ति के खाते में 15-15 लाख रुपये डालने जैसे वादों के साथ सत्ता में आए थे आज वही लोग तथा उनके सहयोगी इसी देश की जनता को धर्म परिवर्तन अथवा ’घर वापसी‘जैसे मुद्दों में उलझाने की कोशिश कर रहे हैं। इसका एकमात्र कारण यही है कि इन लोगों के पास 2019 में जनता को जवाब देने के लिए चूंकि कुछ भी नहीं होगा लिहाज़ा देश को धर्म के आधार पर विभाजित कर यह शक्तियां आसानी से अपना उल्लू सीधा कर सकेंगी।
अब रहा सवाल ईसाई मिशनरीज़ के धर्म परिवर्तन के लिए चलाए जाने वाले अंतर्राष्ट्रीय मिशन का? ग़ौरतलब है कि समाज सेवी मदर टेरेसा को न केवल 1980 में भारत रत्न से नवाज़ा गया बल्कि उन्हें नोबल शांति पुरस्कार भी हासिल हुआ। उन्होंने किस प्रकार लाखों गरीबों,असहायों,उपेक्षित वर्ग के लोगों की सहायता की यह बात देश के किसी जागरूक व्यक्ति से छुपी नहीं है। कुछ वास्तविकताएं ऐसी हैं जिनको किसी भी धर्म का कोई भी व्यक्ति नकार नहीं सकता? उदाहरण के तौर पर अपने अत्यधिक वृद्ध माता-पिता,दादा-दादी की सेवा करने से लोग कतराते नज़र आते हैं। इन्हें बोझ समझते हैं तथा इनकी सेवा करने से पीछा छुड़ाने की कोशिश करते हैं। किसी परिवार का कोई सदस्य खासतौर पर आर्थिक रूप से कमज़ोर परिवार का कोई सदस्य किसी गहन बीमारी का शिकार हो तो लोग ऐसे व्यक्ति से भी निजात पाने की कोशिश करते हैं। किसी तथाकथित इज़्ज़तदार परिवार की कोई लडक़ी यदि भूलवश या किसी के बहकावे में आकर कोई ऐसा कदम उठा लेती है जो उसे व्यक्ति के परिवार के लिए ‘कलंक’ महसूस होता हो तो ऐसी लडक़ी को उसके परिजन अपने घर में रखना नहीं चाहते। कोई व्यक्ति यदि शारीरिक रूप से अपंग,अपाहिज तथा कुष्ट रोग से पीडि़त हो गया हो तो उसके अपने परिजन उसे गिरी नज़रों से देखने लगते हैं तथा उससे मुक्ति पाने की कोशिश करते हैं। यहां तक कि मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्ति भी उसी के अपने मां-बाप को खटकने लगता है। ऐसे में उपरोक्त सभी उपेक्षित लोगों के लिए मदर टेरेसा के दरवाज़े हमेशा के लिए खुले रहते हैं। कहना गलत नहीं होगा कि ईसाई धर्म में मानव जाति की खासतौर पर उपरोक्त श्रेणी के परेशान हाल,बेबस,मजबूर,दरिद्र व उपेक्षित लोगों की सेवा करने की शिक्षा ईसाई धर्म को विरासत में अपने प्रभु ईसा मसीह से प्राप्त हुई है। ईसा मसीह ने स्वयं अपने जीवन का अधिकांश भाग ऐसे ही लोगों की सेवा में उन्हीें के बीच रहकर गुज़ारा। निश्चित रूप से आज मिशनरीज़ ईसा मसीह के उसी सेवा मिशन को आगे ज़रूर बढ़ा रही हैं परंतु इसके पीछे कहीं न कहीं ईसाईयों की जनसंख्या का विस्तार किए जाने का मकसद भी निहित है?
अब सवाल यह है कि क्या यदि ईसाई मिशनरीज़ में पनाह ले चुके लोगों को हम पुन:इस भावना से वापस लाने की कोशिश करें कि ‘हमारा माल वहां कैसे चला गया और इसे तो यहीं रहना चाहिए’ तो ऐसा सोचने वालों को इससे पहले यह ज़रूर सोचना पड़ेगा कि आिखर उनका ‘माल’ वहां गया क्यों? और ऐसे क्या उपाय किए जा सकते हैं कि मिशनरीज़ अथवा किसी दूसरे मिशन द्वारा चलाए जा रहे धर्मांतरण के कार्यक्रम सफल न होने पाएं? इसके लिए मिशनरीज़ की तरह ही समाज में प्रत्येक जाति के लोगों के मध्य समानता,भाईचारा स्थापित करना होगा और ऊंच-नीच के भेदभाव को जड़ से समाप्त करने का रचनात्मक संदेश देना पड़ेगा। अब यहां पर सवाल यह है कि क्या हिंदू धर्म का आधार समझी जाने वाली वर्ण व्यवस्था इस बात की इजाज़त देगी? क्या संघ परिवार को सरपरस्ती देने वाले बड़े-बड़े धर्मगुरू व शंकराचार्य जैसे सम्मानित पदों पर बैठे संत इस बात की इजाज़त देंगे? मिशनरीज़ के मिशन को रोकने के लिए उसका जवाब उसी की भाषा में दिए जाने की भी ज़रूरत है यानी समाज में व्याप्त छुआछूत, ऊ़ंच-नीच, लोगों की उपेक्षा, गरीबी,बेरोज़गारी,अशिक्षा को समाप्त करने हेतु व्यापक स्तर पर वैसे ही कदम उठाए जाएं जैसेकि मिशनरीज़ उठाती हैं। यदि वास्तव में आपको धर्म परिवर्तन नहीं भाता तो जिन रिक्त स्थानों पर मिशनरीज़ अपनी नज़रें टिकाती हैं उन स्थानों को रिक्त ही न रहने दें। । परंतु दरअसल इनमें से कोई भी उपाय धरातलीय स्तर पर धर्म परावर्तन व घर वापसी का झंडा उठाने वालों द्वारा किए ही नहीं जा सकते। फिर भी चूंकि सत्ता में बने रहना ज़रूरी है लिहाज़ा रचनात्मक रूप से कुछ हो या न हो परंतु कम से कम ‘घर वापसी’ जैसा शिगूफा छोडक़र समाज में धर्म आधारित ध्रुवीकरण किए जाने का प्रयास तो किया ही जा सकता है।