प्रत्येक व्यक्ति प्रसन्न रहना चाहता है। बचपन और जवानी में तो वह पढ़ाई लिखाई खेलकूद नौकरी व्यापार इत्यादि अपने लौकिक कामों में ही उलझा रहता है। और उसी में असली सुख समझता है।
“परन्तु जब प्रौढ़ावस्था आती है, अर्थात जब उम्र 40 वर्ष के आसपास या उससे अधिक हो जाती है, तब उसे जीवन जीने का थोड़ा थोड़ा होश आता है। तब समय का मूल्य भी समझ में आता है।” तब ऐसा लगता है, कि “मुझे कुछ आध्यात्मिक काम भी कर लेने चाहिएं थे, जो मैं अब तक नहीं कर पाया, और मैंने अपना सारा समय व्यर्थ ही इधर-उधर के गौण कामों में खो दिया। जिन खेलकूद नौकरी व्यापार इत्यादि कार्यों में मैं लगा रहा, वे इतने मूल्यवान नहीं थे, कि उनसे मेरी सर्वांगीण उन्नति हो जाती। उन लौकिक कार्यों से मुझे कुछ भौतिक लाभ तो हुआ, धन-संपत्ति तो मिली, परंतु जो वास्तविक प्रसन्नता और आनंद है, उसे मैं प्राप्त नहीं कर पाया।”
अब मुझे बात समझ में आ रही है, कि “मुझे वे आध्यात्मिक कार्य भी करने चाहिएं थे, जो मैंने अब तक जीवन में नहीं किए। जैसे रात को जल्दी सोना, सुबह जल्दी उठना, ईश्वर का ध्यान करना, प्रतिदिन यज्ञ करना, वेदों का स्वाध्याय करना, वैदिक सत्संग में जाना, शुभ कर्मों में कुछ दान देना, स्वास्थ्य की रक्षा के लिए कुछ व्यायाम खेलकूद करना, और अपने बच्चों को भी अच्छे संस्कार देना, इत्यादि।” युवावस्था में ये सब कार्य न करने पर प्रौढ़ावस्था में फिर इस प्रकार का पश्चाताप होता है।
“अतः छोटी उम्र से ही थोड़ा थोड़ा समय निकाल कर इन उत्तम कार्यों को भी प्रतिदिन करना चाहिए, तभी आपको जीवन का वास्तविक आनंद मिलेगा। और 40 वर्ष की उम्र के बाद फिर आपको उक्त पश्चाताप नहीं करना पड़ेगा।”
तब आपको ऐसा लगेगा, कि “मैंने अपने जीवन का पूरा लाभ उठाया। अच्छे काम किए, और मैं आज उनके कारण सुखी हूं। मेरा अगला जन्म भी बहुत अच्छा होगा।” “तब आप इस प्रकार के संतोष तथा आनन्द का अनुभव कर सकेंगे।”
—- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक, रोजड़ गुजरात।