गीता मेरे गीतों में , गीत 35 ( गीता के मूल ७० श्लोकों का काव्यानुवाद)
ईश्वर की सर्वव्यापकता
जीवन झोपड़ी जल रही उजड़ रहे हैं सांस।
खांडव वन में पक्षीगण करते शोक विलाप ।।
चला चली यहां लग रही गए रंक और भूप।
समय पड़े तुझे जावणा मिट जावें रंग रूप ।।
वह भीतर बैठा कह रहा , क्यों होता बेचैन ?
धन – वैभव को भूलकर मुझे भजो दिन – रैन ।।
चार दिनों की चांदनी , है फेर अंधेरी रात।
जितनी चाहे लूट ले फिर नहीं मिले सौगात ।।
जो भी जगत में दीखता वह सपने का सा खेल।
भोर हुई पंछी उड़े तो बिगड़ गया सब खेल ।।
चार कांधे सबको मिलें , है सबसे न्यारी रेल।
टिकट सभी के पास है , अजब जगत का खेल ।।
ब्रह्न सभी में दीखता , वही सबमें ओत – प्रोत।
ज्ञानी जन भजते उसे आनंद का वही स्रोत।।
उसकी कृपा के बिना ना चले जगत व्यवहार।
पत्ता तक हिलता नहीं और चले नहीं संसार।।
चला रहा संकेत से पर जाने बिरला कोय।
जाके घट की खुल गईं संशय रहा न कोय।।
हे सर्वप्रकाशिन परमात्मा ! हम सब हैं अल्पज्ञ ।
कृपानाथ कृपा करो , नाथ तुम ही हो सर्वज्ञ ।।
मित्र ! सखे !! कैसे कहूँ , अपने मन की बात ।
सब कुछ ही तू जानता , है मेरे मन की बात ।।
किसका कल कैसा रहा , है किसको इसका ज्ञान ?
वह भीतर बैठा जानता है सारा उसको ज्ञान ।।
सर्वव्यापक को जानकर , भजो लगाकर ध्यान।
रखो भरोसा नाम पर, सबका कृपा – निधान ।।
जग में जैसा जिसका रूप है , वैसा ही ले धार।
ढूंढे से भी मिलता नहीं , वह सर्वजीवनाधार।।
ज्योतियों की ज्योति वह , क्यों जलाऊँ ज्योत।
हृदय मन्दिर में जल रही , मनमोहक प्यारी ज्योत।।
अर्जुन ! तू भी जान ले , सर्वव्यापक का ज्ञान।
समय पड़े सुख देत है , हरे मोह और अज्ञान।।
यह गीत मेरी पुस्तक “गीता मेरे गीतों में” से लिया गया है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित की गई है । पुस्तक का मूल्य ₹250 है। पुस्तक प्राप्ति के लिए मुक्त प्रकाशन से संपर्क किया जा सकता है। संपर्क सूत्र है – 98 1000 8004
डॉ राकेश कुमार आर्य