वेद ने मनुष्य को पहली शिक्षा दी-“सत्यम्वद, धर्मम्चर” अर्थात सत्य बोल और धर्मानुयायी बन। यह एक पहेली है, जो अपने आप में अपना एक उत्तर भी है। सत्य बोलोगे तो धर्मानुयायी स्वयं बन जाओगे और धर्म पर चलोगे तो सत्यानुरागी भी स्वयं बन जाओगे और धर्म पर चलोगे तो सत्यानुरागी भी स्वयं ही बन जाओगे। भारत के मौलिक संविधान की यह पहली और अंतिम धारा (शर्त) है। संसार के सारे संविधान जो आज प्रचलित हैं, वेद के एक ऋषि के इस चिंतन के समक्ष बौने हैं। संसार के किसी भी संविधान में यह नही लिखा कि “सत्यम्वद धर्मम्चर”-और ना ही किसी संविधान ने ऐसी मौलिक परिकल्पना प्रकट की है कि उसका अंतिम उद्देश्य अपने लोगों को क्या और कैसा बनाना है?
धर्म और सत्य संसार रूपी नदिया के दो किनारे हैं, जो समानांतर दूरी पर बहते दीखते तो हैं, पर वास्तव में ऐसा नही है, इनमें कृत्रिम दूरी है, और इसी दूरी के बीच में जो संसार के प्राणियों की जीवन धारा प्रवाहित हो रही है, उसी जीवनधारा को ये दोनों काल्पनिक किनारे एक मर्यादा देते हैं, एक सीमा देते हैं। यदि हम उस मर्यादा में बहते रहे तो संसार से मुक्ति मिल जाएगी। इस प्रकार वेद रूपी संविधान की सूक्ति का अंतिम उद्देश्य व्यक्ति को बंधन से मुक्त करना है। यह सूक्ति आज के प्रचलित विधानों की भांति किसी अनुचित और अनैतिक कार्य के करने पर दण्ड (बंधन) का प्राविधान नही करती है, अपितु दण्ड (बंधन) से मुक्ति का मार्ग बताती है। संविधान का अंतिम उद्देश्य बंधनों से मुक्ति प्रदान करना ही होता है। संसार के समस्त संविधानों के विषय में पुन: कहना पड़ेगा कि ये मनुष्य को बंधनों से मुक्त कराने वाले नही है। इन्होंने शासित और शासक के ऐसे दो किनारों में राष्ट्रों के निवासियों की जीवनधारा को प्रवाहित करने के लिए बाध्य और प्रेरित किया है,जो काल्पनिक न होकर स्पष्टत: दिखायी देते हैं, और सदा एक दूसरे से दूर ही बहते हैं। जैसे ही कहीं अनुकूल परिस्थितियां बनती हैं तो शासक अपनी सीमाएं तोड़ देता है और शासक से शोषक बनकर शासित को शोषित बना डालता है।
शासक को शोषक और शासित को शोषित बना डालने वाले संविधानों के कारण संसार में क्रांतियां होती हैं, व्यापक स्तर पर जनहानि होती है। इसका अभिप्राय है कि ये संविधान अपने देशों के लोगों की अपेक्षाओं पर खरा नही उतर पाते हैं।
वेद ने धर्म को संविधान का पथ बनाया, अर्थ पर धर्म की लगाम अनिवार्य की और काम पर धर्म और अर्थ की पवित्रता एवं उत्कृष्टता का पहरा बैठाकर मोक्ष को जीवन ध्येय घोषित किया। सारे संसार के प्रत्येक मनुष्य के लिए यह धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष की पगडंडी ही उसके जीवन को उत्कृष्टता में ढालकर उसे परमधाम तक ले जाती है। वास्तव में संविधानों का उद्देश्य भी व्यक्तियों के जीवन में परमशांति स्थापित कर उन्हें परमधाम का वासी बनाना ही होता है। हमें दुख के साथ कहना पड़ता है कि हमारे सहित संसार का कोई भी संविधान इस अपेक्षा पर भी खरा नही उतरता। इसका अभिप्राय है कि करोड़ों रूपया व्यय करके और एक नही अनेकों प्रतिभाओं की बौद्घिक क्षमताओं को प्राप्त कराके भी ये संविधान यदि जनापेक्षाओं पर खरे नही उतर पाये हैं तो इससे इनके बनाने वालों की बौद्घिक क्षमताओं और हमारे एक ऋषि की बौद्घिक क्षमता का पता चलता है। हम गर्व से कह सकते हैं कि हम भारतीय हैं।
संसार को समझ लेना चाहिए कि हमें अपने आप पर गर्व क्यों है? भारत के वेद धर्म के अनुकूल महाभारत के शांतिपर्व (63 : 29) में कहा गया है :-
सर्वेत्यागा राजधर्मेषु दृष्टा:।
सर्वादीक्षा राज धर्मेषु योक्ता।
सर्वाविद्या राज धर्मेषु युक्ता:।
सर्वे लोका: राजधर्मेषु प्रतिष्ठा:।
इसका अभिप्राय है-‘‘राजधर्म में सारे त्यागों का दर्शन होता है। राजधर्म में सारी दीक्षाओं का प्रतिपादन होता है, राजधर्म में संपूर्ण विद्याएं निहित होती हैं, और राजधर्म में सारे लोकों का समावेश होता है।’’
यहां राजधर्म का अभिप्राय यदि कुछ समय के लिए संविधान से लिया जाए तो बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है कि संविधान में क्या-क्या समाविष्ट होना चाहिए? क्या-क्या अंतर्निहित होना चाहिए, उसकी सीमाएं क्या हैं? इत्यादि। संसार के सारे संविधान पूंजीवादी-साम्यवादी-समाजवादी या मिश्रित अर्थव्यवस्था जैसी कई अर्थव्यवस्थाओं को अपने-अपने नागरिकों के कल्याण की एक मात्र गारंटी मानते हैं, पर त्याग को कहीं नही अपनाते,सारी व्यवस्थाओं में अंतर्विरोध है और इसीलिए कोई भी विचारधारा व्यक्ति को और मानव समाज को सफल नही होने दे रही। सारी की सारी व्यवस्थाएं मानव कल्याण के लिए बनी दिखाई जाती हैं और मानव को खाने का काम कर रही हैं। पर महाभारत का यह श्लोक डिण्डिम घोष कर रहा है कि राजधर्म में सारे त्यागों का दर्शन होता है। मेरा भी मेरे लिए और तेरा भी मेरे लिए मत कहो-अपितु मेरा भी तेरे लिए और तेरा भी तेरे लिए,इस राग को छेड़ दो-इस भावना को अपने राजधर्म (संविधानों में) में स्थान दे दो, आनंद आ जाएगा। यह भावना भारत सहित किसी भी देश के संविधान में नही है।
मनुष्य अपने जीवन में दक्ष होना अपना नैसर्गिक अधिकार मानता है। कहने का अभिप्राय है कि प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति प्राप्त कर दक्ष और प्रवीण होना व्यक्ति का मौलिक अधिकार है, यदि ऐसा हो जाता है तो व्यक्ति की सारी स्वतंत्रताओं की रक्षा स्वयं ही हो जाएगी। हमारे यहां प्राचीन काल में दीक्षांत समारोहों का आयोजन हुआ करता था। जिनका उद्देश्य व्यक्ति को दीक्षित करना होता था, उसे संस्कारित जीवन जीने की कला में दक्ष करके,दीक्षित करके विद्यालय की चारदीवारी से बाहर निकालने के लिए आचार्य स्वयं उसके साथ चार कदम (धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष, सहित ब्रह्मचर्य-गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास के चार आश्रम, ब्राह्मण, क्षत्रिय-वैश्य और शूद्र के चार वर्णों के प्रतीक) चलता था। आज के संविधानों में यह व्यवस्था भी नही है। फलस्वरूप समाज में चारों ओर बिखराव है, विखण्डन है, टूटन है और अलगाव है।
संसार में जितनी भर भी विद्याएं हैं वे सब भी राजधर्म में सन्निहित होनी चाहिए। विद्याएं विज्ञानवाद पर आधृत होती हैं, और उनमें विज्ञान एवं तर्क के विरूद्घ किसी भी मान्यता के लिए कोई स्थान नही होता है। यदि विज्ञान और तर्क के विरूद्घ किसी प्रकार की मान्यताओं को संविधान पोषित करता है, या उन पर मौन रहकर अपनी सहमति और सम्मति प्रदान करता है तो ऐसे संविधानों को पंगु कहा जाना चाहिए, जिनमें सत्य विज्ञान और तर्क के अनुसार अपने समाज को ढालने की क्षमता नही होती है। ऐसे संविधान अपने देशवासियों की ऐसी साम्प्रदायिक मान्यताओं की पुष्टि करते दिखते हैं जो सत्य, विज्ञान और तर्क के सर्वथा विपरीत होती है। उनसे वह यह कहकर बच जाता है कि राजनीति का धर्म से कोई संबंध नही है। जबकि सच तो यह है कि धर्म ही राजनीति को मर्यादित और संयमित करता है। पर जब राजनीति या राजधर्म पंगु हो जाता है तो वह रूढि़वाद के साथ समझौतावादी दृष्टिकोण अपनाने पर विवश हो जाता है।
अब इस श्लोक के अंतिम पड़ाव पर आते हैं। जिसमें कहा गया है कि राजधर्म में सारे लोकों का समावेश है। यह संपूर्ण भूमंडल आज मानव ने राजनीति के नाम से विभिन्न देशों में विभाजित कर लिया है। जिसे मानव अपनी उन्नति कहता है, वह वास्तव में उसी न होकर अवन्नति है। क्योंकि विभाजन राजधर्म का अंतिम उद्देश्य नही है। राजनीति या राजधर्म का अंतिम उद्देश्य तो समायोजन है। आयोजन में यदि समायोजन ना हो तो सम्मेलन नही हो पाता और सम्मेलन के अभाव में जीवन मेला भी उदास हो जाता है। मनुष्य की प्रतिभा को मुखरित करना राजधर्म का उद्देश्य है, जिसके लिए उसे स्वतंत्र पंछी की भांति सर्वलोकों में ज्ञान विज्ञान की उड़ान भरने देनी चाहिए। संविधान को ऐसे राजधर्म की और राजधर्म को ऐसे विज्ञानसम्मत संविधान की स्थापना पर बल देना चाहिए।
हम निस्संकोच कह सकते हैं कि महाभारत के इस श्लोक में महाभारतकार ने जितने उच्च चिंतन को प्रकट किया है, उतना संसार के प्रचलित संविधानों के मोटे-मोटे गं्रथों की अनेकों धाराओं ने भी मिलकर नही किया है। हमारा मानना है कि सारा परिश्रम व्यर्थ ही गया। भारत के संविधान को दो वर्ष 11 माह और 18 दिन में बनाकर तैयार किया गया, परंतु उसमें भारतीयता का पुट कहीं से भी नही आता। हमारे संविधान को 65 वर्ष लागू हुए हो गये हैं बहुत लोगों ने इसमें भारतीय आत्मा को खोजने का प्रयास किया पर वह मिली नही। इसके लिए एक शुभ संकेत यही है कि हमने जितनी भर भी उन्नति की है, उसके लिए भी इसी संविधान को श्रेय दिया जाता है। पर क्या उन्नति सही दिशा में हुई और क्या हम अपनी मंजिल को प्राप्त कर सके, या कहीं भटक गये? ये प्रश्न भी कम मार्मिक नही है।