रचना और प्रलय
तर्ज :- कह रहा है आसमां कि यह समा …….
रचना भी करता हूँ मैं ही , पालना करता हूँ मैं।
सब चराचर की जगत में प्रलय भी करता हूँ मैं।।
अहंकार वश जिसने किया जीना कठिन संसार का।
ऐसे हर इक दुष्ट जन का संहार भी करता हूँ मैं ।।
झोपड़ी जिनकी जलीं महलों से निकली आग से।
फिर उठाता हूँ उन्हें आबाद भी करता हूँ मैं।।
मुंडेर की चिड़िया ने मांगा दाना किसी कंजूस से।
कर दिया उसने मना , भंडार भी भरता हूँ मैं ।।
उजड़ गई हों बस्तियां और टूट गई हों किश्तियाँ ।
पतझड़ जहां पसरा हुआ हो वसंत भी करता हूं मैं।।
ज्योति आंखों की गई और कान भी बहरे हुए।
मौन वाणी हो गई तो नव- प्राण भी भरता हूँ मैं।।
गहरे अंधेरे ने कहा – अब प्रकाश तो संभव नहीं।
गहरी निशा के बाद आकर प्रकाश भी करता हूँ मैं।।
संभावनाएं क्षीण होती जा रही हों जब कभी।
दिल की अंधेरी कोठरी में प्रकाश भी करता हूँ मैं।।
जब धैर्य भी टूट जाए साहस भी छोड़े हाथ को।
मित्र सारे भाग जाएं आशा नई भरता हूँ मैं ।।
सेना पराजित हो गई और गुलामी ने जकड़ा देश को।
दीपक की मद्धम लौ पड़ी , नया तेल भी भरता हूँ मैं।।
भूमि ,अग्नि, वायु ,जल , आकाश, मन और बुद्धि भी।
अहंकार की मेरी आठ शक्ति, रचना भी करता हूँ मैं।।
संसार में जड़ और चेतन – दो तत्व दिखलाई पड़ें।
यह दोनों मेरे रूप हैं , नवसृजना भी करता हूं मैं।।
जड़ और चेतन दोनों मिलकर शरीर ईश्वर का बनें।
दर्शन करो इनमें ही मेरे, नवचेतना भरता हूँ मैं।।
चलते-चलते थक गए तो नहीं बैठना किसी हाल में।
लेंगे दम मंजिल पे जाकर, बस हौंसला भरता हूँ मैं ।।
जब तलक हैं शेष सांसें , झुकना नहीं किसी मोल भी।
मेरे भक्तों का सम्मान हो , प्रबंध भी करता हूँ मैं।।
यह गीत मेरी पुस्तक “गीता मेरे गीतों में” से लिया गया है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित की गई है । पुस्तक का मूल्य ₹250 है। पुस्तक प्राप्ति के लिए मुक्त प्रकाशन से संपर्क किया जा सकता है। संपर्क सूत्र है – 98 1000 8004
डॉ राकेश कुमार आर्य