ओबामा बदलें एशिया की तस्वीर
अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा चार साल में दूसरी बार भारत आ रहे हैं। यूं तो आइजनहाॅवर, निक्सन, कार्टर, क्लिंटन और बुश आदि कई अमेरिकी राष्ट्रपति भारत आ चुके हैं, लेकिन अपने कार्यकाल में दुबारा भारत आने वाले बराक ओबामा पहले अमेरिकी राष्ट्रपति हैं। यूं भी अमेरिकी नेता भारत के साथ-साथ प्रायः पाकिस्तान भी जाते हैं या इसे उलटकर भी कह सकते हैं। वे पाकिस्तान जाते-जाते भारत पर भी मेहरबानी कर देते हैं।
ओबामा इस बार सिर्फ भारत और भारत आ रहे हैं। इससे भी बड़ी बात यह कि वे गणतंत्र दिवस के मेहमान होंगे। वे स्वयं चकित हैं कि उन्हें भारत का सबसे बड़ा मेहमान उस आदमी ने बनाया है, जिसे अमेरिका ने लगभग एक दशक से वीज़ा से वंचित कर रखा था। नरेंद्र मोदी यह कैसे भूल सकते थे कि उनके प्रधानमंत्री बनने के पहले ही ओबामा ने बधाई देने का सत्साहस किया था। चार माह पहले ओबामा ने वॉशिंगटन में मोदी का भाव-भीना स्वागत करके दोनों राष्ट्रों के बीच नई पहल का मार्ग प्रशस्त कर दिया था। अब जबकि ओबामा भारत में होंगे, दोनों देशों के सामने मूलतः दो तरह की समस्याएं होंगी।
एक तो विश्व-राजनीति से संबंधित और दूसरी शुद्ध द्विपक्षीय। द्विपक्षीय समस्याएं तात्कालिक हैं और विश्व-राजनीति की समस्या दीर्घकालिक, लेकिन दोनों तरह की समस्याओं का समाधान साथ-साथ करना होगा। दोनों तरह के समाधान एक-दूसरे को प्रभावित करते चलेंगे। जहां तक विश्व-राजनीति की समस्याओं का प्रश्न है, अमेरिका को सबसे पहले यह तय करना होगा कि एशिया की भावी राजनीति का स्वरूप 21वीं सदी में कैसा होगा? क्या वह एशिया को चीन के हवाले कर देगा? यह ठीक है कि एशिया में चीन की भूमिका का अत्यधिक महत्व है, लेकिन क्या ओबामा अब भी चीन को एशिया की ‘धुरी’ मानते हैं? यह ठीक है कि चीन-अमेरिका संबंध अत्यंत घनिष्ट और व्यापक हैं तथा चीनी सभ्यता अब अमेरिकी उपभोक्तावाद का अंधानुकरण कर रही है, लेकिन चीनी अर्थव्यवस्था की गिरावट की ताज़ा घोषणाओं से अमेरिका कुछ सबक लेगा या नहीं? भारत के स्वर्णिम भविष्य के प्रकाश में वह एशिया में भारत की विशिष्ट भूमिका को मान्यता देगा या नहीं?
दूसरा, मैं पूछता हूं कि दक्षिण एशिया में भारत की वही भूमिका क्यों नहीं होनी चाहिए, जो अमेरिकी महाद्वीप में संयुक्त राज्य अमेरिका की है? भारत अपने सारे पड़ोसियों को मिला देने पर भी उनसे बड़ा है। भारत के सभी पड़ोसी राष्ट्र सदियों से भारत के अंग रहे हैं और भारत उनका अंग रहा है। अमेरिका ने जैसे यूरोपीय राष्ट्रों का संघ बनाने में मदद की, वैसे ही वह ‘दक्षेस’ की मदद क्यों नहीं करता? आजकल दक्षेस में आठ राष्ट्र हैं। इन्हें 16 क्यों नहीं कर दिया जाए? इनमें बर्मा, ईरान, उज्बेकिस्तान, कजाकिस्तान, किर्गिजस्तान, ताजििकस्तान, तुर्कमेनिस्तान और मॉरिशस को भी क्यों नहीं जोड़ लिया जाए? ये सभी राष्ट्र प्राचीन आर्य परिवार के सदस्य हैं। इनका संघ दुनिया के किसी भी संघ से कमजोर नहीं होगा।
तीसरा, दक्षिण-एशिया की एकता और समृद्धि का सबसे बड़ा रोड़ा भारत-पाक संबंध हैं। पिछले कुछ वर्षों तक अमेरिका ने दोनों देशों के बीच नकली शक्ति-संतुलन का सिद्धांत अपना रखा था। उसी के कारण भारत-पाक युद्ध हुए और आतंकवाद फैला। जब आतंकवाद ने खुद अमेरिका का टेंटुआ कसा तो अमेरिका को थोड़ा होश आया। अमेरिका ने पाकिस्तान को अपना मोहरा बनाया और अपने स्वार्थ साधे। अब अमेरिका ने आतंकवाद के विरुद्ध जो ताज़ा रुख अपनाया है, वह सराहनीय है, लेकिन ज्यादा जरूरी यह है कि वह पाकिस्तान को एक स्वस्थ और सहज राज्य बनने में मदद करे। पाकिस्तान संपन्न और शांतिपूर्ण राज्य तभी बनेगा जब भारत के साथ उसके संबंध अच्छे होंगे। इसका मतलब यह नहीं कि वह भारत का पिछलग्गू बन जाए। वह एक संप्रभु, स्वाभिमानी और शक्तिशाली राष्ट्र बना रहे, लेकिन वह अमेरिका या चीन का मोहरा न बने। क्या ओबामा कोई आश्वासन देंगे? यदि भारत-पाक संबंध सहज हो जाएं तो अमेरिकी वापसी के बाद अफगानिस्तान को संभाले रखना बहुत आसान हो जाएगा।
चौथा, अमेरिका आजकल रूस और चीन के एकमत से परेशान रहता है। यूक्रेन, सीरिया और ईरान के सवाल पर अमेरिका इनसे खफा है। ‘ब्रिक्स’ संगठन के कारण कभी-कभी भारत पर भी संदेह किया जाता है। अमेरिकी नीति-निर्माता जानते हैं कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और वह किसी भी महाशक्ति का पिछलग्गू नहीं बन सकता। कई मुद्दों पर अमेरिका से उसका मतभेद हो सकता है तथा चीन और रूस से सहमति, लेकिन जहां तक विश्व-राजनीति का सवाल है, दोनों राष्ट्र जितनी दूर तक साथ-साथ चल सकते हैं, कोई अन्य दो बड़े राष्ट्रों की जोड़ी नहीं चल सकती।
इसीलिए दोनों राष्ट्रों को सबसे पहले अपने द्विपक्षीय संबंधों की बाधाएं दूर करनी चाहिए और उन्हें सभी आयामों में सुदृढ़ बनाना चाहिए। यह कितनी विचित्र बात है कि 2005 में हुए सामरिक सहयोग और 2008 में हुए परमाणु सौदे के समझौते अभी तक कागजों में ही सिमटे हुए हैं। अमेरिका अपने हथियार भारत को जरूर बेचे, लेकिन उन्हें बनाने की फेक्ट्रियां वह यहां क्यों नहीं खोलता? मोदी सरकार ने सारे दरवाजे खोल दिए हैं, फिर भी अमेरिका ठिठका हुआ क्यों है? इसी तरह से परमाणु दुर्घटना के वक्त हर्जाने के सवाल पर अमेरिका अटक गया है। लंदन में बैठकर हमारे और उनके अधिकारियों ने जो ताजा बातचीत की है, उम्मीद है उसके आधार पर ओबामा हल निकाल लेंगे।
यदि भारत में जापान 35 अरब और चीन 20 अरब डाॅलर के विनियोग की घोषणा कर सकते हैं तो अमेरिका तो कम से कम 100 अरब डाॅलर लगा सकता है। 2013-14 में जो कुल विदेशी पूंजी भारत में लगी है, उसकी सिर्फ 6 प्रतिशत अमेरिका से आई है। क्या वजह है कि अमेरिका अपने 100 अरब डाॅलर के व्यापार को भारत के साथ कुछ ही वर्षों में 500 अरब डाॅलर का नहीं कर सकता? 30 लाख भारतवंशी अमेरिकी अर्थव्यवस्था की रीढ़ बन चुके हैं। वह दिन दूर नहीं जबकि कोई भारतवंशी अमेरिका का राष्ट्रपति बन जाए। यदि बराक हुसैन ओबामा बन सकते हैं तो कोई मोहनलाल-सोहनलाल क्यों नहीं? अटलबिहारी वाजपेयी के शब्द हम न भूलें कि भारत और अमेरिका ‘स्वाभाविक-मित्र’ हैं।
आतंकवाद के विरुद्ध भारत और अमेरिका विश्व-मोर्चा खड़ा कर सकते हैं। दोनों के संयुक्त नेतृत्व में चीन, फ्रांस, जापान, पाकिस्तान, अफगानिस्तान जैसे सभी आतंकवाद से पीड़ित राष्ट्र एकजुट हो सकते हैं। भारत पश्चिम एशिया के संकटों में भी विशेष भूमिका निभा सकता है। वह ईरान-अमेरिकी कड़वाहट को दूर करने में मददगार हो सकता है। अमेरिका भारत को सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य तथा परमाणु सप्लायर्स ग्रुप का सदस्य बनवाने में सक्रियता क्यों नहीं दिखाता? यह ठीक है कि ओबामा अपने कार्यकाल के आखिरी दौर में हैं लेकिन इन शेष दो वर्षों में भी वे भारत-अमेरिका द्विपक्षीय संबंधों की ऐसी नींव रख सकते हैं, जो अगले दस वर्षों में एशिया की शक्ल ही बदल दें।
वेप्रताप वैदिक
भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष