आयरलैंड के डबलिन में जॉन स्कॉटस सीनियर स्कूल के संस्कृत शिक्षक रटगर कोर्टेनहोस्र्ट का सम्बोधन जो भारतीय धरोहर पत्रिका में वर्ष 2015 में प्रकाशित हुआ है –
देवियों और सज्जनों, हम यहां एक घंटे तक साथ मिल कर यह चर्चा करेंगे कि जॉन स्कॉट्टस विद्यालय में आपके बच्चे को संस्कृत क्यों पढऩा चाहिए? मेरा दावा है कि इस घंटे के पूरे होने तक आप इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि आपका बालक भाग्यशाली है जो संस्कृत जैसी असाधारण भाषा उसके पाठ्यक्रम का हिस्सा है।
सबसे पहले हम यह विचार करते हैं कि संस्कृत क्यों पढ़ाई जाए? आयरलैंड में संस्कृत को पाठ्यक्रम में शामिल करने वाले हम पहले विद्यालय हैं। ग्रेट ब्रिटेन और विश्व के अन्य हिस्सों में जॉन स्काट्टस के 80 विद्यालय चलते जहां संस्कृत को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। दूसरा सवाल है कि संस्कृत पढ़ाई कैसे जाती है? आपने ध्यान दिया होगा कि आपका बच्चा विद्यालय से घर लौटते समय कार में बैठे हुए मस्ती में संस्कृत व्याकरण पर आधारित गाने गाता होगा। मैं आपको बताना चाहूंगा कि भारत में अध्ययन करने के समय से लेकर आज तक संस्कृत पढ़ाने को लेकर हमारा क्या दृष्टिकोण रहा है। लेकिन पहला सवाल है संस्कृत क्यों? इसका उत्तर देने से पहले हमें संस्कृत के गुणों पर ध्यान देना होगा। अपनी आवाज की सुमधुरता, उच्चारण की शुद्धता और रचना के सभी आयामों में संपूर्णता के कारण यह सभी भाषाओं से श्रेष्ठ है। यही कारण है कि अन्य भाषाओं की भांति मौलिक रूप से कभी भी इसमें पूरा परिवर्तन नहीं हुआ। मनुष्य के इतिहास की सबसे पूर्ण भाषा होने के कारण इसमें परिवर्तन की कभी कोई आवश्यकता ही नहीं पड़ी।
यदि हम शेक्सपीयर की अंग्रेजी को देखें तो हमें पता चलेगा कि वह हमारे लिए आज कितनी अलग और कठिन है जबकि वह मात्र 500 वर्ष पुरानी अंग्रेजी है। हमें शेक्सपीयर और किंग जेम्स बाइबिल की अंग्रेजी को समझने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती है। इससे थोड़ा और पीछे चले जाएं तो केवल सात सौ साल पुरानी कैसर की पुस्तक पिलिग्रिम्स प्रोग्रेस में अंग्रेजी का कुछ भी ओर-छोर पता नहीं चलेगा। हम उस भाषा को आज अंग्रेजी की बजाय एंग्लो-सेक्शन कहते हैं। अंग्रेजी तो तब पैदा भी नहीं हुई थी।
सारी भाषाएं बिना किसी पहचान के बदलती रहती हैं। वे बदलती हैं क्योंकि वे दोषयुक्त हैं। आने वाले परिवर्तन वास्तव में विकृतियां हैं। विशाल रेडवुड वृक्ष के जीवनकाल की भांति ये 7-8 सौ वर्षों में पैदा होती हैं और मर जाती हैं, क्योंकि इतनी विकृतियों के बाद उनमें कोई जीवंतता नहीं बची होती। आश्चर्यजनक रूप से संस्कृत इसका एकमात्र अपवाद है। यह अमर भाषा है। इसके गठन का संपूर्ण और सुविचारित होना ही इसकी निरंतरता का कारण है। इसके व्याकरण और शब्द-रचना की पहुंच से एक भी शब्द छूट नहीं पाया है। इसका अर्थ यह है कि हरेक शब्द के मूल का पता लगाया जा सकता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि इसमें नए शब्द नहीं रचे जा सकते। जिसप्रकार हम अंग्रेजी में ग्रीक और लैटिन के पुराने विचारों का उपयोग करके नए शब्द गढ़ते हैं, जैसे कि टेली (दूर) विजन (दर्शन) और कम्प्यूट (गणना) अर आदि। इसी प्रकार संस्कृत में छोटे शब्दों और हिस्सों से बड़े जटिल शब्दों की रचना की जाती है। तो एक मौलिक और अपरिवर्तनीय भाषा को जानने का क्या लाभ है? जैसे कि एक सदा साथ रहने वाले दोस्त का क्या लाभ है? वह विश्वसनीय होता है।
पिछली कुछ शताब्दियों में विश्व को संस्कृत के असाधारण गुणों का पता चला है और इसलिए अनेक देशों के विश्वविद्यालय में आपको संस्कृत विभाग मिलेगा। चाहे आप हवाई जाएं या कैंब्रिज या हार्वर्ड और यहां तक कि ट्रिनिटी विश्वविद्यालय, डबलिन, सभी में एक संस्कृत विभाग है। हो सकता है कि आपका बच्चा इनमें से किसी एक विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग का प्रोफेसर बने। हालांकि भारत इसका आदि देश है लेकिन आज संस्कृत की वैश्विक पूछ बढ़ी है। इस भाषा में उपलब्ध ज्ञान ने पश्चिम को आकर्षित किया है। चाहे वह आयुर्वेद हो या फिर योग, ध्यान की तकनीकि हों या फिर हिंदुत्व, बौद्ध जैसे अनेक व्यावहारिक दर्शन, इनका हम अपने यहां उपयोग कर रहे हैं। इनसे स्थानीय परंपराओं और पंथों के साथ विवाद समाप्त करके समायोजन और जागरूकता फैलाते हैं।
संस्कृत में उच्चारण की शुद्धता अतुलनीय है। संस्कृत की शुद्धता अक्षरों के वास्तविक आवाज की संरचना और निश्चितता पर आधारित है। हरेक वर्ण के उच्चारण का स्थान निश्चित (मुख, नाक और गले में) और अपरिवर्तनीय है। इसलिए संस्कृत में अक्षरों को कभी भी समाप्त न होने वाला बताया गया है। इसलिए उच्चारण के स्थान और इसके लिए मानसिक और शारीरिक सिद्धता का पूर्ण नियोजन किया गया है। इस वर्णन को देखने के बाद हम विचार करें कि अंग्रेजी के अक्षरों ए, बी, सी, डी, ई, एफ, जी आदि में क्या कोई संरचना है सिवाय इसके कि यह ए से शुरू होती है।
आप कह सकते हैं कि ठीक है लेकिन हमारे बच्चे को एक और विषय और एक और लिपि क्यों पढऩा चाहिए। आज के पश्चिम जगत में उसे इससे किस प्रकार का लाभ पहुंच सकता है? पहली बात है कि संस्कृत के गुण आपके बच्चे में आ जाएंगे। वह शुद्ध, सुंदर और विश्वसनीय बन जाएगा। संस्कृत स्वयं ही आपके बच्चे या इसे पढऩे वाले किसी को भी अपनी अलौकिक शुद्धता के कारण ध्यान देना सिखा देगी। जब शुद्धता होती है तो आप आगे बढ़ता महसूस करते हैं। यह आपको प्रसन्न करता है। ध्यान की यह शुद्धता जीवन के सभी विषयों, क्षेत्रों और गतिविधियों चाहे आप विद्यालय में हो या उसके बाहर, में आपकी सहायता करती है। इससे आपका बच्चा अन्य बच्चों से प्रतियोगिताओं में आगे हो जाएगा। वे अधिक सहजता, सरलता और संपूर्णता में बातों को ग्रहण कर पाएंगे। इस कारण संबंधों, कार्यक्षेत्र और खेल, जीवन के हरेक क्षेत्र में वे बेहतर प्रदर्शन कर पाएंगे और अधिक संतुष्टी हासिल कर पाएंगे। आप जब पूरा प्राप्त करेंगे तो आप भरपूर आनंद भी उठा पाएंगे।
संस्कृत के अध्ययन से अन्य भाषाओं को भी सरलता से सीखा जा सकता है, क्योंकि सभी भाषाएं एक दूसरे से कुछ न कुछ लेती हैं। संस्कृत व्याकरण आयरिश, ग्रीक, लैटिन और अंग्रेजी में परिलक्षित होती है। इन सभी में संपूर्ण संस्कृत व्याकरण का कुछ हिस्सा है। कुछ में व्याकरण कुछ अधिक विकसित हो गया है, लेकिन उनमें भी संस्कृत व्याकरण का कुछ हिस्सा पाया जाता है और जो अपने आप में परिपूर्ण होता है।
संस्कृत हमें सिखाती है कि भाषा व्यवस्थित होती है और नियमों का पूरी तरह पालन करती है जिन्हें प्रयोग करने पर हमारे बच्चे भी विकसित होते हैं। इसका अर्थ है कि वे अस्वाभाविक रूप से शुद्ध, निश्चित और भाषा में साफ अंतर्दृष्टि वाले हो जाते हैं। सभी भाषाओं की माता संस्कृत से वे अच्छी तरह बोलना सीख जाते हैं। जो अच्छे से बोलना जानते हैं, वे दुनिया पर राज करते हैं। यदि आपके बच्चे एक चैतन्य भाषा में अभिव्यक्त करना सीख पाएंगे तो वे अगली पीढ़ी का नेतृत्व कर पाएंगे।
वेदों और गीता के रूप में संस्कृत का साहित्य दुनिया का सबसे व्यापक साहित्य है। विलियम बटलर यीट्स द्वारा किया गया उपनिषदों के भाष्य ने दुनिया के लोगों को वैश्विक धर्म की अनुभूति कराई है। इन पुस्तकों को सीधा पढऩा उनके अनुवादों को पढऩे से कहीं बेहतर होगा क्योंकि अनुवाद मूल से बेहतर नहीं होता। आज मजहबी विचारों को कम समझने और अपरिपक्व मजहबी विचारों के कारण पूरी दुनिया में मजहबी मतांधता और कट्टरता बढ़ रही है, ऐसे में वैश्विक धर्म के बारे में एक साफ जानकारी का होना आवश्यक है।
वैश्विक, समन्वयकारी और सीधी-सरल सच्चाइयों को अभिव्यक्त करने में संस्कृत आपके बच्चे की सहायता कर सकती है। परिणामस्वरूप आप अपने अभिभावकत्व का सही ढंग से निर्वहन कर पाएंगे और दुनिया अधिक सौहाद्र्रपूर्ण, मानवीय और एकात्म समाज के रूप में इसका लाभ उठाएगी। संस्कृत की तुलना एक चौबीस घंटे साथ रहने वाले शिक्षक से कर सकते हैं। शेष भाषाएं कुछ ही समय साथ देती हैं। मुझ पर संस्कृत का पहला प्रभाव एक यथार्थवादी आत्मविश्वास के रूप में दिखा। दूसरे, मैं अधिक सूक्ष्मता से और सावधानीपूर्वक बोलने लगा हूँ। मेरी एकाग्रता और ग्राह्यता बढ़ गई है। हमने संस्कृत पाठ्यक्रम को पिछले वर्ष सितम्बर में शुरू किया है और इससे हमारे छात्रों के चेहरे पर मुस्कान ला दिया है। यह एक सुखद परिवर्तन है। मैं पूरी तरह आश्वस्त हूँ कि आपके बच्चों को हम एक संपूर्ण, सुगठित और आनंददायी पाठ्यक्रम उपलब्ध करा पा रहे हैं।
हम अपने 500 वर्ष के पुनर्जागरण के चक्र को देखें। अंतिम यूरोपीय पुनर्जागरण में तीन चीजों का विकास हुआ – कला, संगीत और विज्ञान, जिससे हमने आज की दुनिया का निर्माण किया है। आज हम नए प्रेरक समय में हैं और नए पुनर्जागरण की शुरुआत हो रही है। यह पुनर्जागरण भी तीन बातों पर आधारित है – अर्थ-व्यवस्था, कानून और भाषा। भाषा को और अधिक वैश्विक होना होगा ताकि हम सेकेंडों में एक-दूसरे से संपर्क कर सकें। अमेरिका के स्पेस कार्यक्रम नासा आईटी और आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस के विकास के लिए संस्कृत की ओर ही देख रही है।
जॉन स्कॉट्टस के छात्रों का अनुभव है कि संस्कृत उनके मस्तिष्क को तेज, साफ और उर्वर बनाती है। यह उन्हें शांत और खुश करती है। यह हमें बड़ा सोचने के लिए प्रेरित करती है। यह हमारी जिह्वा को साफ और लचीली बनाती है जिससे हम किसी भी भाषा का उच्चारण कर सकंते हैं। अंत में मैं नासा के रिक ब्रिग की एक बात उद्धरित करना चाहुंगा। संस्कृत पूरे ग्रह की भाषा बन सकती है यदि इसे उत्साहवर्धक और आनंददायी तरीके से पढ़ाया जाए।
✍🏻साभार – भरतीय धरोहर
संस्कृत एक ऐसी भाषा है जिसको गाली देने वाले कभी उसे पढ़ते नहीं हैं,और स्वयं को तार्किक,चिंतक,बुद्धिजीवी कहते हैं,, ख़ैर आप लोग मार्कण्डेय पुराण में मदालसा के द्वारा अपने बच्चों को सुनाई गई लोरी सुनिए:–
शुद्धोसि बुद्धोसि निरंजनोऽसि,संसारमाया परिवर्जितोऽसि
संसारस्वप्नं त्यज मोहनिद्रामदालसोल्लपमुवाच पुत्रम्॥
पुत्र यह संसार परिवर्तनशील और स्वप्न के सामान है इसलिये
मॊहनिद्रा का त्याग कर क्योकि तू शुद्ध ,बुद्ध और निरंजन है।
शुद्धो sसिं रे तात न तेsस्ति नाम कृतं हि ते कल्पनयाधुनैव ।
पंचात्मकम देहमिदं न तेsस्ति नैवास्य त्वं रोदिषि कस्य हेतो: ॥
हे लाल! तू तो शुद्ध आत्मा है, तेरा कोई नाम नहीं है। यह कल्पित नाम तो तुझे अभी मिला है। वह शरीर भी पाँच भूतों का बना हुआ है। न यह तेरा है, न तू इसका है। फिर किसलिये रो रहा है?
न वा भवान् रोदिति वै स्वजन्मा शब्दोsयमासाद्य महीश सूनुम् ।
विकल्प्यमाना विविधा गुणास्ते-sगुणाश्च भौता: सकलेन्द्रियेषु ॥
अथवा तू नहीं रोता है, यह शब्द तो राजकुमार के पास पहुँचकर अपने आप ही प्रकट होता है। तेरी संपूर्ण इन्द्रियों में जो भाँति भाँति के गुण-अवगुणों की कल्पना होती है, वे भी पाञ्चभौतिक ही है?
भूतानि भूतै: परि दुर्बलानि वृद्धिम समायान्ति यथेह पुंस: ।
अन्नाम्बुदानादिभिरेव कस्य न तेsस्ति वृद्धिर्न च तेsस्ति हानि: ॥
जैसे इस जगत में अत्यंत दुर्बल भूत, अन्य भूतों के सहयोग से वृद्धि को प्राप्त होते है, उसी प्रकार अन्न और जल आदि भौतिक पदार्थों को देने से पुरुष के पाञ्चभौतिक शरीर की ही पुष्टि होती है । इससे तुझ शुद्ध आत्मा को न तो वृद्धि होती है और न हानि ही होती है।
त्वं कञ्चुके शीर्यमाणे निजेsस्मिं- स्तस्मिश्च देहे मूढ़तां मा व्रजेथा:
शुभाशुभै: कर्मभिर्दहमेत- न्मदादि मूढै: कंचुकस्ते पिनद्ध: ॥
तू अपने उस चोले तथा इस देहरुपि चोले के जीर्ण शीर्ण होने पर मोह न करना। शुभाशुभ कर्मो के अनुसार यह देह प्राप्त हुआ है। तेरा यह चोला मद आदि से बंधा हुआ है, तू तो सर्वथा इससे मुक्त है ।
तातेति किंचित् तनयेति किंचि- दम्बेती किंचिद्दवितेति किंचित्
ममेति किंचिन्न ममेति किंचित् त्वं भूतसंग बहु मानयेथा: ॥
कोई जीव पिता के रूप में प्रसिद्ध है, कोई पुत्र कहलाता है, किसी को माता और किसी को प्यारी स्त्री कहते है, कोई “यह मेरा है” कहकर अपनाया जाता है और कोई “मेरा नहीं है”, इस भाव से पराया माना जाता है। इस प्रकार ये भूतसमुदाय के ही नाना रूप है, ऐसा तुझे मानना चाहिये ।
दु:खानि दु:खापगमाय भोगान् सुखाय जानाति विमूढ़चेता: ।
तान्येव दु:खानि पुन: सुखानि जानाति विद्वानविमूढ़चेता: ॥
यद्यपि समस्त भोग दु:खरूप है तथापि मूढ़चित्तमानव उन्हे दु:ख दूर करने वाला तथा सुख की प्राप्ति करानेवाला समझता है, किन्तु जो विद्वान है, जिनका चित्त मोह से आच्छन्न नहीं हुआ है, वे उन भोगजनित सुखों को भी दु:ख ही मानते है।
हासोsस्थिर्सदर्शनमक्षि युग्म- मत्युज्ज्वलं यत्कलुषम वसाया: ।
कुचादि पीनं पिशितं पनं तत् स्थानं रते: किं नरकं न योषित् ॥
स्त्रियों की हँसी क्या है, हड्डियों का प्रदर्शन । जिसे हम अत्यंत सुंदर नेत्र कहते है, वह मज्जा की कलुषता है और मोटे मोटे कुच आदि घने मांस की ग्रंथियाँ है, अतः पुरुष स्त्री के जिन अङ्गों पर कामुक हो अनुराग करता है, क्या वह नरक की जीती जागती मूर्ति नहीं है?
यानं क्षितौ यानगतश्च देहो देहेsपि चान्य: पुरुषो निविष्ट: ।
ममत्वमुर्व्यां न तथा यथा स्वे देहेsतिमात्रं च विमूढ़तैषा ॥
पृथ्वी पर सवारी चलती है, सवारी पर यह शरीर रहता है और इस शरीर में भी एक दूसरा पुरुष बैठा रहता है, किन्तु पृथ्वी और सवारी में वैसी अधिक ममता नहीं देखी जाती, जैसी कि अपने देह में दृष्टिगोचर होती है। यही मूर्खता है ।
धन्योs सि रे यो वसुधामशत्रु- रेकश्चिरम पालयितासि पुत्र ।
तत्पालनादस्तु सुखोपभोगों धर्मात फलं प्राप्स्यसि चामरत्वम ॥
धरामरान पर्वसु तर्पयेथा: समीहितम बंधुषु पूरयेथा: ।
हितं परस्मै हृदि चिन्तयेथा मनः परस्त्रीषु निवर्तयेथा: ॥
सदा मुरारिम हृदि चिन्तयेथा- स्तद्धयानतोs न्त:षडरीञ्जयेथा: ।
मायां प्रबोधेन निवारयेथा ह्यनित्यतामेव विचिंतयेथा: ॥
अर्थागमाय क्षितिपाञ्जयेथा यशोsर्जनायार्थमपि व्ययेथा:।
परापवादश्रवणाद्विभीथा विपत्समुद्राज्जनमुध्दरेथाः॥
बेटा ! तू धन्य है, जो शत्रुरहित होकर अकेला ही चिरकाल तक इस पृथ्वी का पालन करता रहेगा। पृथ्वी के पालन से तुझे सुखभोगकी प्राप्ति हो और धर्म के फलस्वरूप तुझे अमरत्व मिले। पर्वों के दिन सब को भोजन द्वारा तृप्त करना, बंधु-बांधवों की इच्छा पूर्ण करना, अपने हृदय में दूसरों की भलाई का ध्यान रखना और परायी स्त्रियों की ओर कभी मन को न जाने देना । अपने मन में सदा भगवान का चिंतन करना, उनके ध्यान से अंतःकरण के काम-क्रोध आदि छहों शत्रुओं को जीतना, ज्ञान के द्वारा माया का निवारण करना और जगत की अनित्यता का विचार करते रहना । धन की आय के लिए राजाओं पर विजय प्राप्त करना, यश के लिए धन का सद्व्यय करना, परायी निंदा सुनने से डरते रहना तथा विपत्ति के समुद्र में पड़े हुए लोगों का उद्धार करना ।
✍🏻श्वेताभ