स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद जैसे संतों ने जगाई राष्ट्रीय चेतना
अमृत महोत्सव लेखमाला
सशस्त्र क्रांति के स्वर्णिम पृष्ठ — भाग-17
नरेन्द्र सहगल
विश्व के एकमात्र प्रथम राष्ट्र भारत को यदि ‘अध्यात्मिक राष्ट्र’ की संज्ञा से सम्मानित किया जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। भारतीय संतों ने सदैव ‘भक्ति से शक्ति’ के सिद्धांत को चरितार्थ करते हुए समाज को जागृत रखा। विदेशी एवं विधर्मी आक्रांताओं द्वारा जब भी भारत पर आक्रमण करके यहां के जीवन मूल्यों को समाप्त करने का प्रयास किया गया, हमारे इन्हीं आध्यात्मिक संतों ने समाज को जगा कर एकात्मता स्थापित करने के अपने राष्ट्रीय कर्तव्य की पूर्ति की।
चिर सनातन काल से आज तक हमारी संत शक्ति अपने राष्ट्रीय दायित्व को निभाती चली आ रही है। जब रावण की राक्षसी वृत्ति ने सर उठाया तो विश्वामित्र, अगस्त्य और वशिष्ठ इत्यादि संतो द्वारा प्रतिष्ठापित क्षात्र धर्म में से धनुर्धारी राम प्रकट हुए। महाभारत काल में अधर्म का विनाश करने के लिए महर्षि वेदव्यास और संदीपन गुरु के आश्रम से प्रशिक्षण लेकर स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अर्जुन जैसे महारथी योद्धा को रणक्षेत्र में उतारा।
बौद्ध युग में भी यही परंपरा सामने आई। जब हमारे ही राज्याधिकारियों ने विदेशी आक्रमणकारियों को बुलाकर उनकी सहायता की तो पुनः एक महासंत आदि शंकराचार्य ने राष्ट्रीय चेतना को जागृत करके राष्ट्रद्रोहियों के उच्छेदन का सफल कार्य संपन्न किया। इसी के फलस्वरूप चाणक्य जैसे धुरंधर राष्ट्रनायकों ने चंद्रगुप्त जैसे वीरव्रती सम्राट तैयार किए। इस तरह विदेशी आक्रांताओं को समाप्त किया जा सका।
आगे चलकर स्वामी विद्यारण्य द्वारा चलाई गई भक्ति की प्रचंड लहर में से महाराज कृष्णदेव जैसे शूरवीर निकले, जिन्होंने वैभवशाली विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की। इस्लामिक आक्रांताओं के समय भी तुलसीदास, चैतन्य, ज्ञानेश्वर, रामानंद, समर्थ गुरु रामदास, श्री गुरु नानक देव जी एवं नामधारी सतगुरु रामसिंह कूका इत्यादि संतों द्वारा किए गए भक्ति आंदोलन के परिणाम स्वरूप छत्रपति शिवाजी महाराज एवं भारत-रक्षक खालसा पंथ के संस्थापक दशमेश पिता श्री गुरु गोविंद सिंह जी महाराज प्रकट हुए जिन्होंने मुगलिया दहशतगर्दी की ईंट से ईंट बजा दी।
भारत पर अवैध कब्जा किए बैठे विदेशी एवं विधर्मी फिरंगियों (अंग्रेजों) के समय में भी हमारे संतों, महात्माओं ने आगे आकर समाज में वीरव्रतम् भाव उत्पन्न करने का सफल प्रयास किया। स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद, स्वामी रामतीर्थ इत्यादि संतो द्वारा उत्पन्न हिंदू जागृति में से ही नाना फडणवीस, तात्या टोपे, नामधारी स्वतंत्रता सेनानी, चंद्रशेखर आजाद, सरदार भगत सिंह, वीर सावरकर तथा सुभाष चंद्र बोस जैसे क्रांतिकारी उत्पन्न हुए।
इसी श्रेणी के महापुरुषों साबरमती के संत महात्मा गांधी और संघ संस्थापक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने स्वयं को तिल-तिल करके जलाकर पूरे भारत को एक सूत्र में बांधकर स्वतंत्रता आंदोलन को धार प्रदान की। जहां महात्मा गांधी ने अंग्रेजभक्त कांग्रेस के दोनों धड़ों को एक मंच पर लाने का कार्य किया, वहीं डॉ. हेडगेवार ने संघ की स्थापना करके शक्तिशाली हिंदू संगठन को तैयार कर दिया। परिणामस्वरूप महात्मा गांधी जी के नेतृत्व में हुए सभी सत्याग्रहों में संघ के स्वयंसेवकों की भागीदारी सबसे अधिक रही। स्वयंसेवक फांसी के तख्तों पर भी बलिदान हुए। अनेकों ने जेलों में यातनाएं सहीं। स्वयं डॉ. हेडगेवार भी दो बार जेल गए।
उपरोक्त संदर्भ में संत / महात्माओं की प्रेरणा, आशीर्वाद और उनके संगठन कौशल का विशेष महत्व है। स्वतंत्रता संग्राम में स्वामी दयानंद और उनके द्वारा स्थापित ‘आर्य समाज’ ने इस राष्ट्रनिष्ठ ‘धर्म जागरण’ में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पूरे भारत विशेषकर उत्तरी एवं मध्य भारत में ईसाई पादरियों के हिंदू विरोधी एजेंडे के परखच्चे उड़ा दिए। प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी एवं राष्ट्रवादी कांग्रेस (गरम दल) के ध्वजवाहक अमर शहीद लाला लाजपत राय के अनुसार – “स्वामी दयानंद पहले व्यक्ति थे जिन्होंने ‘भारत भारतीयों का’ का गगनभेदी नारा गुंजाया था। —- वे भारत में स्वदेशी के जनक थे, जिन्होंने कहा था कि विदेशी राज्य कभी भी स्वराज्य का प्रतिनिधि नहीं हो सकता।” इस ऐतिहासिक तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि स्वामी दयानंद ने न केवल 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की नींव ही रखी, अपितु वे इसके बाद भी 90 वर्षों तक अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े गए सशस्त्र एवं अहिंसक दोनों प्रकार के संघर्ष के प्रेरक बने।
स्वामी दयानंद के अनुसार – “देश राष्ट्र एवं समाज की उन्नति देश के आध्यात्मिक / सांस्कृतिक उत्थान में ही है।” सन 1857 के बाद आर्य समाज द्वारा प्रारंभ किए गए अनेक विध समाज-सुधारों, शुद्धि-आंदोलनों (घर वापसी) तथा इसाई अथवा अंग्रेज विरोधी गतिविधियों से अनेक राष्ट्रवादी स्वतंत्रता सेनानी उत्पन्न हुए, जिन्होंने ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। स्वामी श्रद्धानंद, लाला लाजपत राय, सरदार भगत सिंह, श्यामजी कृष्ण वर्मा, राम प्रसाद बिस्मिल, वीर सावरकर, सुभाष चंद्र बोस, डॉक्टर हेडगेवार और श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसे राष्ट्र नेताओं पर आर्य समाज का विशेष प्रभाव रहा।
सन 1857 के पूर्व इसी कालखंड में आध्यात्मिक जगत के एक अन्य सन्यासी स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के जागरण में अपनी विशेष भूमिका निभाई। आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत ऊंचे उठ चुके इस महात्मा ने नैतिक जीवन, आत्मा परमात्मा की एकता, सभी जातियों में एकता, मानव समाज की सेवा इत्यादि भारतीयता (हिंदुत्व) के सिद्धांतों के प्रचार को केंद्र बनाकर ईसाइयत के खिलाफ एक प्रकार का मौन युद्ध छेड़ दिया।
स्वामी रामकृष्ण की आध्यात्मिक शक्ति में संस्कारित होकर स्वामी विवेकानंद जैसे राष्ट्रभक्त तथा बंकिमचंद्र जैसे देशभक्त राष्ट्रवादी नेता तैयार हुए। जिन्होंने देश के आत्मगौरव को जागृत करने एवं ‘वंदे मातरम’ राष्ट्र गीत लिखकर भारत और भारतीयता (हिंदुत्व) की ध्वजा को भारत सहित पुरे विश्व में फहरा दिया। 1857 से पूर्व और पश्चात हिन्दू संतों द्वारा जागृत की गयी प्रचंड राष्ट्रीय चेतना को अपने लिए एक बड़ी चुनौती मानकर अंग्रेजों ने एक ऐसी संस्था की कल्पना की जो सशस्त्र क्रांति का विरोध करके अहिंसावादी आन्दोलन चलाती रहे। अंग्रेजों की इसी विघटनकारी सोच में से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ। भारतीयों के रोष का दबाने का षड्यंत्र था यह।
अंग्रेजों के इस षड्यंत्र को विफल करने के लिए अनेक संत महात्मा आगे आए। स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ, महर्षि अरविंद, नामधारी सतगुरु राम सिंह कूका जैसे संतों एवं लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, महामना मदन मोहन मालवीय जैसे प्रखर राष्ट्रवादी तथा हिंदुत्व निष्ठ नेताओं ने अपनी-अपनी संस्थाओं के माध्यम से राष्ट्र जागरण की प्रचंड लहर चलाकर भारतीय समाज में आत्मविश्वास पैदा करने का ऐतिहासिक काम कर दिया।
स्वामी विवेकानंद ने भारत की आत्मा हिंदुत्व को जगाने के लिए देश के नवयुवकों को शक्ति की आराधना का पाठ पढ़ाते हुए कहा – “पचास वर्षों तक सभी देवी-देवताओं को भूलकर केवल भारत माता की पूजा करो। उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक उद्देश्य पूरा ना हो जाए”। स्पष्ट है कि यह उद्देश्य अखंड भारत की पूर्ण स्वतंत्रता ही था। भारत में भारतीय संस्कृति के पुनर्जागरण के साथ स्वामी जी विदेशों में भी हिन्दू धर्म के उज्जवल सिद्धांतों के प्रचार के साथ ईसाई पादरियों एवं शासकों द्वारा भारत में किये जा रहे अत्याचारों की पोल खोली।
स्वामी विवेकानंद का यह आह्वान – “वीरों साहस का अवलंबन करो। गर्व से कहो कि मैं हिन्दू हूँ – भारतवासी हूं।” स्वामी जी के आदेशानुसार लोकमान्य तिलक, वीर सावरकर, भाई परमानन्द, डॉ. हेडगेवार तथा रामधारी सिंह दिनकर ने युवकों को संगठित / शक्तिशाली होने का आह्वान किया। स्वामी जी के अनुसार जब तक भारत माता के हाथों में पड़ी परतंत्रता की बेड़ियाँ टूट नहीं जातीं तब तक विदेशी शासकों के विरुद्ध जंग को हिम्मत के साथ जारी रखो। रुको मत।”
स्वामी विवेकानंद ने 19वीं शताब्दी के अंतिम दशक में युवकों को शक्ति की आराधना करने का आह्वान किया था। इतिहास के पन्ने साक्षी हैं कि इन्हीं पचास वर्षों में सरदार भगत सिंह, सावरकर, सुभाष, लाला हरदयाल, चंद्रशेखर आजाद, शचीन्द्रनाथ सान्याल, राजगुरु, सुखदेव, मदन लाल ढींगरा, ऊधम सिंह, खुदीराम बोस, चाफेकर बन्धु, बटुकेश्वर दत्त, करतार सिंह सराभा जैसे हजारों क्रांतिकारी नवयुवकों ने सशस्त्र क्रांति की अलख जगा दी।
इसी तरह युवकों में नवतेज जागृत करके उन्हें सशस्त्र क्रांति के माध्यम से मातृभूमि भारत के लिए अपने प्राणों की आहुति देने के लिए तैयार करने में महर्षि अरविंद की पार्श्व भूमिका का भी बहुत महत्वपूर्ण योगदान था। अंग्रेजी शिक्षा और ईसाई धर्म के संस्कारों में पलकर भी स्वामी अरविंद में भारत और भारतीय संस्कृति की ज्वाला कैसे प्रस्फुटित हो गई? इस प्रश्न का उत्तर भी तत्कालीन राजनीतिक परिस्थितियों में मिलता है। हिंदुत्वनिष्ठ महाराजा बड़ौदा की प्रेरणा से अरविंद ने संस्कृत सीखी और इसके साथ ही वेदों उपनिषदों इत्यादि भारतीय शास्त्रों का अध्ययन किया। लोकमान्य तिलक ने इस युवा को मातृभूमि की सेवा में सर्वस्व अर्पण करने के लिए तैयार कर दिया।
इन्हीं दिनों महर्षि अरविंद ने वंदेमातरम तथा युगांतर नामक दो साप्ताहिक पत्रों में लेख लिखने शुरू किए। उनके लेखों में मां भारती की वंदना, विधर्मी शासकों के प्रति घृणा, नवयुवकों को क्रांति पथ पर चलने का आह्वान इत्यादि वीरव्रती सामग्री रहती थी। इन लेखों से प्रेरणा लेकर हजारों युवा स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े।
आगे चलकर श्री अरविंद ने महाराष्ट्र और बंगाल के प्रायः सभी क्रांतिकारी दलों को एकजुट करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। कलकत्ता को केंद्र बनाकर सारे देश में सशस्त्र क्रांति की मशाल जलाने के लिए प्रयासरत अनुशीलन समिति के गठन तथा संचालन में भी अरविंद ने ठोस भूमिका निभाई। देश के विभिन्न स्थानों को केंद्र मानकर सक्रिय क्रांतिकारियों में उत्साह भरने के लिए श्री अरविंद ने एक पम्पलेट ‘भवानी मंदिर’ लिखा। इस कथित खतरनाक पम्पलेट की हजारों प्रतियां लगभग सभी क्रांतिकारियों तक पहुंच गई।
सरकार ने इस पम्पलेट को जब्त कर के श्री अरविंद के खिलाफ चल रहे अलीपुर बम केस में इसे सबूत के रूप में प्रस्तुत कर दिया। परिणाम स्वरूप श्री अरविंद को जेल यात्रा का अनुभव प्राप्त हुआ। कारावास में ही गहन साधना करते हुए आध्यात्मिक शक्ति के दर्शन हुए। अब श्री अरविंद ने आध्यात्मिक क्रांति का मार्ग प्रशस्त करने का निर्णय लेकर स्वयं को इस ओर सक्रिय कर लिया।
इसी कालखंड में राजा राममोहन राय ने ब्रह्मसमाज नामक संस्था की स्थापना करके भारत में हिंदुत्व के जागरण का बीड़ा उठाया। ब्रह्मसमाज का उद्देश्य ईसाइयत के बढ़ते प्रभाव को रोकने के साथ-साथ हिंदू समाज की कुरीतियों को दूर करके एक शक्तिशाली हिंदू संगठन तैयार करना था। राजा राममोहन की इस तीव्र राष्ट्रनिष्ठा को देखकर अनेक सामाजिक नेता एवं क्रांतिकारी युवक ईसाई तानाशाहों के विरुद्ध देश में हो रहे स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े।
इसी तरह भारत के कोने-कोने में अनेक संतों-महात्माओं ने धार्मिक प्रवचनों, प्रभात फेरियों, धार्मिक पर्वों तथा गुरु पर्वों के आध्यात्मिक मार्ग को अपना कर समाज को विधर्मी शासकों के विरुद्ध एकजुट करने में अपने राष्ट्रीय कर्तव्य को सफलतापूर्वक निभाया। अतः विदेशी / विधर्मी शासकों का तख्ता पलटने के लिए जितने प्रकार के प्रयास भारत में हुए, इनकी पीठ पर हमारी अध्यात्मिक संत शक्ति का वरद हस्त सदैव बना रहा। ……………. जारी
नरेन्द्र सहगल
पूर्व संघ प्रचारक, लेखक – पत्रकार
बंधुओं मेरा आपसे सविनय निवेदन है कि इस लेखमाला को सोशल मीडिया के प्रत्येक साधन द्वारा आगे से आगे फॉरवर्ड करके आप भी फांसी के तख्तों को चूमने वाले देशभक्त क्रांतिकारियों को अपनी श्रद्धांजलि देकर अपने राष्ट्रीय कर्तव्य को निभाएं।
भूले नहीं – चूकें नहीं।