बुत्परस्तों के सरस्वती-सिंधू घाटी में प्रवेश करने से पहले तक इस धरती पर लगातार आर्य प्रशासकों ने ही शासन किया था। बाहर से आये चरवाहों ने मौका पाकर वैदिक आर्यों ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों को मार दिया और कुछ लोगों ने जंगलों में शरण लेकर अपने प्राणों की रक्षा की थी। जो आर्य लोग उन नृशंस आक्रमणकारियों के हाथ आ गये थे, बुत्परस्तों ने उन्हें अपना गुलाम बना लिया था। आक्रमणकारी बुत्परस्त खुद को आर्य कहने लगे, बुत्परस्ती को वैदिक बताने लगे और ऋग्वेद के पुरुष सूक्त 10.90 की मनमानी व्याख्या कर जन्मना ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य बन बैठे। मनुस्मृति में मिलावट कर ‘जन्मना जायते शूद्राः’ प्रचारित किया और शूद्र कुल में उत्पन्न मानव संसाधन से पढ़ने-लिखने का अधिकार भी छीन लिया। हम सबके के पूर्वज सिन्धू-सरस्वती घाटी की महान सभ्यता के सृजक ईश्वर उपासक, आर्यवैदिक थे तथा इस धरती के मूलनिवासी थे। बुत्परस्त समाज ने हाशिये पर गये शूद्र-आर्य लोगों पर अनेक प्रकार की पाबन्दियां लगाई हुई थी। उन बदकिस्मत लोगों से अक्षर ज्ञान तक का जन्मसिद्ध अधिकार तक छीन लिया गया। वे बदकिस्मत लोग पढ़ना तो दूर अपने ही वेदादि धार्मिक ग्रन्थों का पाठ भी नहीं सुन सकते थे। इन आज्ञाओं की अवहेलना करने पर कड़े दंड निर्धारित किए हुए थे। उस अंधकार ग्रस्त समय में जन्में आर्य लोग प्रभु प्रार्थना के नाम को न सुन सकते थे, न उच्चारण कर सकते थे और न ही पावन ओम् नाम का स्मरण ही कर सकते थे। पुरुष सूक्त की यह व्याख्या षड्यन्त्रपूर्वक आदमी से ऋषि बने एक आक्रमणकारी की कोरी कल्पना पर आधारित है। इस व्याख्या को उस समय पर धार्मिक साहित्य कहा जा सकता है। आक्रमण एक ओर वेदों की गलत व्याख्यायें कर रहे थे, भागवत पुराणादि लिखकर श्रीकृष्ण आदि आर्यपूर्वजों के चरित्र का चीरहरण कर रहे थे, वहीं वेदों की शाखाओं को चुल्हे में ईंधन बनाकर स्वार्थ की रोटियां सेकुलर रहे थे। उनके मुंह में राम बगल में छुरी थी। यह सब मूलनिवासियों को पूर्ण रूप से बुतपरस्त लोगों का गुलाम बनाये रखने के मनोरथ से किया जा रहा था। दो मनुष्यों में से एक को पुनीत और दूसरे को अपवित्र बना दिया गया था वर्तमान आधुनिक काल में भी ईश्वर विरोधी, वेद विरोधी प्रथा प्रचलित है। आर्य लोग अनेक प्रकार की तकलीफ से तथा संताप साथ लेकर जन्म लेते हैं। स्वतंत्रता के आंदोलन में सबसे अधिक भागीदारी होने पर भी आर्यसमाजियों, शूद्रों का लालकिले से कोई नामलेवा तक नहीं है। आर्यसमाजियों के साथ अंग्रेजों और आजादी के बाद सेकुलरों द्वारा किये गये अमानवीय व्यवहार को कलमबद्ध करते हुये कलम की जीभ फट जाती है। ऋषि दयानन्द ने बुत्परस्तों का पर्दाफाश किया, काशी में जाकर ललकारा कि वेद में बुतपरस्ती, जन्मना ब्राह्मणवाद, जन्मना क्षत्रियवाद, जन्मना वैश्यवाद, जन्मना जायते शूद्राः कहीं नहीं है। बुत्परस्त शास्त्रार्थ हार गये, पर इतने वैरी हुये कि ऋषि दयानन्द पर 17 बार आक्रमण किया गया और अन्ततः मरवा ही डाला। पर ऋषि दयानन्द ने कभी किसी से द्वेष, वैर नहीं किया और अपने हत्यारे को भी माफ कर दिया। परंतु मानवता विरोधी पक्षों की आडंबर पूर्ण, पाखंड युक्त तथा शोषणकारी चालों ने मूलनिवासी जनता के कानों की खिड़कियों को बंद करके रखा हुआ है ताकि वे अपने हितैषी सच्चे ऋषि और आर्यसमाज की आवाज न सुन सकें। षड्यन्त्रकारियों को आजादी की लड़ाई में दलितोद्धारक आर्यसमाज का योगदान दिखाई तक नहीं देता। पर मूलनिवासी आर्यपूर्वज भगत सिंह ने हमें अन्यायकारी शासकों के कानों की बंद खिड़कियां खोलने की विधि बताई है। आओ हम सब ग्राम ग्राम जाकर अपने भाइयों को सच्चे ऋषि का संदेश दें, मूल निवासियों को बुत्परस्ती से बचायें, उन्हें दलितोद्धारक बनायें, जातिवाद मिटायें, मूलनिवासियों, महिलाओं को वेद पढ़ने का अधिकार दिलवायें, वेद की पौराणिक व्याख्याओं का पर्दाफाश करें। आओ फिर से आर्य बनें। ऋषि दयानन्द ने अपना बलिदान देकर हमें ओम् जप, वेद पठन, श्रवण का अधिकार दिलवाया है, हम मूलनिवासियों और महिला जाति को आर्य, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य बनने का अधिकार दिलवाया है। -आचार्य अशोकपाल
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