गीता मेरे गीतों में , गीत 31 ( गीता के मूल ७० श्लोकों का काव्यानुवाद)
ध्यान – विधि
प्रणव जप से ध्यान कर ईश्वर का स्वरूप।
जो योगी ऐसा करें , वही हैं सच्चे भूप।।
विषमता और उद्वेग से , बढ़े समता की ओर।
योगी सच्चा है वही , पाये नभ का छोर ।।
आत्मा का यह धर्म है , शांति – समता ध्यान।
प्रसाद भी मिलता हमें, जब होवे आत्मज्ञान ।।
साधक अपने आप को बांधे जप की डोर।
माया से दूरी बना , चलता प्रभु की ओर।।
मनवा जप से शांत हो , तजता सारे दोष।
ध्यान में जब मग्न हो, मिले प्रभु की गोद।।
बाह्य:चक्षु बंद हों , खुलें भीतर के द्वार ।
मन भीतर थमने लगे, बंद करे व्यापार ।।
समत्व में ध्यानस्थ हो, करता निज की खोज।
हर दौलत मिलती उसे, मिले तेज और ओज।।
जो युद्ध में आनंद ले , वही है सच्चा शूर ।
है साधना उसकी यही, पाता सच्चा नूर ।।
पराजय का आवे नहीं दूर तलक कोई भाव ।
शत्रु के संहार का , रहता मन में चाव।।
आलस और प्रमाद से , समत्व भाव हो तंग।
जीवन को यह रोकते, मत कर इनका संग।।
समत्व को सात्विक रखो, आनंद का यही मूल।
जो ऐसा ना कर सके तो फूल बनेंगे शूल।।
सत, रज , तम से दूर हो, मिटे सभी अंधकार।
ध्यान जितना शुद्ध हो , बढ़ते शुद्ध विचार ।।
ध्यान में ध्यानस्थ हो ,और आसन होवे शुद्ध।
धीरे – धीरे मन बने – शुध्द , बुध्द , प्रबुद्ध ।।
जब आसन योगी गहे, गर्दन सीधी होय।
शरीर भी सीधा तने , हिले डुले ना कोय।।
नासिका के द्वार का जो है अगला भाग।
उसको देखो ध्यान से, मन न पावे भाग।।
यह गीत मेरी पुस्तक “गीता मेरे गीतों में” से लिया गया है। जो कि डायमंड पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित की गई है । पुस्तक का मूल्य ₹250 है। पुस्तक प्राप्ति के लिए मुक्त प्रकाशन से संपर्क किया जा सकता है। संपर्क सूत्र है – 98 1000 8004
डॉ राकेश कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत