नई दिल्ली 28 जनवरी, 2015। गणतंत्रा दिवस की पूर्व संध्या पर घोषित हुए पद्म अलंकरणांे में पद्म श्री के लिए राजस्थान से नामित हुए राजस्थान के थेवा कलाकार श्री महेश राजसोनी इस सम्मान से खासे उत्साहित और गौरवान्वित महसूस कर रहे है और कहते है कि उन्हे राष्ट्रपति भवन में यह सम्मान ग्रहण करने का बेसब्री से इंतजार है, चंूकि दक्षिणी राजस्थान के प्रतापगढ़ की इस अनूठी कला का एक और जहां राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान होगा, वहीं उनके राजसोनी परिवार को लम्बी साधना का फल भी मिलेगा।
61 वर्षीय श्री महेश सोनी ने अपने पिता श्री रामविलास राजसोनी से शीशे पर सुनहरी मीनाकारी और सोने की नक्काशी करने की अद्वितीय एवं बेजोड़ ‘थेवा कला’ के गुर सीखें और अब अपने पुत्रों श्री तरूण, श्री कमलेश और श्री राघव को भी इस कला के फन का जादूगर बना रहे है। उन्होने बताया कि राजसोनी परिवार की पुरानी एवं वर्तमान पीढ़ियां सदियों पुरानी और अनूठी थेवा कला को जीवित रखने के लिए प्रयासरत रही हैं।
एम.कॉम की शिक्षा प्राप्त श्री सोनी को थेवा कला के लिए कई पुरस्कार मिले है। उन्हें वर्ष 1982-83 में राज्य स्तरीय सम्मान, 2008 में राष्ट्रपति के हाथों राष्ट्रीय पुरस्कार और वर्ष 2011 में श्री लंका में अन्तर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिले है।
श्री सोनी नई दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार मेला के साथ ही देश-विदेश में आयोजित कई प्रदर्शनियों में भाग ले चुके है। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका और श्री लंका आदि देशों में भी ‘थेवा-कला’ का प्रदर्शन किया है।
लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड्स में हैं नाम दर्ज
श्री महेश राजसोनी बताते है कि एक ही परिवार के सदस्यों को कला के क्षेत्रा में सर्वाधिक राष्ट्रीय अवार्ड प्राप्त करने के लिए उनके परिवार का नाम ‘लिम्का बुक ऑफ रिकाडर््स-2011’ में शामिल किया गया है। थेवा कला के लिए परिवार के सदस्यों को अब तक आठ राष्ट्रीय अवार्ड और दो राज्य स्तरीय अवार्ड मिल चुके हे। इसके अलावा अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान भी मिले है। सबसे पहले 1966 में इस वंश के श्री राम प्रसाद राजसोनी, 1970 में श्री शंकर लाल राजसोनी, 1972 में श्री बेनी राम राजसोनी, 1975 में श्री रामविलास राजसोनी, 1976 में श्री जगदीश लाल राजसोनी, 1977 में श्री बसंत लाल सोनी, 1982 में रामविलास राजसोनी को राष्ट्रीय अवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है।
ख्यातिनाम हस्तियों से मिला सम्मान
थेवा कला के क्षेत्रा में अपना हुनर प्रदर्शित करने के लिए उनके परिवार के सदस्यों को देश-विदेश की ख्यातिनाम हस्तियों ने सम्मानित किया है। इस क्रम में 1968 में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्ण ने श्री रामप्रसाद राजसोनी, 1970 में तत्कालीन राष्ट्रपति वीवी गिरी ने श्री शंकरलाल राजसोनी, 1972 में तत्कालन राष्ट्रपति वीवी गिरी ने श्री बेनीराम राजसोनी, 1975 में तत्कालीन राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ने श्री रामविलास राजसोनी, 1976 में तत्कालीन उपराष्ट्रपति श्री बी.डी. जती ने श्री जगदीश लाल राजसोनी, 1977 में तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी में श्री बंसलाल राजसोनी को, 1982 में तत्कालीन राष्ट्रपति श्री नीलम संजीव रेड्डी ने श्री रामनिवास राजसोनी और 2005-06 का अवार्ड राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल के हाथों वे स्वंय वर्ष 2008 में सम्मानित हो चुके हैं और अब उन्हें राष्ट्रपति से पद्म श्री सम्मान मिलने का बेसब्री से इंतजार है।
क्या है थेवा कला……..?
श्री सोनी ने बताया कि राजस्थान की अनूठी ‘थेवा-कला’ शीशे पर सोने की बारीक मीनाकारी और नक्काशी की पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली इस बेजोड़ कला कोे प्रतापगढ़ (राजस्थान) में परिवार के मुखिया ही मुख्यतः सीखते हैं और वंश परंपरा को आगे बढ़ाते हैं।
17वीं शताब्दी में तत्कालीन राजघरानों के संरक्षण में पनपी राजस्थान की इस आकर्षक‘ थेवा कला’ को जानने वाले देश में अब गिने चुने परिवार ही बचे हैं। ये परिवार प्रतापगढ़ जिले में रहने वाले ‘राज सोनी घराने’ के हैं।
‘थेवा कला’ विभिन्न रंगों के शीशों (कॉंच ) को चांदी के महीन तारों से बनी फ्रेम में डालकर उस पर सोने की बारीक कलाकृतियां उकेरने की अनूठी कला है। जिन्हें कुशल और दक्ष हाथों थेवा कलाकार अपने से छोटे-छोटे औजारों की मदद से बनाते है।
इस कला में पहले कॉंच पर सोने की शीट लगाकर उस पर बारीक जाली बनाई जाती है, जिसे ‘थारणा’ कहा जाता है। दूसरे चरण में कॉंच को कसने के लिए चांदी के बारीक तार से बनाई जाने वाली फ्रेम का कार्य किया जाता है। जिसे ‘वाडा’ बोला जाता है। तत्पश्चात इसे तेज आग में तपाया जाता है। फलस्वरूप शीशे पर सोने की कलाकृति और खूबसूरत डिजाईन उभर कर एक नायाब और लाजवाब कृति का आभूषण बन जाती है। इन दोनों प्रकार के काम और शब्दों से मिलकर ‘थेवा’ नाम की उत्पत्ति हुई है। प्रारम्भ में ‘थेवा’ कलाकारी लाल, नीले और हरे रंगों के मूल्यवान पत्थरों हीरा, पन्ना आदि पर ही उकेरी जाती थी, लेकिन अब यह कला पीले, गुलाबी और काले रंग के कांच के बहुमूल्य रत्नों पर भी नई फैशन डिजाईनों में उकेरी जाने लगी है।
प्रारंभ में थेवा कला से बनाए जाने वाले बॉक्स, प्लेट्स, डिश आदि पर लोककथाएं उकेरी जाती थी लेकिन अब यह कला आभूषणांे के साथ-साथ पेंडल्स, ईयर-रिंग, टाई और साड़ियों की पिन कफलिंक्स, फोटोफ्रेम आदि में भी प्रचलित हो चली है। थेवा कला को आधुनिक फैशन की विविध डिजाईनों में ढ़ालकर लोकप्रिय बनाने के प्रयास भी किए जा रहे हैं ताकि लुप्त होती जा रही इस अनूठी कला को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजार से परिचित कराने और लोकप्रिय बनाने के कार्य को और अधिक गति मिल सके।
थेवा को मिला है…. ज्योग्राफिकल इंडीकेशन संख्या प्रमाण-पत्र
श्री सोनी बताते है कि दक्षिणी राजस्थान के प्रतापगढ़ जिले की इस विश्व प्रसिद्ध ‘थेवा कला’ ने एक और अनूठी उपलब्धि भी हासिल की है। भारत सरकार द्वारा, थेवा कला की प्रतिनिधि संस्था ‘राजस्थान थेवा कला संस्थान’ प्रतापगढ़ को इस बेजोड़ कला के संरक्षण में विशेषीकरण के लिए वस्तुओं का भौगोलिक उपदर्शन (रजिस्ट्रीकरण तथा सरंक्षण) अधिनियम, 1999 के तहत् ‘‘ज्योग्राफिकल इंडीकेशन संख्या का प्रमाण-पत्रा’’ प्रदान किया गया है। उल्लेखनीय है कि ज्योग्राफिकल इंडीकेशन किसी उत्पाद को उसकी स्थान विशेष में उत्पत्ति एवं प्रचलन के साथ विशेष भौगोलिक गुणवत्ता एवं पहचान के लिए दिया जाता है।
श्री सोनी बताते है कि प्रतापगढ़ की थेवा कला अपनी विशेष सिद्धहस्त कला के लिए पूरी दुनियॉ में प्रसिद्ध है, तथा अब भौगोलिक उपदर्शन संख्या मिलने से यह कला अपनी भौगोलिक पहचान को अच्छी तरह से कायम रखने में कामयाब हो रही है।
उन्होंने बताया की राजस्थान के प्रतापगढ़ में थेवा कला की उत्पत्ति सैंकडांे वर्षो पहले हुई थी तथा कांच पर सोने की बारीक नक्काशी के कारण अनूठी एवं बेजोड़ का यह कला आज भी अपनी खास पहचान को कायम रख विश्व कला परिदृश्य में छाई हुई है।
राजस्थान की तीन और विभूतियां भी पद्म श्री के लिए नामित
श्री महेश राज सोनी के अलावा राजस्थान की तीन और विभूतियों राज्य के पूर्व मुख्य सचिव दिवंगत श्री मीठ्ठा लाल मेहता को सामाजिक कार्यो, श्री राजेश कोटेचा को आयुर्वेद के क्षेत्रा में योगदान के लिए और ‘जयपुर फुट’ लगाने वाली भगवान महावीर विकंलाग समिति जयपुर के कार्यकारी निदेशक श्री वीरेंद्र राज मेहता को भी पद्म श्री अवार्ड से सम्मानित करने के लिए चुना गया है।